हाल में नीति आयोग के दस्तावेज ‘मल्टीडायमेंशनल पॉवर्टी इन इंडिया सिन्स 2005-06’ का संदर्भ लेते हुए केंद्र सरकार ने कहा है कि पिछले 10 वर्षों के दौरान विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के सहयोग से करीब 25 करोड़ लोग विविध प्रकार की गरीबी से मुक्त हो चुके हैं।
गरीबी की गणना के परंपरागत उपायों को बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआइ) एक पूरक परिप्रेक्ष्य उपलब्ध करवाता है। गरीबी की परंपरागत रूप से गणना करने के लिए खर्च और कमाई का एक ऐसा सीमावर्ती अनुपात (गरीबी रेखा) तय किया जाता है, जो समाज में स्वीकार्य न्यूनतम स्तर का जीवन जीने के लिए बुनियादी जरूरतों को पूरा करने वाली चीजें और सेवाएं खरीदने के लिहाज से जरूरी हो। वैश्विक एमपीआइ में दस सूचकांकों का इस्तेमाल करते हुए तीन क्षेत्रों स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनस्तर को कवर किया जाता है। स्वास्थ्य को कवर करने वाले सूचकांकों में पोषण और बाल व शिशु मृत्यु दर; शिक्षा के लिए स्कूल जाने के वर्षों और स्कूल में हाजिरी; और जीवनस्तर को मापने के लिए छह सूचकांक- आवास, आवासीय संपत्ति, रसोई का ईंधन, स्वच्छता, पेयजल और बिजली तक पहुंच- को शामिल किया जाता है।
नीति आयोग के परचे में राष्ट्रीय गणना के लिए इन दस वैश्विक एमपीआइ सूचकांकों का इस्तेमाल तो किया गया है, मगर उसके साथ में दो अतिरिक्त सूचकांक मातृ स्वास्थ्य और बैंक खाते को भारत की प्राथमिकताओं के अनुकूल जोड़ दिया गया है। आंकड़ों के लिए राष्ट्रीय एमपीआइ ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के पिछले तीन दौर- एनएफएचएस-3 (2005-06), एनएफएचएस-4 (2015-16) और एनएफएचएस-5 (2019-21)- के परिणामों को लिया है।
पिछले दस साल यानी 2013-14 से 2022-23 तक की अवधि में शुरू के दो साल एनएफएचएस-4 के पहले के पड़ते हैं और आखिर के दो साल एनएफएचएस-5 के बाद के पड़ते हैं, इसलिए इस दौरान गरीबी से बाहर निकले लोगों के आंकड़े तक पहुंचने के लिए 2013-14 के अनुमानों को प्रक्षेपित किया गया और 2022-23 के अनुमानों को विस्तारित किया गया। इस तरह 2013-14 का अनुमान 2005-06 के आंकड़ों के आधार पर सालाना 7.69 प्रतिशत की चक्रवृद्धि दर से गरीबी में गिरावट दर्ज करने के बाद निकाला गया जबकि 2022-23 के अनुमान तक पहुंचने के लिए 2015-16 से 2019-21 तक गरीबी में आई कमी को सालाना चक्रवृद्धि दर पर विस्तारित किया गया। इस तरीके से यह अनुमान लगाया गया कि पिछले एक दशक के दौरान 24.82 करोड़ लोग गरीबी से मुक्त हो चुके हैं।
यहां दो सवाल खड़े होते हैं। पहला, कुल दस साल की अवधि में दो साल के प्रक्षेपित अनुमान और दो साल के विस्तारित अनुमान की सटीकता कितनी है। दूसरे, साल दर साल के अनुमानों तक पहुंचने के लिए सालाना चक्रवृद्धि दर के हिसाब से गरीबी में गिरावट का प्रयोग कितना निष्कर्षात्मक है। इसके बावजूद, यदि एनएफएचएस-4 और एनएफएचएस-5 के बीच की अवधि को ही लें, तो बहस को यह मानकर विराम दिया जा सकता है कि 2015-16 से 2019-21 के बीच 13.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आ गए थे। परंपरागत गरीबी गणना उपायों पर नीति आयोग का ‘ओकेजनल पेपर ऑन पावर्टी, 2015’ कहता है कि पोषण, आवास, पेयलन, स्वच्छता, बिजली और कनेक्टिविटी के आधार पर मापा जाने वाला गरीबी का परिदृश्य गरीबी रेखा के हिसाब से मापे जाने वाली गरीबी का पूरक हो सकता है, लेकिन उसकी जगह नहीं ले सकता।
सरकार ने हाल ही में पारिवारिक उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 (एचसीईएस) के मोटे आंकड़े जारी किए हैं। माना जा रहा है कि सरकार ब्यौरेवार आंकड़ों के साथ वर्तमान में जारी कंजप्शन सर्वे 2023-24 को मिलाकर समूची रिपोर्ट जल्द ही जारी करेगी। तब जाकर हम गरीबी में आई कमी के सटीक अनुमान लगा पाएंगे, हालांकि मौजूदा आंकड़ाें के आधार पर ही इसके कई प्रयास किए जा चुके हैं। ऐसे एक अनुमान के अनुसार 2022-23 के दौरान भारत में गरीबी का स्तर 5 प्रतिशत से कम रह गया है। दूसरे अनुमान कहते हैं कि औसतन 2.2 करोड़ लोग 2011-12 से 2022-23 के बीच गरीबी से बाहर निकल गए। इससे पहले 2004-05 से 2011-12 के बीच यह संख्या दो करोड़ थी।
जब तक एचसीईएस 2022-23 और 2023-24 के ब्यौरेवार आंकड़े नहीं आ जाते और कीमतों में उतार-चढ़ाव के हिसाब से शहरी और ग्रामीण गरीबी रेखा में संशोधन नहीं किया जाता, तब तक गरीबी में कटौती के ठोस निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता। उसके पहले के सारे अनुमान अटकलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
(पूर्व वरिष्ठ सलाहकार, नीति आयोग, विचार निजी हैं)