लॉकडाउन के पहले हफ्ते में, घर जाने को बेताब हजारों मजदूरों की भीड़ दिल्ली के आनंद विहार बस स्टेशन पर जमा हो गई थी। लॉकडाउन के ठीक पहले, मुंबई से बाहर जाने के लिए ट्रेनें श्रमिकों से ठसाठस भरी हुई थीं। जब से इस समस्या ने विकराल रूप लिया है, श्रम नियमों का नंगा सच सब के सामने आ गया है।
इस बीच, सरकारें श्रम कानूनों को खत्म करने में व्यस्त रहीं। इसे देख कर ऐसा लगता है कि समाज की जो भी स्थिति हो, बस मुनाफे को निचोड़ लेना है। जैसे ही लॉकडाउन खुल जाएगा, वैसे ही गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब इन पांच राज्यों ने काम के घंटे 8 से बढ़कर 12 घंटे हो जाएंगे। गुजरात चैंबर ऑफ कॉमर्स ने मजदूर संघ बनाने के अधिकार पर रोक लगाने की मांग की है। यूपी सरकार ने तीन साल के लिए 38 श्रम कानूनों में से 35 को खत्म करने का फैसला किया है।
लॉकडाउन के साथ, 10 करोड़ से अधिक प्रवासी कामगार एक समय तालाबंदी में फंसे हुए थे। सैकड़ों की संख्या में हजारों श्रमिक अपने गांव के घरों से दूर थे। इनमें से कई ऐसे थे जिन्हें दो या तीन महीने से पगार नहीं मिली थी। हजारों की संख्या में श्रमिक घर जाने के लिए हताश भटक रहे थे। वे किसी भी साधन से घर पहुंचना चाहते थे, यहां तक कि सैकड़ों मील पैदल चलकर भी। हाइवे पर पुलिस की प्रताड़ना से तंग आकर वे रेलवे लाइन के सहारे चले। इनमें मालगाड़ी की चपेट में आने से 16 लोगों की मौत हो गई, क्योंकि उन्हें आराम करने के लिए कोई जगह नहीं मिली। एक समूह चिलचिलाती गर्मी में सीमेंट मिक्सर में यात्रा करते पकड़ा गया। कई शिशुओं ने रास्तों पर ही जन्म लिया और रास्ते में ही उनकी मृत्यु हो गई। तालाबंदी के पहले चरण के दौरान, कई विरोध प्रदर्शन हुए, विशेष रूप से सूरत और मुंबई में। 3 मई को जब लॉकडाउन खुला तो सरकार ने नाराजगी कुछ कम करने के लिए ‘श्रमिक ट्रेनों’ की घोषणा की। ट्रेनें बहुत कम थीं, क्योंकि पूंजीपति वर्ग को हमेशा श्रमिकों की कमी की चिंता ज्यादा रहती है, इसलिए भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) ने मांग की कि केंद्रीय विधानों का उपयोग कर श्रमिकों को वापस काम करने का आदेश दिया जाए। रियल एस्टेट मालिकों के साथ एक बैठक के बाद कर्नाटक में, सरकार ने ‘श्रमिक ट्रेनों’ को रद्द कर दिया। बाद में यह निर्णय श्रमिकों के विरोध के दूसरे चरण और जनता के बीच शर्मनाक स्थिति से बचने के लिए वापस लिया गया।
लंबी विरासत
8 मई की देर रात एक आरटीआइ के जवाब में केंद्रीय श्रम मंत्री ने तर्क दिया कि उनकी सरकार के पास प्रवासी मजदूरों की संख्या का कोई डेटा नहीं है। देश की श्रम स्थिति पर यह एक टिप्पणी थी। अर्थव्यवस्था चलाने वाले ज्यादातर प्रवासी मजदूर शायद ही कहीं दर्ज हों। आखिरकार, वे भी किसी दूसरे सामान की तरह ही हैं, जिसे इस्तेमाल कर हटाया जा सकता है। 1990 के दशक से अर्थशास्त्री भारतीय अर्थव्यवस्था के उच्च विकास दर का जश्न मनाते आ रहे हैं। लेकिन भारत शायद ही उन लाखों लोगों को याद करता है, जिनकी श्रमशक्ति फैक्ट्रियों, सेवाओं और तेजी से हो रहे निर्माण को चलाती है। वास्तव में, 1990 के दशक के बाद से, भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से अनौपचारिक श्रम पर निर्भर हो गई है। अनौपचारिक श्रम, श्रमिकों को संदर्भित करता है जिसमें नौकरी और सामाजिक सुरक्षा तथा कम मजदूरी शामिल है। आइएलओ के अनुसार, भारत में लगभग 81 फीसदी काम करने वाले अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर जीवनयापन करते हैं। 