धरती सबकी जरूरत पूरी कर सकती है, मगर एक की भी लालच की नहीं- महात्मा गांधी
भारत की आजादी की हीरक जयंती के मौके पर एक बुनियादी बात सिरे से भुला दी गई है कि हमारी सारी आजादियां बुनियादी रूप से अपनी धरती, प्रकृति और व्यापक स्तर पर समूचे ब्रह्माण्ड के सापेक्ष संचालित होती हैं। आधुनिक राष्ट्र-राज्य के लोकतांत्रिक ढंग से संचालन के लिए जो संवैधानिक मूल्य और उनके मार्फत अधिकार-रूपी जो औजार हमें मिले हुए हैं, उनकी ऐतिहासिकता का पिछला सिरा सार्वभौमिक यानी प्राकृतिक मूल्यों तक जाता है। बराबरी, भाईचारा, न्याय और स्वतंत्रता जैसे बुनियादी मूल्य दरअसल इस प्रकृति की देन हैं, जो प्राणियों के बीच किसी किस्म का कोई भेद नहीं बरतती। भारत, चीन, अरब जैसी प्राच्य संस्कृतियों ने कभी भी ब्रह्माण्ड और मनुष्य को परस्पर विरोधी नजर से नहीं देखा, बल्कि पूरक माना। राष्ट्रीय आंदोलन के महान सेनानियों के लिखे और कहे को देखें तो स्पष्ट होता है कि उन्हें जितनी चिंता देश को आजाद करवाने की थी उतनी ही चिंता धरती और कुदरत को बचाने की भी थी। इस सांस्कृतिक चेतना के बावजूद यह कैसे हुआ कि हम अपनी गतिविधियों से प्रकृति पर पड़ने वाले स्थायी प्रभावों के चलते आसन्न विनाश की अपरिवर्तनीय अवस्था यानी एंथ्रोपोसीन तक पहुंच गए?
वैज्ञानिकों की मानें तो धरती पर एंथ्रोपोसीन का चरण 1950 के दशक से शुरू होता है। यही वह दौर था जब पश्चिम के पुराने उपनिवेश आजाद हो रहे थे और नए राष्ट्र-राज्यों का निर्माण हो रहा था। हमारे यहां नए दौर में नई कहानी लिखने के गीत गाये जा रहे थे। यह नया दौर कैसे आना था, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसका खाका समझते थे। एक ओर उन्होंने बड़े बांधों को आधुनिक भारत के मंदिर कहा, तो दूसरी ओर वे लिखते हैं, ‘‘आधुनिक औद्योगिक समुदायों का रिश्ता मिट्टी से कट चुका है। वे धरती माता के संपर्क से आने वाली सेहत-संपन्नता व प्रकृति के स्पर्श से उपजने वाले सुख के अनुभव से वंचित हैं। वे प्राकृतिक सौंदर्य की बात तो करते हैं लेकिन सप्ताहांत में कभी-कभार उसका सुख लेने जाते हैं, फिर वहां अपनी नकली जिंदगी के उत्पादों का कचरा छोड़ आते हैं। वे प्रकृति से एकमेक नहीं हो पाते, उसका हिस्सा नहीं बन पाते’’ (डिस्कवरी ऑफ इंडिया, अध्याय 10)। इसका मतलब है कि नेहरू आधुनिक औद्योगिक समुदायों और उसके उत्पादों के खतरे से बराबर वाकिफ थे। इसीलिए वे कहते हैं, ‘‘विज्ञान हमें ताकत देता है लेकिन वह खुद निर्वैयक्तिक रहता है, उद्देश्यविहीन है और ज्ञान के हमारे अनुप्रयोग से तकरीबन गाफिल है। वह अपनी विजय यात्रा को बेशक जारी रख सकता है लेकिन उसने अगर प्रकृति की अनदेखी बहुत ज्यादा की, तो प्रकृति बहुत महीन तरीके से अपना बदला लेगी।’’
आज चरम मौसमी घटनाओं, जैसे ग्लेशियरों के पिघलने, बादल फटने, सूनामी आने, बिजली गिरने, ऋतु-चक्र बदलने, वायरसों के प्रकोप और प्राणियों की असमय मौत में कुदरत के इस प्रतिशोध को हम रोज ही देख रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू ने इस हकीकत को समझ तो लिया था लेकिन विकास और प्रगति के तत्कालीन प्रचलित मॉडलों में ही यह विनाश अंतर्निहित था। इससे बचने के लिए गांधी के इकलौते आर्थिक मॉडल को तो हमारी संविधान सभा ने ही तिलांजलि दे दी थी। हमने अपने पुरखों के कहे को अनसुना किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि आजादी के पचहत्तर वर्षों में हमने जितना पाया, उससे कहीं ज्यादा गलत नीतियों के कारण गंवा दिया। नब्बे के दशक के आरंभ में अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी की मुनाफाकारी गतिविधियों के लिए खोले जाने के बाद से लेकर अब तक हमने अपनी धरती, पानी, हवा, जंगल और पशु-पक्षियों को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना उसके पहले बीते पांच सौ वर्षों में भी नहीं हुआ था।
