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जीवनियों से नया साक्षात्कार

रज़ा फाउंडेशन की महत्वपूर्ण योजना से हिंदी में अच्छी जीवनियों का अकाल शायद दूर हो
जिंदगीनामाः मशहूर चित्रकार स्वामीनाथन और यशस्वी लेकक जैनेंद्र कुमार की जीवनियां

हिंदी में सोलह दिग्गज लेखकों, कलाकारों की जीवनियां नामी-गिरामी लेखकों से लिखवाना एक नई परिघटना है। जैनेंद्र और जे. स्वामीनाथन की जीवनी प्रकाशित हो गई है। नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शंखो चौधरी और भूपेन खक्कर की जीवनी आने वाली है। इसके अलावा अज्ञेय, रेणु, मुक्तिबोध, शमशेर, हबीब तनवीर, कृष्णा सोबती की जीवनियां भी आ रही हैं। यशपाल, निर्मल वर्मा, राजकमल चौधरी, हरिशंकर परसाई, धर्मवीर भारती, नामवर सिंह वगैरह की जीवनियां निकालने की योजना है। रज़ा फाउंडेशन के तहत इस योजना को अंजाम दिया है अशोक वाजपेयी ने। शायद इससे हिंदी में जीवनियों का अकाल दूर हो। प्रसिद्ध पेंटर जे. स्वामीनाथन की जीवनी वरिष्ठ कवि, कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल ने लिखी है। प्रयाग जी कहते हैं, “बांग्ला में चित्रकारों पर अनेक जीवनियां हैं लेकिन हिंदी में नहीं। अब जाकर एक चित्रकार के रूप में  टैगोर पर रणजीत साहा की किताब आई है। बिनोद बिहारी मुखर्जी पर भी कोई किताब नहीं है, इसलिए स्वामीनाथन की जीवनी लिखकर मुझे संतोष हुआ। दिनमान में रघुवीर सहाय ने ही मुझे स्वामी से एक इंटरव्यू करने का काम दिया था। तभी से स्वामी से मेरा परिचय प्रगाढ़ हुआ।” यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि कोलकाता में स्वामी सिनेमा के टिकट ब्लैक में बेचा करते थे। बहुत बीड़ी पीते थे, लेकिन कभी गंध नहीं आती थी और खुद को कमरे में हफ्तों बंद करके पढ़ते थे। गर्मियों में खुले बदन ही रहते थे। बहुत ही विलक्षण जीवन और व्यक्तित्व था उनका। आदिवासियों की दुनिया से उनका गहरा लगाव और संपर्क था।

जैनेंद्र की जीवनी, समीक्षक ज्योतिष जोशी ने लिखी है। जैनेंद्र अपने विचार के लिए टैगोर से तर्क करने में नहीं चूके। बनारसी दास चतुर्वेदी ने उन्हें ऐसा करने से रोका। जैनेंद्र शतरंज के दीवाने थे। शतरंज की बाजी में खाना-पीना-नहाना तक भूल जाते थे। उनकी पत्नी इससे बहुत दुखी रहती थीं। एक दिन आधी रात के बाद अपने दोस्त के घर से शतरंज खेलकर लौटे तो पत्नी ने दरवाजा नहीं खोला, तो चारदीवारी फांद कर अंदर जाने की कोशिश में पैर की हड्डी तुड़वा बैठे और महीनों अस्पताल में रहे।

कृष्णा सोबती और नामवर सिंह

क्या आपको मालूम है कि हिंदी के यशस्वी लेखक अज्ञेय जब लाहौर जेल में बंद थे तो बाबा नागार्जुन उनसे मिलने जेल में गए थे? प्रख्यात कवि शमशेर अपनी  आजीविका चलाने के लिए मुंबई में एक दवा की दुकान में काम करते थे? आपको यह जानकर शायद आश्चर्य होगा कि हिंदी के मुक्तिबोध जैसे मार्क्सवादी कवि ने भी कभी पूजा अर्चना की थी! आपको यह जानकर दिलचस्प लगेगा कि जाने-माने कवि, पत्रकार रघुवीर सहाय को बिल्लियों से बहुत प्यार था। इस तरह की अनेक अनोखी, दुर्लभ और चौंका देने वाली जानकारियां इन लेखकों की जीवनियों में आ रही हैं।

