मंगलवार, 8 अक्टूबर की सुबह जब मतों की गिनती शुरू हुई और रुझान नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के हक में आने लगे, तब भी पार्टी के भीतर खुशी मनाने जैसा कोई माहौल नहीं था। एनसी उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला के आवास से बमुश्किल एक किलोमीटर दूर स्थित पार्टी मुख्यालय में माहौल शांत था। दस बजते-बजते कुछ कार्यकर्ता मुख्यालय पहुंचे। उस वक्त तक नेशनल कॉन्फ्रेंस चालीस से ऊपर सीटों पर बढ़त बनाए हुए थी, बावजूद उसके दफ्तर में सन्नाटा था। आखिरकार पार्टी की प्रवक्ता इफरा जान वहां पहुंचीं, लेकिन कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। उनका कहना था कि उमर अब्दुल्ला के स्पष्ट निर्देश हैं कि मीडिया में अभी कोई बयान नहीं देना है।
उधर, अब्दुल्ला हमेशा की तरह डल झील के किनारे रॉयल स्प्रिंग्स गोल्फ कोर्स में अपनी सुबह बिता रहे थे। संसदीय चुनावों की मतगणना के दिन भी वी वहीं थे। वहीं से उन्होंने दिन का पहला संदेश इंस्टाग्राम पर लिखा: “मतगणना के दिन मैंने 7के पूरा किया। पिछली बार जब मैंने यही किया था तो दिन वैसा नहीं बीता था, जैसी उम्मीद थी। इंशाल्लाह, अबकी कुछ बेहतर होगा।”
सलमान सागर पार्टी के उभरते हुए युवा नेता और यूथ विंग के अध्यक्ष हैं। वे अपने पिता और पार्टी के वरिष्ठ नेता अली सागर के साथ चुपचाप पार्टी मुख्यालय पहुंचे। दोनों अपनी-अपनी असेंबली में आगे चल रहे थे। सलमान हजरतबल से लड़ रहे थे तो उनके पिता श्रीनगर के खानयार से प्रत्याशी थे।
जीतः श्रीनगर में एनसी और कांग्रेस का जश्न
सलमान मानते हैं कि यह चुनाव परिणाम अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के 5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार के फैसल के खिलाफ जनता की प्रतिक्रिया का अक्स है। उन्होंने कहा, “हम में आत्मविश्वास था कि लोग अपना भरोसा हमारे ऊपर जताएंगे और हम अच्छे-खासे बहुमत से अपनी जीत होती देख बहुत खुश हैं।” उन्होंने चुनाव नतीजे को भारतीय जनता पार्टी के खारिज किए जाने का संकेत बताया। उनका कहना था कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा और उसके सहयोगियों के खिलाफ लोगों ने वोट किया है।
वे कहते हैं, “सरकार ने नेशनल कॉन्फ्रेंस से निपटने के लिए अपनी कई पिट्ठू पार्टियों को खड़ा किया था, जैसे अपनी पार्टी। कश्मीर के लोगों ने साफ दिखा दिया है कि वे भाजपा के इन फर्जी सहयोगियों को खारिज करते हैं और लोगों को बांटने की भाजपाई नीति उसे अस्वीकार है।”
मोहम्मद सादिक डल गेट इलाके में पार्टी के ब्लॉक अध्यक्ष हैं। मतगणना की सुबह घर से चाय पीकर वे भी पार्टी मुख्यालय की ओर ही निकले। चुनाव नतीजे देखने को वे बेचैन थे। जब उन्होंने दफ्तर में सन्नाटा देखा, तो वहीं पास में एक चाय की दुकान के बाहर अपने सहयोगियों के साथ जम गए।
सादिक चुनाव परिणामों से संतुष्ट हैं। वे कहते हैं, “इस बार चुनाव बहिष्कार की कोई कॉल नहीं थी, इसलिए मैंने बेधड़क वोट डाला।” उनका कहना है कि बीते कुछ बरसों में लोगों का दम घुटने लगा था, लेकिन अब उन्हें थोड़ी राहत मिलेगी। उन्होंने कहा, “मुझे नहीं पता कि अनुच्छेद 370 की बहाली जैसे मसलों का क्या होगा लेकिन मुझे उम्मीद है कि सरकार प्राथमिकता के साथ दो सौ मेगावाट बिजली की मुफ्त आपूर्ति करेगी।”
