कई चुनावों में देश की मुख्यधारा की पार्टियों के बड़े नेताओं में खुद को हिंदू बताने की होड़ पांच राज्यों के मौजूदा चुनावों में और तेज होती दिख रही है। लगता है, वे दिन लद गए, जब ज्यादातर नेता अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करने की होड़ में लगे रहते थे। यह राजनीति का नया रंग है, और सबसे अधिक असर अल्पसंख्यक राजनैतिक प्रतिनिधित्व में दिखने लगा है। इसका असर अल्पसंख्यकों की राजनीति करने के दावे वाले नए उभरते दलों के रूप में भी दिख रहा है।
जाहिर है, इसका नुकसान उस बड़े तबके को उठाना पड़ रहा है जिसकी देश में 15 फीसदी आबादी है। देश में 1952 के पहले आम चुनावों से लेकर अब तक मुस्लिम प्रतिनिधियों की संख्या लगभग एक जैसी बनी हुई है। इस दौरान मुस्लिम आबादी 10 से बढ़कर 15 फीसदी हो गई, जबकि मुस्लिम प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी करीब 4 फीसदी बनी हुई है। इनकी संख्या सबसे ज्यादा 1980 के चुनावों में 49 तक पहुंची थी, जो घटकर 2014 में 22 और 2019 में 27 पर पहुंच गई। 2019 के लोकसभा चुनावों में मध्य प्रदेश और गुजरात से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं चुना गया।
यही हाल विधानसभाओं का है। करीब 7 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले मध्य प्रदेश में 2013 में एक मुस्लिम विधायक था और 2019 में यह संख्या केवल दो हुई। 10 फीसदी अल्पसंख्यक आबादी वाले गुजरात में भी 2017 के चुनावों में केवल 3 विधायक जीतकर पहुंचे थे। 20 फीसदी आबादी वाले उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनावों में 24 मुस्लिम उम्मीदवार जीते, जबकि 2012 में संख्या 68 थी।
राजनैतिक दलों के इस बदले रवैये का असर अब मुस्लिम राजनीति करने वाले नए उभरते दलों के रूप में दिख रहा है। बिहार में 2020 के विधानसभा चुनावों में मुस्लिम बहुल सीमांचल से असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम के पहली बार पांच विधायक जीत गए। ओवैसी अब अपने गृह राज्य तेलंगाना से निकलकर उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अपनी सियासत चमकाना चाहते हैं। वे बंगाल चुनावों में भी खड़े होने का ऐलान कर रहे थे, लेकिन वहां उतनी तवज्जो नहीं मिली। वे अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं। उनकी पार्टी ओमप्रकाश राजभर के भागीदारी संकल्प मोर्चा में जुड़कर प्रदेश में एक नया कोण बनाने में जुटी है। ओवैसी की पार्टी ने गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव में भी शुरुआती सफलता का स्वाद चख लिया है और अब वे मध्य प्रदेश निकाय चुनाव भी लड़ने की तैयारी में हैं।
ओवैसी ने पिछले दिसंबर में आउटलुक से कहा था, “भारत में अधिकार राजनैतिक प्रतिनिधित्व से आता है। धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से जो मुसलमान नेता चुनकर आते हैं, उनके पास भी अपने समुदाय के हितों की बात कहने की शक्ति नहीं होती है। अब समय आ गया है कि विविधता आंकड़ों में भी दिखे।”
ऐसे ही मौके की तलाश में पश्चिम बंगाल में हुगली जिले में मशहूर फुरफुरा शरीफ के युवा पीरजादा अब्बास सिद्दीकी भी हैं। वे बंगाल में आठ छोटी ओबीसी, दलित और आदिवासी पार्टियों के गठबंधन इंडियन सेक्युलर फ्रंट का लोकप्रिय चेहरा हैं। पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है और 2019 के चुनावों में तृणमूल ने ऐसी 98 सीटें जीती थीं, जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक हैं। सिद्दीकी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बारे में कहते हैं, “उन्होंने पिछले 10 साल में मुसलमानों और दलितों को सिर्फ मूर्ख बनाया है। वे अपने राजनैतिक फायदे के लिए केवल यह धारणा बनाने की कोशिश करती हैं कि उन्होंने मुसलमानों के लिए बहुत कुछ किया है।” हालांकि इस बार ममता बनर्जी का जोर हिंदू वोटरों पर ज्यादा है। यह रणनीति टिकट वितरण में भी दिखती है। 2016 के विधानसभा चुनावों में तृणमूल ने 57 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, जबकि इस बार उसने 42 मुस्लिमों को टिकट दिया है।
पिऊ रिसर्च की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार 2060 तक भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश बन जाएगा। तब यहां 33.3 करोड़ मुसलमान होंगे। लेकिन मुख्यधारा के दलों की हिंदू झुकाव वाली राजनीति का असर इस समुदाय को उठाना पड़ सकता है, जिसके कम होते प्रतिनिधित्व के संकेत लोकसभा से लेकर विधानसभाओं तक में दिख रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए शुभ तो नहीं कहा जा सकता।