हिंदी साहित्य में कविता, कहानी और उपन्यास तो बहुत लिखे जाते हैं, पर आत्मकथाएं और जीवनियां बहुत ही कम लिखी जाती हैं। यूं तो भारतेंदु के मित्र बाबू शिवनंदन सहाय ने 1900 में उनकी जीवनी लिखी थी, जो बिहार के आरा शहर के थे। उस जमाने में शिवनंदन सहाय ने अनेक लोगों की जीवनियां लिखी थीं और बकौल शिवपूजन सहाय उन्हें हिंदी का पहला जीवनीकार भी माना जाता रहा है। प्रसिद्ध समाजवादी लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी ने जयप्रकाश नारायण की जीवनी 1946 में तब लिखी थी जब जेपी ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के युवा नायक थे। बेनीपुरी जी जेपी से उम्र में दो साल बड़े थे, अपनी उम्र से छोटे किसी व्यक्ति पर उसके जीवनकाल में जीवनी लिखने की यह पहली घटना थी। बेनीपुरी जी ने मार्क्स और रोज़ा लक्जम्‍बर्ग की भी जीवनियां लिखीं। लेकिन हिंदी में अब तक तीन ही यादगार जीवनियां लिखी गईं, जो खूब चर्चित भी हुईं।

इनमें एक है अमृत राय की कलम का सिपाही, जो उन्होंने अपने पिता प्रेमचंद पर लिखी थी। वैसे, उनसे काफी पहले 1948 के आसपास प्रेमचंद पर अंग्रेजी में पहली जीवनी मदन गोपाल ने लिखी थी। दूसरी महत्वपूर्ण जीवनी रामविलास शर्मा ने निराला पर लिखी थी, जो निराला की साहित्य साधना नाम से दो खंडों में छपी थी, जिसमें पहला खंड निराला के जीवन पर केंद्रित है। उस जीवनी में पंत के बारे में अनेक विवादास्पद बातें भी थीं, जिसका प्रतिवाद कवि आलोचक अजित कुमार ने उस जमाने में धर्मयुग में किया था। फिर, शांति जोशी ने पंत की जीवनी लिखी थी। शांति जोशी पंत की भगिनी थीं, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाती थीं और पंत उनके घर में रहते थे।

तीसरी महत्वपूर्ण जीवनी विष्णु प्रभाकर ने लिखी शरतचंद्र पर, जो आवारा मसीहा नाम से छपी। इसके बाद विष्णुचंद्र शर्मा ने मुक्तिबोध और राहुल सांकृत्यायन की जीवनियां लिखीं, तो गुणाकर मुले ने राहुल जी की जन्मशती पर उनकी जीवनी लिखी। कुछ साल पहले प्रसिद्ध आलोचक  विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने गुरु हजारीप्रसाद द्विवेदी पर एक संस्मरणात्मक जीवनी व्योमकेश दरवेश लिखी, जो काफी सराही गई।

यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि बीसवीं सदी में जिन व्यक्तियों ने हिंदी को खड़ा किया, उनकी आज तक कोई जीवनी नहीं आई। महावीर प्रसाद द्विवेदी उनमें प्रमुख हैं। साहित्य अकादेमी ने जरूर हिंदी के सभी महत्वपूर्ण लेखकों के मोनोग्राफ निकाले, जिनमें लेखकों के जीवन की एक झलक दिखाई देती है लेकिन अधिकांश लेखकों की जीवनियां नहीं आईं। यहां तक कि जयशंकर प्रसाद और रामचंद्र शुक्ल की भी नहीं। जयशंकर प्रसाद पर बनारस के एक पत्रकार श्याम बिहारी श्यामल ने जरूर एक औपन्यासिक जीवनी लिखी है। इस तरह देखा जाए तो हिंदी में जीवनी साहित्य का नितांत अभाव रहा है।

नया साक्षात्कारः शमशेर, नागार्जुन, रघुवीर सहाय केजीवन और साहित्य के अनूठे प्रसंग बटोरने का वादा