लोगों को उम्मीद है कि चीजें अब शायद आसान होंगी, लेकिन मन में एक डर भी है। वे कहते हैं, “मुझे उम्मीद है आप ऐसा कुछ नहीं छापेंगे कि मुझे दिक्कत हो जाए और गिरफ्तार कर लिया जाए!” इस बात पर उनके बाकी साथी हंस पड़े। उन्होंने सादिक को भरोसा दिलाया कि घबराने जैसी कोई बात नहीं क्योंकि उन्होंने कुछ भी राष्ट्रविरोधी नहीं कहा है।
नतीजे आने के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपनी लड़ी कुल 51 सीटों में से 42 पर जीत हासिल की। उसकी सहयोगी कांग्रेस ने 32 में से 6 सीटों पर जीत हासिल की है। यह कांग्रेस का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है। नेशनल कॉन्फ्रेंस को कश्मीर घाटी से 35 और जम्मू क्षेत्र से सात सीटें मिली हैं। गठबंधन को केवल घाटी से 41 सीटें मिली हैं जबकि कुल 49 सीटों पर उसकी जीत हुई है। यह 1996 के चुनाव के बाद एनसी का सबसे बढ़िया प्रदर्शन है। उस समय पार्टी ने 57 सीटें जीती थीं।
भाजपा नेता रवींद्र रैना
भाजपा ने जम्मू में बहुत बढ़िया प्रदर्शन करते हुए 29 सीटों पर जीत हासिल की है। यह अब तक का उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन है, हालांकि उसकी जीत केवल जम्मू तक सीमित है। घाटी में उसने 19 सीटों पर चुनाव लड़ा था लेकिन वहां एक पर भी उसे कामयाबी नहीं मिली है।
उमर अब्दुल्ला बडगाम और गांदरबल दोनों सीटों से जीत गए हैं। उमर ने चुनाव प्रचार के दौरान केंद्र सरकार की भूमिका पर सवाल उठाया था और जेल में बंद अलगाववादी नेताओं को चुनाव लड़ने की छूट देने को अपने और दूसरों के खिलाफ साजिश करार दिया था। उनका कहना था कि यह कश्मीरियों के वोटों को बांटने की चाल है। आम चुनाव में वे इंजीनियर राशिद से हार गए थे इसलिए इस बात सतर्कता बरतते हुए उन्होंने दो सीटों से लड़ने का फैसला किया था।
दक्षिणी कश्मीर की कुलगाम सीट पर मुकाबला वैचारिक था और यहां सबकी नजर बहुत बेचैनी से लगी हुई थी। माकपा के पुराने नेता यूसुफ तारिगामी का यहां जमात-ए-इस्लामी के समर्थन वाले प्रत्याशी सयार अहमद रेशी से मुकाबला था। जमात ने जिन चार सीटों को अपना निशाना बनाया था, उसमें कुलगाम भी थी। यहां से तारिगामी पांचवीं बार जीते हैं। उन्होंने रेशी को 7,800 से ज्यादा वोटों से हरा दिया। उन्हें 33,634 और रेशी को 25,796 वोट मिले हैं।
रेशी की हार को कई लोग चुनावी राजनीति में जमात-ए-इस्लामी के दोबारा प्रवेश को लगे झटके की तरह देख रहे हैं, लेकिन उन्हें जितने वोट मिले हैं उससे ऐसा लगता है कि उनका प्रदर्शन खराब नहीं रहा। भले ही जमात के समर्थन वाले प्रत्याशियों की जीत न हुई हो लेकिन जम्मू-कश्मीर के चुनावी परिदृश्य में जमात का दोबारा प्रवेश एक ऐतिहासिक पल है। नेशनल कॉन्फ्रेंस और दूसरे राजनीतिक दलों ने तो केवल भाजपा की आलोचना और अनुच्छेद 370 तथा राज्य के दरजे बहाली जैसे मुद्दों पर खुद को केंद्रित किया था, लेकिन जमात के प्रत्याशियों ने बड़े मसलों से बचते हुए जनता के स्थानीय मुद्दों को तरजीह दी थी। जमात का मौजूदा प्रदर्शन दिखाता है कि अगर वह चुनाव में बना रहा तो कुछ इलाकों में वह स्थापित राजनीतिक दलों को ठीकठाक चुनौती दे सकता है। दूसरी ओर जमात के गढ़ में माकपा की जीत ने उसके लिए कुछ और इलाकों में काम करने का रास्ता खोल दिया है। कुलगाम से माकपा की जीत को कई जानकार "वैटिकन सिटी में नास्तिक" की जीत जैसा बता रहे हैं।