2017-18 के लिए भारत सरकार के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा किया गया आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण बताता है कि करीब 415 मिलियन अनौपचारिक श्रमिक हैं जिसमें से एक बड़ा अनुपात प्रवासी श्रमिकों का है। औपचारिक क्षेत्र में भी अनौपचारिक तरीके से काम करना तेजी से आदर्श बन रहा है। प्रभु महापात्र के अनुसार, 1980 के दशक में भारत में विनिर्माण क्षेत्र में केवल सात फीसदी श्रमिक संविदा श्रमिक थे, जो 2012 तक बढ़कर 35 फीसदी हो गए। वह यह भी नोट करते हैं कि कैसे संगठित विनिर्माण में मुनाफे का हिस्सा शुद्ध मुनाफे को जोड़कर तीन गुना से बढ़कर 20 फीसदी से 60 फीसदी हो गया, जबकि 1980 के दशक के बाद से श्रम हिस्सेदारी बिलकुल उसी अनुपात में गिर गई।
एक औसत भारतीय श्रमिक के लिए स्थितियां कैसी हैं? ‘हाई-टेक’ महानगर बेंगलुरू के परिधान उद्योग को लें, तो यहां हजारों महिला कर्मचारी सिर्फ 6000 रुपये के वेतन पर काम करती हैं। खबर है कि यहां किराए, बिजली और पानी के नाम पर नियोक्ताओं ने 2,000 रुपये काट लिए। गुरुग्राम स्थित कपड़ा उद्योग में, श्रमिक दस से बारह घंटे काम करते हैं और मजदूरी अक्सर देर से मिलती है। यहां काम के वक्त होने वाली दुर्घटनाएं असामान्य नहीं हैं। फैक्ट्री परिसर में साथी श्रमिकों की मौत के बारे में इसी तरह की अफवाहों के आधार पर गुरुग्राम के उद्योग विहार में 2015 में दो बड़े दंगे हुए, जहां कई कारखानों में तोड़फोड़ की गई और कारों को जला दिया गया। यहां तक कि राजधानी में भी इस वैश्विक उद्योग में मजदूर इसी तरह की परेशानी सहते हैं।
उदाहरण के लिए, सूरत में पिछले दो दशकों में तेजी से विकसित होने वाले शहरों में निर्माण क्षेत्र में श्रम की अधिकता देखी गई है। एक रिपोर्ट के अनुसार सूरत में लगभग दो तिहाई प्रवासी ट्रेन की पटरियों के किनारे, प्रमुख सड़कों जैसी खराब जगहों में रहते हैं। पिछले 20 वर्षों में पूरे शहर में, कई अविकसित क्षेत्रों पर टेंट तने हैं। तिरपाल से बने प्रवासी मजदूरों के ये घर मौसम की मार झेलते हैं, यहां उन्हें न शौचालय की सुविधा मिलती है न पानी की। निजता की बात तो भूल ही जाइए। अंधेरे में वे खुले में अपना खाना पकाने को मजबूर रहते हैं। भारत के शहरों की गरीबी उसके ग्रामीण इलाकों के स्थायी कृषि संकट का प्रतिबिंब है। आधे ग्रामीण परिवार भूमिहीन हैं और अनौपचारिक श्रम पर जीवित रहने के लिए मजबूर हैं, जिनके लिए अवसर बहुत कम हैं। समाजशास्त्री जन ब्रेमन, जिन्होंने दशकों से दक्षिणी गुजरात की अर्थव्यवस्था का अध्ययन किया है, बताते हैं कि ग्रामीण संकट लोगों को स्थान बदलने के विभिन्न संकटों में धकेलता है। इनमें सबसे पहले वो बड़ी संख्या शामिल है जो ग्रामीण क्षेत्रों के भीतर ही होती है। प्रवासियों के लिए यह आसान और किफायती है।
ब्रेमन भारतीय शहरी अर्थव्यवस्था के प्रवास को ‘फुटलूज’ (कहीं भी जाने वाले) के रूप में दर्शाते हैं। कम समय के लिए आने वाले मजदूर जो ईंट भट्टों, निर्माण स्थलों, नमक बनने वाली जगहों में मौसमी रोजगार के लिए आते हैं। लेकिन उद्योगों में काम करने वाले ‘लंबी अवधि’ वाले मजदूर भी गांव की अपनी जड़ों से जुड़े रहते हैं। ऐसे श्रमिक गांव के घर-जवार को बचाए रखते हैं, जो उन्हें थोड़ी सुरक्षा, भोजन और श्रम से अवकाश का मौका देता है। शहरी क्षेत्रों में बसने वाले प्रवासी कामगारों के विपरीत श्रम की वृत्ताकार गति अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के साथ हाथ में हाथ डाले चलती है, जहां वे अपना नया घर बनाते हैं। भारतीय शहरों में लाखों श्रमिक केवल अपने अल्प वेतन पर ही जीवित रहते हैं। ऐसे में लॉकडाउन ने उनकी नाजुक अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया।