क्रिश्चियन एड की रिपोर्ट ‘काउंटिंग द कॉस्ट 2021: ए ईयर ऑफ क्लाइमेट ब्रेकडाउन’ 2020 की 15 सबसे विनाशकारी जलवायु आपदाओं की पहचान करती है। दस सबसे महंगी घटनाओं में से चार एशिया में हुईं, जिसमें बाढ़ और आंधी-तूफान से हुए कुल नुकसान की लागत 24 अरब डॉलर थी। दुनिया की सबसे महंगी चरम मौसमी घटनाओं में से दस की लागत 15 खरब डॉलर से अधिक है। इनमें भी भारत की हालत खास तौर से नाजुक है क्योंकि क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2021 के अनुसार जलवायु जोखिम के मामले में दुनिया भर के देशों के बीच भारत सातवें पायदान पर है।
इसके बावजूद विडम्बना है कि इस देश की राजनीति में जलवायु परिवर्तन राजनीतिक मुद्दा नहीं बन सका है, बल्कि इसके ठीक उलट इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाने वालों को पिछले दिनों विदेशी ‘टूलकिट’ के नाम पर राजद्रोही ठहराया जा चुका है। कुल 75 साल की आजादी का अमृत यह मिला है कि सरकार तो सरकार, अब धरती और प्रकृति के हक में बोलना भी जुर्म बना दिया गया है। धरती को बचाने के लिए संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज की कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) के सम्मेलनों का पाखंड भी पेरिस में उजागर हो चुका है। जहां एक ओर इस बात की उम्मीद थी कि कोविड-19 महामारी के बाद दुनिया भर में ग्रीन रिकवरी होगी, वहीं की ‘रिन्यूएबल्स 2022 ग्लोबल स्टेटस रिपोर्ट’ कहती है कि पृथ्वी ने यह मौका खो दिया है। पिछले साल की दूसरी छमाही में आधुनिक इतिहास के सबसे बड़े ऊर्जा संकट की शुरुआत देखी गई थी, जो 2022 की शुरुआत में यूक्रेन पर रूसी संघ के आक्रमण और जिंसों को लगे अभूतपूर्व वैश्विक झटके से और गंभीर हो गई है।
संयुक्त राष्ट्र् के महासचिव अंतोनियो गुटेरेस ने इस साल अप्रैल में जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल (आइपीसीसी) की नई रिपोर्ट पेश करते वक्त एक चेतावनी दी थी, “दुनिया नींद में एक जलवायु तबाही की तरफ बढ़ती जा रही है।’’ ऐसे भयावह परिदृश्य में कुछ लोग अब भी हैं जो अपने-अपने दायरों में धरती को बचाने की मुहिम छेड़े हुए हैं। गांधीवादी विकेंद्रीकरण और नेहरूवादी वैज्ञानिक चेतना से अनुप्राणित ये लोग अपने से ऊपर उठकर मानवता और उसकी अगली पीढ़ियों के लिए निःस्वार्थ भाव से काम कर रहे हैं।
इस अंक में आउटलुक अपने पाठकों के लिए जल, जंगल और जमीन को बचाने की कोशिश में जुटे कुछ ऐसे ही लोगों की कहानियां लेकर आया है। ये कहानियां हमें अहसास दिलाती हैं कि आजादी केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य को भी साथ लेकर आती है। यह कर्तव्य केवल अपने घर-परिवार के प्रति नहीं है, बल्कि उन पंचतत्वों के प्रति भी है जिन्होंने पृथ्वी पर हमारे सामूहिक और निजी जीवन को संभव बनाया है। आशा है, अगले पन्नों की कहानियां प्रेरणा जगाने का काम करेंगी।
झुलसी हुई धरती में नहरें
साइमन उरांव, जल संकट का समाधान
सामने से देखने में साइमन उरांव किसी गुजरे जमाने के संत और ओझा जान पड़ते हैं। क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि 'झारखंड के वाटरमैन' के नाम से प्रसिद्ध उरांव 87 वर्ष के हैं और लगभग 50 वर्षों से राज्य की नदियों और जंगलों को बचाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं?