अशोक वाजपेयी कहते हैं कि हिंदी में वाकई जीवनियों का अकाल है इसलिए हमने 16 लोगों पर जीवनियां लिखने की योजना बनाई है। चार और जीवनियां जल्द ही आ रही हैं। इनमें नागार्जुन पर तारानंद वियोगी की, रघुवीर सहाय पर विष्णु नागर की लिखी जीवनी है। इसके अलावा प्रसिद्ध इतिहासकार सुधीर चंद्र की मशहूर चित्रकार भूपेन खक्कर और मदनलाल की शंखो चौधरी पर लिखी जीवनी भी आ रही है। उनका कहना है कि हिंदी की दुनिया में हम अपने लेखकों को सेलिब्रेट नहीं करते। उन्हें या तो देवता मानते हैं या फिर खलनायक। लेकिन लेखक का भी जीवन-संघर्ष होता है। वह भी एक आम इंसान की तरह जीता है, उसके जीवन में भी उतार-चढ़ाव होते हैं। उसके भी प्रेम प्रसंग होते हैं। वह अपने समय और समाज के बारे में किस तरह सोचता है, अपने समकालीनों से उसके कैसे रिश्ते बनते हैं, वगैरह उसके जीवन के हिस्से होते हैं। यह सब भी हमें जानना चाहिए। इसलिए हमने यह योजना बनाई और उन लेखकों के जानकारों को जीवनियां लिखने का काम सौंपा। इस वर्ष के अंत तक दस किताबें आ जाएंगी। अज्ञेय पर अंग्रेजी के पत्रकार अक्षय मुकुल लिख रहे हैं, तो शमशेर पर मंगलेश डबराल। मुक्तिबोध पर युवा आलोचक जयप्रकाश, तो कृष्णा सोबती पर गिरधर राठी लिख रहे हैं। अक्षय मुकुल की किताब अंग्रेजी में होगी। इसी तरह रज़ा की जीवनी वसुधा डालमिया लिख रही हैं और वह भी अंग्रेजी में होगी, पर दोनों के हिंदी अनुवाद साथ-साथ आएंगे।

वाजपेयी का यह भी कहना है कि हमने आधुनिक हिंदी साहित्य के लेखकों की ही जीवनियां लिखवाई हैं। पुराने लेखकों की नहीं लिखवाई हैं। हमने लेखकों के परिवारवालों से भी नहीं लिखवाई, क्योंकि वे पूरी तरह न्याय नहीं कर पाते। उनमें थोड़ा पूर्वाग्रह भी होता है। हम संगीतकारों की जीवनियां भी लिखवाना चाहते हैं, पर हिंदी में उनकी जीवनियां लिखने वाले बहुत कम लोग हैं। इसलिए हम विलायत खान पर अंग्रेजी में आई किताब का अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं। अंग्रेजी में तो पाब्लो नेरुदा, काफ्का, कामू की भी एक से अधिक जीवनियां हैं। मेरे पास खुद बीस जीवनियों का एक संचयन है।

वाजपेयी के इस कथन में सच्चाई नजर आती है। आज तक कायदे से रवींद्रनाथ टैगोर, नंदलाल बसु, यामिनी राय की भी कोई जीवनी हिंदी में नहीं आई। न शम्भु मित्र, न ओंकारनाथ ठाकुर, न बड़े गुलाम अली खान पर आई। युवा कवि यतीन्द्र मिश्र ने हाल में लता मंगेशकर और बेगम अख्तर की जीवनियां लिख कर इस कमी को पूरा करने की कोशिश की है। हिंदी की दुनिया में सरकारी प्रतिष्ठानों और संस्थाओं ने आजादी के बाद इस काम को हाथ में नहीं लिया और बड़े प्रकाशकों ने ध्यान नहीं दिया, क्योंकि वे पैसे खर्च नहीं करना चाहते। अच्छी जीवनी लिखने के लिए भागदौड़ और शोध कार्य करना पड़ता है और उसमें पैसे लगते हैं।

मंगलेश डबराल कहते हैं कि उन्होंने सौ पेज अभी तक लिखे हैं और इस साल तक वे पूरा कर देंगे, लेकिन उन्हें अभी एक बार रंजना अरगड़े से मिलने अहमदाबाद जाना है, जहां शमशेर जी अपने जीवन के अंतिम वर्षों में रहते थे। उनका कहना है कि शमशेर जी के बारे में यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि वे मुंबई में एक केमिस्ट की दुकान पर काम करते थे और प्रेमचंद की तरह अपनी किसी रचना को पहले उर्दू में लिखते थे। शमशेर की उपेक्षा प्रगतिशील लेखक संघ ने भी की और भैरव प्रसाद गुप्त तो उन्हें रूपवादी कवि मानते थे, जबकि शमशेर सौंदर्य, प्रेम और क्रांति के बड़े कवि थे। उनके जीवन में ‌िस्‍त्रयों की बड़ी भूमिका थी। दिल्ली में वे लाजपत नगर में रहते थे और मलयज के घर पर आते थे तो वहीं रुक जाते थे। तब हम लोग 25-26 साल के युवा थे तथा माडल टाउन में मलयज के घर पर एक मियामी में रहते थे। उनकी सरलता, विनम्रता और मानवीयता से हमलोग बहुत प्रभावित थे।