इन चुनावों में हारने वाले प्रमुख चेहरों में अपनी पार्टी के मुखिया अलताफ बुखारी, उसके नेता गुलाम हसन मीर, पूर्व मंत्री हकीम यासिन, पूर्व उप-मुख्यमंत्री मुजफ्फर बेग और गुलाम नबी आजाद की पार्टी हैं। माना जा रहा था कि अपनी पार्टी भाजपा की ही खड़ी की हुई है, जिसे अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद अब्दुल्ला और मुफ्ती खानदान की सियासत से निपटने के काम पर लगाया गया है। इस पार्टी के तकरीबन सारे सदस्य पहले पीडीपी में हुआ करते थे। अकसर पीडीपी की मुखिया महबूबा मुफ्ती कहती रही हैं कि अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद दिल्ली ने उनकी पार्टी को तोड़ डाला।
चुनाव में पीडीपी का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक रहा है। उसकी झोली में केवल तीन सीटें आई हैं। उसके युवा नेता वहीद पर्रा पुलवामा से जीते हैं और फयाज अहमद मीर की कुपवाड़ा से जीत हुई है। पर्रा ने पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष सजाद लोन को हराया जबकि मीर ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता नसीर असलम वानी को हराया है। एक बड़ी हार महबूबा की बेटी इल्तिजा मुफ्ती की हुई है। वे परिवार के गढ़ बिजबिहाड़ा से हार गई हैं।
महबूबा मुफ्ती, पीडीपी की अध्यक्ष
पीडीपी की हार के कई कारण हैं। इसमें 2014 के बाद भाजपा के साथ किया, उसका गठबंधन भी है, जिसे नेशनल कॉन्फ्रेंस ने एक मुद्दा बनाया था। इसके अलावा, महबूबा की मानें तो दिल्ली में बैठी सत्ता ने पार्टी को नष्ट करने में बड़ी भूमिका निभाई है। अब पार्टी में मुफ्ती के अलावा केवल पर्रा बच गए हैं।
कश्मीर के मतदाताओं ने वैसे तो 17 साल की सुगरा बरकाती के साथ अपना खूब समर्थन जताया था, जिनके माता-पिता जेल में हैं। वैसे ही, जब चुनाव से कुछ दिन पहले इंजीनियर राशिद जेल से रिहा किए गए और अपनी पार्टी के नेता अलताफ बुखारी के वाजवान में उन्होंने शिरकत की, तो राशिद की रैलियों में भी जनता खूब उमड़ी और उसने आजाद को भी सुना। इसके बावजूद लोगों ने वोट बंटने के डर से नेशनल कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार को ही अपना वोट दिया। एनसी की जीत कश्मीरी मतदाताओं की भावनाओं का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है और लोग उसे भाजपा की मजबूत विरोधी के रूप में देख रहे हैं।
इंजीनियर राशिद की पार्टी केवल लंगाटे में जीत सकी, जहां उनके भाई खुर्शीद अहमद शेख मात्र 1602 वोटों के अंतर से जीत पाए। राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ राशिद की भाषा भी ऐसी थी कि उनकी पार्टी को उसका कोई खास लाभ नहीं मिला। राशिद जब जेल में थे तब जनता का उनको समर्थन अच्छा मिला था। उस वक्त उनके बेटे तेईस वर्षीय बेटे अबरार ने उनके लिए प्रचार किया था। जेल से बाहर आने के बाद राशिद की राजनीतिक चालें खुल गईं, खासकर तब जब उमर अब्दुल्ला ने उनके ऊपर एक ऐसे शख्स को अपना मुख्य प्रवक्ता बनाने का आरोप लगाया जो उन्हीं के खिलाफ मुख्य गवाह रह चुका था। राशिद ने उमर के आरोपों का जवाब देने की बहुत कोशिश की लेकिन अब्दुल्ला ने आखिरकार संसदीय चुनाव में हुई अपनी हार का बदला चुका ही लिया।