उरांव एक शुष्क क्षेत्र में बड़े हुए जहां बहुत कम खेती होती थी। झारखंड की राजधानी रांची के पास बेरो क्षेत्र में मानसून को छोड़ दें तो साल भर बहुत कम पानी उपलब्ध रहता है। गर्मी और सूखे ने उनकी युवा आत्मा को कठोर बना दिया था। उन्होंने इन समस्याओं के बारे में कुछ करने का फैसला किया। आखिरकार, अन्य ग्रामीणों की मदद से उन्होंने दो नहरों को खोदा – एक 4,500 फुट और दूसरी 3,000 फुट। उन्होंने पहाड़ियों और कठोर चट्टानों के बीच नहरों को खोदा। उन्होंने वर्षा जल संचयन के लिए सात तालाब और कई कुएं खोदे।
लाओ त्ज़ु ने कहा था, "पानी की तुलना में कुछ भी ज्यादा नरम या लचीला नहीं है, फिर भी कुछ भी इसका विरोध नहीं कर सकता है। आज बेरो के सात गांवों में सिंचाई के लिए और जीने के लिए पानी है।" उरांव का कहना है कि अब स्थानीय लोग तीन तरह की फसलों की खेती कर पाते हैं।
ओरांव मिट्टी की एक झोंपड़ी में अपना जीवन बिताते हैं जिसकी दीवारें प्रमाण पत्र, पुरस्कारों, फ्रेम की गई तस्वीरों और समाचारपत्रों की कतरनों से सजी हुई हैं। वह अपनी पत्नी वर्जीनिया और पोती एंजेला के साथ रहते हैं। इतनी मान्यता मिलने के बावजूद वे वित्तीय कठिनाइयों से ग्रस्त एक अनिश्चित जिंदगी बिता रहे हैं। 2016 में उरांव को वन और जल संरक्षण में उनके प्रयासों के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। वह कहते हैं, "सर्टिफिकेट से गुजारा नहीं होता।" जाहिर है, तमगे कभी सपनों को पूरा नहीं करते, न ही वे किसी सरोकार के लिए या उसके प्रति समर्पित जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हैं।
त्रिभुवन तिवारी
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हिमालय में अभियान
प्रदीप सांगवान, पर्यावरण योद्धा
अजमेर के राष्ट्रीय मिलिट्री स्कूल के पूर्व छात्र प्रदीप सांगवान के लिए यह शायद उनके जीवन में सबसे कठिन 'जंग' है। हिमाचल प्रदेश और उसकी पहाड़ियों को असंवेदनशील पर्यटकों द्वारा छोड़े गए कचरे के खतरे से मुक्त करने के लिए उन्होंने एक कठिन कार्य शुरू किया है। सांगवान कहते हैं, "हिमालय को साफ करने में जीवन भर का समय लगेगा।"
'हीलिंग हिमालय' फाउंडेशन के प्रमुख सांगवान ने पर्वतीय पगडंडियों, बस्तियों और छोटे शहरों को साफ करने के लिए एक स्व-प्रेरित अभियान में लगभग पांच साल के दौरान 800 टन से अधिक कचरे का निपटारा किया है और 10,000 किलोमीटर ट्रेक किया है। फिर भी, वे मानते हैं कि कचरे की समस्या का स्थायी या टिकाऊ समाधान कहीं भी नजर नहीं आ रहा है। पर्यटकों की आमद एक नई चुनौती है। उनमें से एक बड़ा हिस्सा अत्यधिक "गैर-जिम्मेदार" है। उनमें से अधिकांश शहरी संस्कृतियों में पैदा हुए और पले-बढ़े लोग होते हैं जो स्थानीय समुदायों और पर्यावरण के साथ तारतम्य नहीं बैठा पाते हैं। वे पहाड़ियों में भारी मात्रा में कचरा और कूड़े को छोड़ कर चले जाते हैं। हाल ही में, सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरों की बाढ़ आ गई थी जिनमें पर्यटकों को मनाली की सड़क और रोहतांग की सुरंग में कचरा डालते देखा गया। हिमाचल प्रदेश के हाइकोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा और स्थानीय प्रशासन को स्थानों की सफाई करने का निर्देश देना पड़ा था।
