कोविड महामारी ने पूरे विश्व को कई मायनों में प्रभावित कर अर्थव्यवस्था के स्थापित ढांचों को हिला दिया है। जिस व्यापक तरीके से यह महामारी फैली, उससे निपटने के लिए उसी व्यापकता और वैश्विक सोच के साथ कदम उठाने की जरूरत है। भारत ने इससे निपटने के लिए लॉकडाउन की घोषणा की, जिसे 47 दिन से ऊपर हो गए हैं। महामारी का कहर अपनी जगह है, लेकिन उससे निपटने के लिए जो कदम उठाए गए उससे मजदूर वर्ग हाशिए पर आ गया है और पहले से ही हाशिए पर खड़े लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। भूख और बेरोजगारी ने पहले से भी अधिक वीभत्स रूप धारण कर लिया है, जो वायरस से भी बड़ी महामारी बनती नजर आ रही है। लॉकडाउन खत्म होने के बाद इससे निपटने का कोई रोडमैप सरकार ने जनता को नहीं बताया है। प्रबंधन और सामंजस्य की कमी के कारण सैकड़ों गरीब हजारों किलोमीटर पैदल ही यात्रा कर अपने घरों की तरफ जा रहे हैं। इन लोगों के पास जो भी बचत थी उन्होंने अभी तक के खाने-पीने में लगा दी है और अब इनके पास कुछ नहीं बचा है। मेहनत कर कमाने-खाने के लिए देश के एक भाग से दूसरे भाग में गए ये लोग अपनी गरिमा को ताक पर रखते हुए आज दाने-दाने को मोहताज हैं। सरकार ने उच्च और उच्च-मध्यम वर्ग के लोगों को तो देश-विदेश से लाने की व्यवस्था कर दी लेकिन इन मजदूरों की वापसी यात्रा से मुंह फेर लिया। सरकार ने इतना भी नहीं सोचा कि ये भी भारतीय नागरिक ही हैं और देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी भी।
हाल ही में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात सरकारों ने श्रम कानूनों को व्यापक तौर पर शिथिल करने की घोषणा की। कुछ अन्य सरकारों ने भी श्रम कानूनों में कुछ बदलाव किए हैं। यह हमें सौ साल पीछे ले जाने वाला कदम है। दुनिया के बहुत से मजदूरों ने ये कानून दशकों की लड़ाई लड़कर बनवाए थे। यह संवैधानिक ढांचे पर भी आघात है। कैसे कोई राज्य, केंद्र द्वारा बनाए गए कानून को स्थगित कर सकता है? भारत जैसे देश में ये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जहां 93 फीसदी लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि भारत में मजदूरों की दुर्दशा का बड़ा कारण मौजूदा श्रम या अन्य कानूनों का ठीक से पालन न होना भी है। आज अगर अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार कानून का ठीक से पालन हो रहा होता, तो हर सरकार के पास यह आंकड़ा होता कि उनके राज्य में किस जगह से कितने प्रवासी मजदूर हैं। न्यूनतम मजदूरी की लड़ाई नई नहीं है। इस कानून को खत्म करने का मतलब, बंधुआ मजदूरी है। क्योंकि अब काम का अभाव और भुखमरी का फायदा उठाकर कोई भी न्यूनतम मजदूरी से कम में काम करा सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के अनुसार भी, कानूनन न्यूनतम मजदूरी से कम देना बंधुआ मजदूरी है। अगर कोई मजदूर उससे कम में काम करता है तो उसको मजबूरी या बेगार माना जाएगा। उद्योग विवाद अधिनियम पर आघात ठेकेदारी को बढ़ावा देगा और पक्की नौकरी के बजाय दिहाड़ी मजदूरों को लगाने का चलन बढ़ेगा। इससे किसी को भी काम पर लगाने और निकालने में पूंजीपतियों की मर्जी चलेगी। कारखाना अधिनियम को स्थगित करने का मतलब है- कार्यस्थल पर श्रमिकों को मिलने वाली मूलभूत सुविधाएं जैसे, पीने का पानी, बिजली, शौचालय, खाने की व्यवस्था आदि में कटौती होना या न होना। अब इन सुविधाओं की कोई गारंटी नहीं रहेगी। धरातल पर महिला और पुरुष को समान मजदूरी तो हम आज तक नहीं दिला पाए हैं, लेकिन समान पारिश्रमिक अधिनियम को स्थगित करना महिला श्रमिकों के शोषण को और बढ़ाएगा।