मैथिली के कवि तारानंद वियोगी का कहना है कि उन्होंने करीब 400 पेज की नागार्जुन की जीवनी लिख कर दे दी है। “हमने बहुत ही प्रामाणिक तथ्यों के साथ यह जीवनी लिखी है और गोपनीय दस्तावेजों से प्राप्त जानकारियों का भी इस्तेमाल किया है।” यह बहुत कम लोगों को पता है कि नागार्जुन का निकट का संबंध सुभाषचंद्र बोस के साथ था, लेकिन जब सुभाष बाबू दूसरे विश्व युद्ध में हिटलर के साथ हो गए तो उन्होंने सुभाष बाबू के खिलाफ एक कविता लिखकर उनका विरोध भी किया। स्वामी सहजानंद सरस्वती उनके आदर्श नायक थे और उन्होंने किसान आंदोलन में भाग लिया। यह भी बहुत कम लोगों को मालूम है कि अज्ञेय जब लाहौर जेल में बंद थे तो नागार्जुन उनसे जेल में मिलने वाले पहले व्यक्ति थे। बाद में नागार्जुन का रास्ता अज्ञेय से अलग होता गया।

विष्णु नागर कहते हैं कि उन्होंने भी करीब 400 पेज की जीवनी रघुवीर सहाय की लिखी है। सहाय जी के आदर्श नायक लोहिया थे और कल्पना के दफ्तर में लोहिया से उनकी मुलाकात बद्री विशाल पित्ती ने कराई थी। जब लोहिया जी पहली बार संसद में आए तो पहले दिन ही रघुवीर सहाय की मुलाकात संसद में उनसे हो गई। नवभारत टाइम्स के संवाददाता के रूप में पहली बार वे संसद कवर करने गए थे। लोहिया ने नेहरू को दुनिया का सबसे महंगा प्रधानमंत्री बताते हुए उनके खिलाफ जो बहस लोकसभा में चलाई थी उसे सहाय जी ने कवर किया था। सहाय जी को बिल्लियों से बहुत प्यार था। श्रीकांत वर्मा से उनके रिश्ते हमेशा तनावपूर्ण रहे जबकि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से सामान्य थे। उनसे भी कोई अंतरंगता नहीं थी।

मुक्तिबोध

अशोक वाजपेयी कहते हैं कि वे रामकुमार, के.जी. सुब्रह्मण्यम जैसे चित्रकारों की भी जीवनियां लिखवा रहे हैं। लेकिन वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इन जीवनियों को लिखने वाले योग्य लेखक क्या मिल पाएंगे? इन जीवनियों के आने से क्या हिंदी साहित्य के इतिहास पर नई रोशनी पड़ेगी? क्या इन जीवनियों से उस लेखक की रचना और रचना प्रक्रिया को जानने में मदद मिलेगी या हिंदी में कोई नया विवाद खड़ा हो जाएगा। शायद इसीलिए पत्रकार अक्षय मुकुल अज्ञेय की जीवनी के बारे में कुछ भी नहीं बताना चाहते हैं। अज्ञेय को लेकर इतने विवाद हैं और उनको लेकर इतना भ्रम फैलाया गया है कि मुकुल उसमें अभी पड़ना नहीं चाहते। जयप्रकाश कहते हैं कि मुक्तिबोध की भी एक छवि बना दी गई है। मैं तथ्यों के आधार पर मुक्तिबोध की सही परिप्रेक्ष्य में जीवनी लिख रहा हूं, जिसमें मुक्तिबोध के अंतर्विरोधों की भी चर्चा होगी।

गिरधर राठी का कहना है कि कृष्णा सोबती की जीवनी आने में करीब एक साल लग जाएंगे। इसमें नए पाठकों को कई अल्पज्ञात जानकारियां मिलेंगी, जैसे मित्रो मरजानी के प्रकाशन को लेकर उठे विवाद पर। 1967 में इसके किताब रूप में छपने के पहले ही सारिका में चंद्रगुप्त विद्यालंकार ने इसे किस्तों में छापने का फैसला किया।

पहली ही किस्त छपी थी कि भैरव प्रसाद गुप्त ने अपनी पत्रिका में इसे पूरा छाप दिया। इसके बाद विद्यालंकार ने बाकी अंश छापने से इनकार कर दिया। कृष्णा जी ने कानूनी नोटिस भेजवाया तब जाकर सारिका में बाकी अंश छपे। राठी जी का कहना है कि मित्रो मरजानी छपते ही लोकप्रिय हो गई, लेकिन उसकी नायिका विशुद्घ पंजाबी नहीं, बल्कि हरियाणा, पंजाब और राजस्थान की सीमावर्ती इलाके की एक मजदूरनी थी।

अब देखना यह है कि इन जीवनियों के आने से लेखकों की बनी-बनाई छवियां टूटेंगी या नई छवियां बनेंगी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कवि हैं)

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