शहरों से कचरा इकट्ठा करने, अस्थायी भंडारण को संभालने और फिर कस्बों के पास छह स्थानों में, मुख्य रूप से पर्यटन स्थलों पर स्थापित प्रसंस्करण सुविधाओं को अ-जैवप्रसंस्करित कचरे को सौंपने के लिए सांगवान के पास 5-6 स्वयंसेवकों की एक अत्यधिक अनुशासित और समर्पित टीम है। उनके इस अभियान की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में भी सराहना की है।
सांगवान ने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में अध्ययन के दौरान "हिमाचल प्रदेश के कुछ सहपाठियों के प्रभाव के कारण अपने मिशन की शुरुआत की, जो आगे चलकर अच्छे दोस्त बन गए।" वे कहते हैं, "भगवान ने हिमालय और पहाडि़यों को जो प्राकृतिक सौंदर्य बख्शा है, उससे मुझे प्यार हो गया।" 2009 में उन्होंने 13,059 फुट की ऊंचाई पर स्थित रोहतांग दर्रे के पास कोठी में एक रेस्तरां स्थापित किया। यह विचार केवल व्यावसायिक नहीं था, बल्कि स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ने, पहाड़ियों और वहां के खतरों के बारे में अधिक जानने और विशेष रूप से सर्दियों के दौरान ऐसी कठोर परिस्थितियों में जीवन का अनुभव करने के लिए भी था। यहीं उन्होंने प्रदूषण की भयावहता का प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया- पहाड़ी रास्तोंं और पर्यटन स्थलों पर कचरा पीछे छोड़ा जा रहा था, जिसमें रोहतांग दर्रा जैसा नाजुक क्षेत्र भी शामिल है।
खुद एक उत्साही ट्रेकर होने के नाते सांगवान ने हिमालय को साफ करने के एक पूर्णकालिक मिशन में कदम रखा, जिसमें स्थानीय समुदायों को शामिल किया गया। उन्हें पता चला कि कचरे को यदि वैज्ञानिक रूप से एकत्र, अलग, प्रबंधित और संसाधित किया जाता है तो यह उनके जीवन को कैसे बदल सकता है। हिमालय के ‘हीलर’ (उपचारक) कहे जाने वाले सांगवान ने बताया, "2016 के बाद से मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, हालांकि मैंने जो करने के लिए चुना है, उससे मेरा परिवार और मेरे दोस्त सहज नहीं थे।"
अश्वनी शर्मा
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...और जंगल बसा दिया
इस्माइल दैमारी, इंसान और हाथी के संघर्ष का हल
असम के उदलगुड़ी जिले में एक साधारण से विचार ने भूखे हाथियों और उत्तेजित आबादी दोनों को ही राहत की सांस लेने की मोहलत दी है। इस्माइल दैमारी 26 वर्ष के थे जब उनके मन में यह विचार आया था, लेकिन इस सूखे इलाके को लहलहाते जंगल में बदलने में लगभग दो दशक का लंबा सामुदायिक अभियान चलाना पड़ा। यह जंगल अब लोगों और हाथियों के बीच एक दीवार का काम करता है। भूटान और अरुणाचल प्रदेश के बीच स्थित उदलगुड़ी नियमित रूप से जातीय हिंसा और मानव-हाथी टकराव के कारण सुर्खियों में रहता था।