ये सारे निर्णय चंद पूंजीपतियों के इशारे पर उठाए गए हैं। यही पूंजीपति चुनाव के समय इलेक्टोरल बॉन्ड और अन्य माध्यमों से राजनैतिक दलों को चंदा देते हैं। लेकिन क्या सरकार बनाने के लिए इन करोड़ों मजदूरों ने वोट नहीं दिया? अगर इन्हीं के वोट से सरकार बनी है तो नोटबंदी, लॉकडाउन और श्रम कानूनों के स्थगन जैसे निर्णय लेते वक्त सरकार इनके बारे में क्यों नहीं सोचती? ऐसा नहीं है कि पूंजीवाद की नींव पर बनी सरकार का यह पहला प्रयास है। सरकार तो पहले से ही 44 श्रम संहिता खत्म कर उसे 4 श्रम संहिता में बदलने की तरफ बढ़ चुकी है। महामारी की आड़ में बस इसमें तेजी लाई जा रही है। इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए बनने वाले यूनियन और संगठनों को कमजोर करना और उनकी आवाज दबाने का काम पहले से ही इस ‘सरलीकरण’ का हिस्सा है। ऐसा इसलिए ताकि इस शोषण के खिलाफ कोई आवाज न उठा पाए। यह सब मौलिक अधिकारों, जीने का अधिकार और समानता के अधिकार पर सीधा-सीधा प्रहार है। सरकार और देश को सोचना चाहिए कि मजदूरों के साथ इतना दुर्व्यवहार करने के बाद उनके श्रम के हक को भी खत्म कर दिया जाएगा, तो क्या वे काम पर लौट आएंगे? मजदूरों के बिना अर्थव्यवस्था और देश कैसे चलेगा?
लॉकडाउन के दौरान पहली परेशानी दो वक्त की रोटी की थी। आज भी लाखों परिवार ऐसे हैं जो रोज की कमाई से दो वक्त का खाना पाते हैं। इनके रोजगार बंद हो गए। बड़ी संख्या में ऐसे भी लोग हैं, जिनके पास कोई सरकारी कागज नहीं है। इसके अलावा बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों के राशनकार्ड उनके गृह राज्य के हैं, जबकि वे दूसरे राज्य या प्रदेश में फंसे हुए हैं। जो लोग लंबे समय से प्रवासी हैं उनके पास गृह प्रदेश का भी कोई कागजात नहीं है। ऐसी स्थिति में सिर्फ खाद्य सुरक्षा अधिनियम में जुड़े परिवारों को ही राशन दिया जाना समझ से परे है। आज भी बहुत से जरूरतमंद परिवार खाद्य सुरक्षा सूची में नहीं जुड़ पाए हैं। इसके अलावा जनसंख्या बढ़ने के बावजूद केंद्र सरकार 2011 की जनगणना के आधार पर ही राज्यों को आवंटन कर रही है।
दूसरी तरफ अन्न भंडार भरे हुए हैं। नई आवक आने से पहले जगह बनाने के लिए इन्हें खाली करना ही पड़ेगा। इन सबको ध्यान में रखते हुए राशन व्यवस्था को लक्षित करने के बजाय सार्वभौमिक किया जाना चाहिए। इससे उन किसानों को भी मदद मिलेगी जिनकी फसल खरीद के इंतजार में पड़ी है। दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे और एनीमिया से ग्रस्त महिलाएं भारत में ही हैं। लॉकडाउन के कारण इनकी संख्या और बढ़ने की संभावना है। आंगनवाड़ी की मदद से इन्हें पौष्टिक और संतुलित आहार पहुंचाए जाने की जरूरत है। इसके अलावा सार्वजनिक रसोई भी चलाए जाने की जरूरत है, जहां कोई भी भूखा आ कर बिना कोई कागज दिखाए भोजन कर सके।