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के हक में इस बार लहर इतनी तेज थी कि उसके बागी उम्मीदवार, जिन्हें पार्टी ने टिकट देने से इनकार कर दिया था, भी अपने-अपने क्षेत्र से निर्दलीय लड़कर चुनाव जीत गए। इनमें शोपियां से शबीर अहमद कुल्ले, इंदरवाल से प्यारेलाल, सूरनकोट से चौधरी मोहम्मद अकरम और थानामंडी से मुजफ्फर इकबाल हैं। प्रशासनिक रूप से जम्मू का हिस्सा पीरपंजाल और चिनाब घाटियों के मतदाताओं ने एनसी के लिए जबरदस्त वोट किया है। इसके अलावा केंद्र शासित लद्दाख में करगिल हिल डेवलपमेंट काउंसिल पर भी एनसी का कब्जा है। इस तरह एनसी अब जम्मू-कश्मीर में पूरी तरह फैल चुकी है। भाजपा लगातार जम्मू-कश्मीर में पहला डोगरा या हिंदू मुख्यमंत्री बनाने की बात कर रही थी, ऐसा लगता है कि यह बयान उसके लिए उलटा पड़ा है क्योंकि आगामी कैबिनेट ऐसी पहली होगी जिसमें डोगराओं की नुमाइंदगी नहीं होगी।
गांदरबल और बडगाम से अपनी जात का प्रमाण पत्र लेने के बाद टोपी पहने उमर अब्दुल्ला ने बयान दिया, "शेर-ए-कश्मीर की ताकतवर विरासत और जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस को मिटाने के लिए जैसी व्यवस्थित, संगठित और बदनाम कोशिशें की गईं, वे सब अब नाकाम हो चुकी हैं। जनता ने एक बार फिर नेशनल कॉन्फ्रेंस में अपना मजबूत भरोसा जताया है कि वह उनकी मौलिक पहचान और ऐतिहासिक वजूद को महफूज रखे। हमने उनके खत्म किए गए अधिकारों की लड़ाई लड़ी है तभी उन्होंने अपना समर्थन हमें दिया है। हम अपनी इस परंपरा को कायम रखने के लिए संकल्पबद्ध हैं और हम इस लक्ष्य की ओर बिना थके काम करते रहेंगे।"
शाम होते-होते हालांकि आगे की कठिन राह और हकीकत उमर के सामने खुलने लगी, जब उन्होंने कहा, "हममें से कोई भी इतना बेवकूफ नहीं है जो यह मानकर चल रहा हो कि दिल्ली की मौजूदा सरकार के रहते हुए अनुच्छेद 370 के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के वादे पर हम वोटरों को राजी कर पाएंगे। हम समझते हैं कि जिस सरकार ने हमसे सब कुछ छीना है उसी से हमें वे चीजें वापस नहीं मिलने वाली हैं। इसलिए फिलहाल उसे एक किनारे रख दें।" इसके बाद उमर ने कहा कि उनका बुनियादी जोर राज्य के दरजे की बहाली पर होगा।
मतगणना की शाम उमर थोड़ा ढीले पड़ चुके थे। वे इंस्टाग्राम से बाहर निकलकर हकीकत की दुनिया में आ चुके थे। उनका कहना था कि राजभवन के साथ अब रिश्ते कायम रखना बहुत अहम होगा तथा जम्मू-कश्मीर की सरकार और दिल्ली के बीच मनमुटाव से किसी का भी फायदा नहीं होगा, खासकर जम्मू और कश्मीर का, जिसकी बगल में पाकिस्तान और चीन जैसे देश हैं। उमर अब केंद्र और राजभवन दोनों को गले लगाने को आतुर दिख रहे हैं। वे राजभवन से सहयोग और केंद्र से कुछ रियायतें चाहते हैं क्योंकि लोगों को उनकी सरकार से बहुत उम्मीदें हैं। अब यह तो समय ही बताएगा कि ये रियायतें और सहयोग उन्हें मिलेंगे या नहीं।