वनों का नुकसान और तलहटी में अवैध अतिक्रमण के चलते अक्सर भूटान और अरुणाचल प्रदेश की पहाड़ियों से भोजन और पानी की तलाश में हाथी उदलगुड़ी के सीमावर्ती गांवों में उतर आते थे और ग्रामीणों के घरों को रौंद देते थे। इस संघर्ष में हाथियों की भी मौत हो जाती थी, नाराज और भयभीत ग्रामीणों ने उन्हें रोकने के लिए बिजली के तारों का जाल लगा दिया था। इस लड़ाई में किसी की जीत नहीं होती थी। तब इस परिदृश्य में इस्माइल दैमारी का प्रवेश होता है।
असम-भूटान सीमा पर स्थित भैरवकुंड रिजर्व फॉरेस्ट कभी एक संपन्न जंगल और जैव विविधता का केंद्र हुआ करता था जो हाथियों, तेंदुओं, बंदरों और पक्षियों सहित अन्य प्रजातियों से भरा हुआ था। 1979 और 1989 में आई बाढ़ ने इस क्षेत्र में पेड़-पौधों को ऐसा नुकसान पहुंचाया कि यह क्षेत्र 22 वर्ग किमी की बंजर भूमि में तब्दील हो गया। इसी तबाही ने क्षेत्र के मानव-हाथी संघर्ष को जन्म दिया। दैमारी आउटलुक को बताते हैं, "वृक्षारोपण बाढ़ के साथ-साथ संघर्ष के कारण होने वाली समस्या को भी हल करेगा। इसलिए मैंने शुरू में क्षेत्र के आसपास के छह गांवों के युवाओं को क्षेत्र में पौधे लगाने के लिए प्रेरित करना शुरू किया।"
युवाओं ने दैमारी के साथ हाथ मिलाया, आरक्षित वन में पेड़ लगाए। दस साल बाद 15 लाख पेड़ों और हरी-भरी वनस्पतियों ने बंजर जमीन की जगह ले ली है। पेड़ों को हाथियों और अन्य प्रजातियों के आहार को ध्यान में रखते हुए चुना गया है। अब गेदशिमानी संयुक्त रिजर्व वन के रूप में इस क्षेत्र को जाना जाता है, जो 5,500 एकड़ के प्रसार के साथ एक बार फिर अन्य जानवरों के बीच हाथियों का घर बन चुका है।
दशकों पुराने मानव-पशु संघर्ष से निपटने के अलावा, गेदशिमानी संयुक्त रिजर्व वन अब घरेलू और अंतरराष्ट्रीय पर्यटन के लिए एक केंद्र बन चुका है। यहां एक पारिस्थितिकी-शिविर भी है जो शोधकर्ताओं और पर्यटकों की मेजबानी करता है। दैमारी कहते हैं, "यह धीरे-धीरे लोगों के क्षेत्र को देखने के तरीके को बदल रहा है।"
सैयदा अंबिया जहान
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जंगल के सेवक
सेवा सिंह, पर्यावरणविद
पंजाब के तरनतारन के रहने वाले 62 साल के सेवा सिंह एक अनोखे सफर पर हैं। सेवा सिंह सड़कों, पेड़ों, खेतों, पौधों की नर्सरियों और जल निकायों से प्यार करते हैं और यात्रा करते समय वे कभी भी युवा प्रतिभाओं को खोजने और उन्हें अपने सपनों को साकार करने में मदद करने का मौका नहीं छोड़ते हैं।
वर्ष 1999 से व्यापक वृक्षारोपण के लिए अभियान चला रहे सिंह का दावा है कि उन्होंने पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और मुंबई में सड़कों के किनारे और शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अब तक 5.5 लाख बरगद और पीपल के पेड़ लगाए हैं।
इस वरिष्ठ नागरिक का लक्ष्य सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव के 550वें प्रकाश पर्व को मनाने के लिए 550 से अधिक भूखंडों को विकसित करना है। आज तक वे ऐसे 200 'जंगल' लगाने में कामयाब रहे हैं। इनमें से एक खडूर साहिब के पास है जहां 14 किमी से अधिक की परिधि में अन्य फलों की किस्मों के अलावा नीम, जामुन, शीशम, बरगद और पीपल जैसे पेड़ हैं। वन्य जीवों को ध्यान में रखते हुए यहां तालाब भी खोदा गया है।