एक और बड़ी समस्या, जिसका सामना लगभग हर वर्ग के लोगों को करना पड़ा है। वह है, स्वास्थ्य। पिछले कुछ सालों में बीमा और निजी अस्पतालों का चलन बढ़ा है जिसका सीधा संबंध सरकार द्वारा संसाधनों और प्रबंधन के अभाव से है। लेकिन इस संकट की घड़ी में कम ही ऐसे निजी अस्पताल थे जो मदद के लिए आगे आए। कुछ जगह सरकार को निजी अस्पतालों का प्रबंधन अपने हाथ में लेना पड़ा। यह एक मौका है जहां सरकारी स्वास्थ्य तंत्र मजबूत कर इसे इतना सशक्त करने की जरूरत है कि इलाज के अभाव में किसी को भी अपनी जान न गंवानी पड़े। इसमें अग्रपंक्ति में लगे स्वास्थ्यकर्मियों के साथ-साथ बहु-विशेषता वाले संस्थान बनाने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इस देश में हर नागरिक को समान स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने का हक और विश्वास होना चाहिए, तभी लोग मिलकर इस महामारी का सामना कर पाएंगे।
पहले ही गंभीर समस्या का रूप धारण कर चुकी बेरोजगारी लॉकडाउन के कारण विशाल रूप ले चुकी है। बड़ी संख्या में या तो प्रवासी श्रमिक वापस अपने गृह-स्थान पहुंच चुके हैं या पहुंच रहे हैं। इनके आत्मसम्मान को जो ठेस पहुंची है उसके कारण एक बड़ी संख्या वापस आना पसंद नहीं करेगी। एक बार फिर महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) भुखमरी और बेरोजगारी से निकलने के लिए संजीवनी हो सकती है। जरूरत है, इसे ठीक से क्रियान्वित करने और इसका और विस्तार करने की। इससे श्रमिकों को गांव में ही काम मिल सकेगा जिससे पलायन कर रहे मजदूरों के शोषण पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी और गांव का विकास भी होगा। सरकार को चाहिए कि बड़े पूंजीपतियों के ऋण माफ करने के बजाय जहां भी मनरेगा में काम की जरूरत है, वहां काम दिया जाए। जो पैसा मनरेगा भुगतान से श्रमिकों को मिलेगा वह पैसा तुरंत बाजार में आएगा। इससे अर्थव्यवस्था ठीक करने में मदद मिलेगी। आज भी धरातल पर कई परेशानियां हैं, जैसे, पंचायत में आवेदन स्वीकार न करना, आवेदन की रसीद न देना, गांव के आसपास काम स्वीकृत न होना, वंचित तबके के लोगों को काम न देना। राजस्थान में ऐसी समस्याएं आ रही हैं, जिसे राजस्थान सरकार के सहयोग से दूर किया जा रहा है। यही वजह है कि मनरेगा के तहत काम सृजित करने में राजस्थान फिर से पहले नंबर पर आ चुका है। भारत में हर राज्य को मनरेगा को काम की गारंटी के वास्तविक रूप में धरातल पर उतारना होगा।
केंद्र सरकार को भी महामारी के दौरान व्यापक और रचनात्मक मनरेगा कार्यक्रम चलाना पड़ेगा। मनरेगा में एक परिवार को 100 दिन काम के बजाय जितना काम किसी परिवार में चाहिए उतना देना चाहिए। काम के बदले अनाज देने पर भी सरकार को विचार करना चाहिए। रचनात्मक तरीके से नए कामों की श्रेणी भी जोड़ी जानी चाहिए। सामूहिक तरीके से खेतों की मेड़बंदी करना, अपने खेत और घरों में काम करने के साथ मनरेगा को आवश्यक सेवाओं से जोड़ना चाहिए जिससे पंचायत, कोविड-19 का सामना करने में अपने इलाके के श्रमिकों का सहयोग ले सके। यह सब महामारी प्रबंधन रोजगार गारंटी का हिस्सा होना चाहिए। इसके अलावा इस योजना का विस्तार शहरी क्षेत्रों में भी किया जाना चाहिए। आज भी करोड़ों मजदूर श्रम विभाग की योजनाओं से वंचित हैं। इन्हें जोड़ने के लिए प्रक्रिया का सरलीकरण और जानकारी का प्रसार किया जाना चाहिए। मनरेगा में तो सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से इस प्रक्रिया को ऑटोमेट किया जा सकता है।