कामगारों का विरोध
फिर भी उन्होंने हफ्तों तक अपने मालिकों और सरकारों से किसी तरह की मदद का इंतजार किया। इसके बाद ही 2-4 मई के बीच इस सौतेले व्यवहार के खिलाफ, देश भर के कई औद्योगिक जिलों में श्रमिकों का गुस्सा फूट पड़ा। इसमें सबसे ज्यादा गुस्सा गुजरात में था। दक्षिण गुजरात के सूरत में हजारों श्रमिक यह मांग करने में जुट गए कि उन्हें वापस घर भेजा जाए और उन्हें काम करने के लिए मजबूर न किया जाए। उन्होंने अपने नियोक्ता की संपन्नता की प्रतीक एक निर्माणाधीन डायमंड एक्सचेंज की खिड़कियों और कारों को तोड़ दिया। 2 मई को पूरे चेन्नै में कई विरोध प्रदर्शन हुए। निर्माण श्रमिकों ने अपनी वापसी के लिए राज्य से व्यवस्था की मांग की। राजस्थान में एक सीमेंट फैक्ट्री में 2,500 मजदूरों ने पुलिस पर पथराव किया और इसी मांग को लेकर फैक्ट्री की संपत्ति को नष्ट कर दिया। विरोध प्रदर्शन बेंगलूरू, हैदराबाद, मध्य प्रदेश, दिल्ली-एनसीआर में भी हुए। जम्मू के चेनाब टेक्सटाइल फैक्ट्री में, श्रमिकों ने मांग की कि लॉकडाउन की अवधि में उन्हें उनकी पूरी मजदूरी का भुगतान किया जाए। अनौपचारिक श्रमिकों के ये विरोध, जो ट्रेड यूनियनों में शायद ही आयोजित किए जाते हों, दशकों में मजदूरों के विरोध प्रदर्शनों में सबसे बड़े और सबसे व्यापक हैं।
गांव वापसी
मई में लॉकडाउन खुलने के बाद, लाखों लोगों ने यूपी, बिहार, बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश अपने घर जाना शुरू कर दिया। लेकिन घर पहुंचने पर कई लोगों ने खराब स्थितियों में खुद को क्वारेंटीन सेंटरों में बंद पाया। इतना ही नहीं, कुछ को चावल और मिर्च खाते हुए अपने वीडियो बनाने के लिए मजबूर किया जाता है। ऐसे क्वारेंटीन केंद्रों के बावजूद, कोविड-19 मामलों की संख्या यूपी और बिहार में नाटकीय रूप से बढ़ी, जो बताती है कि स्वास्थ्य सुविधाएं सबसे निचले स्तर पर हैं। इन सबसे ऊपर, सीएमआइई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के अनुसार, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में श्रमिकों को बेरोजगारी दर के रूप में, जीविकोपार्जन के सवाल का सामना करना पड़ेगा। और यह सिर्फ भारतीय अर्थव्यवस्था में नहीं है। जब तक यह लेख प्रेस में जाएगा, तब तक गुरुग्राम/मानेसर के ऑटो और ऑटो पार्ट्स फैक्ट्रियों में सैकड़ों लोगों की नौकरी (स्थायी श्रमिकों सहित) जाने की खबरें धीरे-धीरे सामने आने लगेंगी।
(लेखिका लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिटिकल साइंस में, इकोनॉमिक हिस्ट्री विभाग में पोस्टडॉक्टोरल फेलो रह चुकी हैं। उन्होंने किंग्स कॉलेज लंदन में औपनिवेशिक कलकत्ता में लेबर पॉलिटिक्स और डॉकवर्कर्स से संबंधित डॉक्टोरल काम किया है)
--------------------------------------------
केंद्र सरकार के पास प्रवासी मजदूरों का कोई आंकड़ा नहीं है, देश की श्रम स्थिति बताने के लिए यह स्वीकारोक्ति ही काफी है। मेहनतकश कहीं भी दर्ज नहीं हैं
--------------
आधे ग्रामीण परिवार भूमिहीन हैं और अनौपचारिक श्रम पर जीवित रहने के लिए मजबूर हैं, इनके पास शहरों में भी बहुत कम अवसर हैं