एक दशक पहले पर्यावरण संरक्षण के लिए मिले पद्मश्री को 2020 में सिंह ने तीन कृषि कानूनों के विरोध में लौटा दिया था। खडूर साहिब की कारसेवा के प्रमुख के रूप में सिंह ऐतिहासिक सिख गुरुद्वारों के निर्माण और नवीनीकरण के काम की भी देखरेख करते हैं। उनकी देखरेख में दूरदराज के गांवों में कई गुरुद्वारों, सरायों, सड़कों और पुलों का निर्माण किया गया। जून 2021 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा 'फेथ फॉर अर्थ काउंसलर' नियुक्त किया गया। उन्हें नवंबर 2009 में संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा सम्मानित किया गया था।
पर्यावरण के क्षेत्र में सिंह का काम इस तथ्य को देखते हुए और भी अधिक महत्व रखता है कि पंजाब में सभी राज्यों में सबसे कम वन क्षेत्र है। सिंह पंजाब के किसानों को पेड़ उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं और लोगों को बढ़ते प्रदूषण से बचा रहे हैं। खडूर साहिब में पर्यावरण परियोजनाओं के लिए एक नर्सरी स्थापित की गई है जिसमें हमेशा लगभग 50 पौध प्रजातियों के दो लाख से अधिक पौधे होते हैं।
सिंह का संगठन गरीब मेधावी छात्रों को कॉलेजों में प्रवेश दिलाने में भी मदद कर रहा है। सिविल सेवा उम्मीदवारों को तैयार करने के अलावा यह संगठन रक्षा और पुलिस सेवाओं में भर्ती के लिए उम्मीदवारों को प्रशिक्षण भी प्रदान करता है जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं।
आशुतोष शर्मा
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तेंदुओं से प्रेम की खातिर
विद्या आत्रेय, वन्यजीवों की चिंता
वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय ने 1992 में पहली बार जंगल में एक तेंदुए को देखा था। उस वक्त वे एक बड़ी सी चट्टान पर बैठकर शाम के सूरज को नीचे ढलते हुए देख रही थीं। अचानक उन्होंने देखा कि एक तेंदुआ दूसरी तरफ से चट्टान के पास आ रहा है। विद्या याद करते हुए बताती हैं कि उस वक्त सूरज तेंदुए की पीठ पर चमक रहा था और उसकी खूबसूरती सांस रोक देने वाली थी। वह उसके सौंदर्य से मंत्रमुग्ध हो गयीं। जंगल में इस तेंदुए को देखकर उनके भीतर कुछ हलचल हुई और उन्होंने उसके संरक्षण के काम में खुद को समर्पित कर देने का फैसला किया। अन्नामलाई की पहाडि़यों में पहली बार उस तेंदुए को देखने के बाद से लेकर आज की तारीख में विद्या भारत में साझा रिहाइशों में मानव-पशु संघर्ष को कम करने की दिशा में एक मजबूत आवाज बनकर उभरी हैं।
आत्रेय ने मुंबई के उत्तरी उपनगर बोरिवली में स्थित 87 वर्ग किमी के संरक्षित वन संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यान (एसजीएनपी) में तेंदुओं के साथ काम करने का फैसला किया। इस शहरी वन के साथ आरे के जंगल में तेंदुओं की एक बड़ी आबादी रहती है। अतीत में बस्तियों पर तेंदुए के कई हमले हुए हैं, लेकिन जब से विद्या और अन्य ने मानव-तेंदुए के संघर्ष पर निरंतर जागरूकता अभियान शुरू किए हैं, मानसिकता बदल रही है।