भारत अभी भी कृषि आधारित देश है। यह एक मौका है जब हमें अपने अन्नदाता को ध्यान में रखते हुए यह सोचना चाहिए कि कैसे कृषि घाटे का सौदा न रहे। हम औद्योगिक उत्पादन के बिना शायद काम चला लें लेकिन अन्न के अभाव में कोई नहीं जी सकता। आज के संकट में भी देश और उत्पादन को बचाने वाले किसान ही हैं, जो महामारी के दौरान भी अपने खेतों में काम करते रहे।
एक तबका और है जो इस सबसे बुरी तरह प्रभावित होता है वह है, वृद्ध, विकलांग और विधवाएं। सामाजिक सुरक्षा पेंशन के नाम पर केंद्र सरकार उन्हें सिर्फ 200 रुपये प्रति महीना देती है। यह रकम भी गरीबी रेखा से नीचे वालों को ही मिलती है। इस महंगाई के जमाने में सिर्फ पेंशन पर आश्रित व्यक्ति आखिर कैसे जीवन यापन कर सकता है? इस रकम में बढ़ोतरी की जरूरत है।
अब सवाल उठता है कि आखिर इतना पैसा आएगा कहां से? संविधान में दिए नीति-निर्देशक तत्व के अनुसार संपत्ति और संसाधनों के केंद्रीकरण और असमानता को कम करते हुए राज्य इस बात का ध्यान रखे कि सार्वजनिक हित में काम हों। श्रम कानूनों को शिथिल करना इसके विपरीत है। बड़े पूंजीपतियों पर संपत्ति कर लगाना चाहिए, जिससे एक निश्चित सीमा से ज्यादा कमाने वालों से सरकार को टैक्स मिले।
लॉकडाउन के दौरान शासक तंत्र और अमीर वर्ग का सबसे असंवेदनशील चेहरा दिखा। कुछ प्रभावशाली लोग राजनीतिक फायदे के लिए धर्म के आधार पर लोगों को बांटने पर उतारू हैं। यह सब समाज और देश को बहुत नुकसान पहुंचाएगा और हमारा भविष्य खतरे में डालेगा। जन आंदोलनों के आधार पर ही देश और संविधान बना है। आज दोबारा व्यापक जन आंदोलन की जरूरत है, जो हमारे मिले हुए हक और संविधान को बचाए और नई परिस्थिति में सबसे कमजोर और पीड़ित तबके के हकों को बढ़ाए। यदि हमें मिलजुल कर अपने भविष्य को सुधारना है तो हमें न्याय और समानता के आधार पर ही यह रचना करनी पड़ेगी। हमें दोगले मापदंड हटाकर एक-दूसरे के दुख-दर्द और हकों को सम्मान देना पड़ेगा। हर इंसान अपने हक के बारे में सोचता ही है, लेकिन इस समय यदि हम मजदूरों और किसानों की आवाज को ऊपर रखेंगे तो, शायद हम सबका फायदा होगा और इस अंधेरे से देश के लिए ठीक रास्ता निकलेगा।
(दोनों लेखक मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े हैं)
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सरकार ने विदेश से लोगों को लाने की व्यवस्था की लेकिन मजदूरों से मुंह फेर लिया। ये देश
की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और भारत के नागरिक भी
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पहले ही गंभीर समस्या का रूप धारण कर चुकी बेरोजगारी लॉकडाउन के कारण विकराल रूप ले चुकी है। इससे निकलने के लिए मनरेगा वरदान साबित हो सकता है