विद्या और उनके अन्य साथी मानव-तेंदुए के संघर्ष को कम करने के लिए स्थापित एक समूह मुंबईकर्स फॉर एसजीएनपी इनीशिएटिव का हिस्सा बनकर काम करते हैं। एसजीएनपी से कुछ दूरी पर स्थित आरे के जंगल में बसी बस्तियों और तेंदुओं से जुड़े मुद्दों को भी यह पहल संबोधित करता है। आत्रेय इस पहल की एक महत्वपूर्ण आवाज हैं। 2011 में विद्या और उनकी टीम ने वन अधिकारियों के समन्वय से जंगल के भीतर, उसकी परिधि पर या तेंदुओं के पर्यावास से कुछ दूरी पर रहने वाले नागरिकों को हमलों के पैटर्न के बारे में शिक्षित करना शुरू किया और यह बताया कि कैसे मनुष्य और जानवर दोनों साझा रिहाइशों के भीतर सद्भाव के साथ रह सकते हैं। इससे लोगों की मानसिकता काफी हद तक बदली है।
वे कहती हैं, "जागरूकता अभियानों ने अंदर रहने वालों के साथ-साथ वन अधिकारियों की भी मदद की है। 2015 के बाद से तेंदुए के हमलों में कमी आई है क्योंकि वन अधिकारियों ने उन्हें पकड़ना और छोड़ना बंद कर दिया है। लोग भी अब तेंदुए के देखे जाने से बहुत चिंतित नहीं हैं।"
विद्या ने पूरे महाराष्ट्र में ऐसे कई क्षेत्रों की यात्रा की है जहां मानव-तेंदुए के टकराव की खबरें आयी हैं। संगमनेर का अकोले एक ऐसा क्षेत्र था जिसने उन्हें इस समस्या की गहरी समझ दी। विद्या ने आउटलुक को बताया, "भारत में वन्यजीवों का विशेष रूप से आदिवासी समुदायों के साथ समृद्ध सांस्कृतिक संबंध है। ये लोग अपनी युवा पीढ़ियों को अपने पूर्वजों से जुड़ी कहानियों के माध्यम से वन्यजीवों से परिचित कराते हैं। बच्चे इसे आसानी से समझ लेते हैं और इसके माध्यम से उनके भीतर वन्यजीवों के लिए प्यार और सम्मान का भाव पैदा होता है।" वे बताती हैं, "वार्ली आदिवासी बाघ की पूजा करते हैं और इसे वाघोबा कहते हैं। वे वाघोबा के मंदिर भी बनाते हैं।"
हाल के वर्षों में वन विभाग द्वारा तेंदुओं को पकड़ने और जंगल में विभिन्न स्थानों पर छोड़ने के कारण हमले चरम पर थे। विद्या मानती हैं कि उन्हें कहीं भी छोड़ना मानव-तेंदुए के संघर्ष का समाधान कतई नहीं है। वे कहती हैं, "मानव-तेंदुए के संघर्ष पर हमें जो भी काम करना है, उसके लिए वन विभाग के अधिकारी बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। हमले उन जगहों के करीब होते हैं जहां उन्हें छोड़ा जाता है। इसलिए संघर्ष के समाधान पर काम करते समय सभी हितधारकों को विश्वास में लिया जाना चाहिए।"
लंबे समय तक शांत रहने के बाद तेंदुओं के मनुष्यों पर हमला करने के कारण पर कोई स्पष्टता नहीं है। विद्या कहती हैं, "इस पर जारी कई अध्ययनों के बावजूद उनके दिमाग को समझना मुश्किल है। बस्तियों पर हमला करने वाले तेंदुओं की पहचान करने के लिए एसजीएनपी और आरे जंगलों के भीतर कैमरा ट्रैपिंग हुई है। यदि कोई तेंदुआ मनुष्यों पर हमला करता है तो उन्हें पहचानने और शांत रखने की आवश्यकता होती है।"
उन्होंने जुन्नार जिले में मानव-तेंदुए के संघर्ष का अध्ययन करने के लिए एक छोटी सी परियोजना शुरू की, जहां कई हमले देखे गए थे। वे कहती हैं, "हमने वन विभाग के साथ मिलकर काम किया और हमारे शोध से पता चला कि हमले रिलीज साइटों के करीब हुए थे। तेंदुओं को पकड़कर बेतरतीब जगहों पर छोड़ दिया गया और वहां हमले हो रहे थे। इस तरह मैंने मानव-तेंदुए के संघर्ष पर काम करना शुरू किया।"
हेमा देशपांडे