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3 फरवरी 2025 · FEB 03 , 2025

आवरण कथा/खेल-खिलाड़ीः सुनहरे कल के नए सितारे

हर मैदान में नई-नई, कच्ची उम्र की भी, प्रतिभाओं की चमक चकाचौंध कर रही है और खुद में ऐसे बेमिसाल भरोसे की गूंज भारतीय खेलों की नई पहचान बन गई है, भारतीय खेलों से हर पल जुड़ती कामयाबी की नई कहानियां इसका आईना हैं
नए खिलाड़ियों से रोशन खेल की दुनिया

मुझे खुद में भरोसा है। इसलिए मैं यहां हूं।’’  यशस्वी जायसवाल की जुबान से निकला यह कोई साधारण वाक्य नहीं है। यह वाक्य उनकी शख्सियत को समेटता बड़ा उत्तर है। यह उत्तर किसी प्रेस कॉन्‍फ्रेंस या इंटरव्यू में पूछे गए किसी सवाल पर नहीं था। इंटरव्यू के सवालों के दौरान ठहर कर, सोच-विचार कर जवाब देने का मौका रहता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं था। भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच मेलबर्न में खेले जा रहे चौथे टेस्ट मैच के आखिरी दिन दर्शकों की संख्या मेलबर्न क्रिकेट ग्राउंड में नया इतिहास रच रही थी। सर डॉन ब्रैडमैन के दौर में भी शायद इतनी बड़ी तादाद में दर्शक मैदान तक नहीं पहुंचे थे। इस बेमिसाल स्टेज पर ऋषभ पंत के साथ यशस्वी जायसवाल क्रीज पर थे। दोनों मैच ड्रॉ करनाने की कोशिश में शिद्दत से जुटे थे। पारी का 33वां ओवर जारी था। 92 टेस्ट मैच खेल चुके अनुभवी मिचेल स्टार्क के हाथ में गेंद थी। रनअप पर लौटते वक्त उन्होंने गिल्लियों को नए सिरे से स्टंप्स पर सजाया। नॉन स्ट्राइकर एंड पर खड़े जायसवाल ने तुरंत उन्हें वापस पहले वाली पोजिशन में रख दिया।

‘‘सुपरस्टिशियस, मेट! (अंधविश्वास, दोस्त!)’’ स्टार्क ने 35 रन पर मजबूती से खेल रहे जायसवाल की एकाग्रता भंग करने के इरादे से तंज कसा। ‘‘आइ एम नॉट सुपरस्टिशियस। आइ बिलीव इन माइसेल्फ, दैट्स व्हाइ आइ एम हियर (मैं अंधविश्वासी नहीं हूं। मुझे खुद में भरोसा है, इसलिए मैं यहां हूं।) यशस्वी ने बिना वक्‍त गंवाए तपाक से जवाब दिया।

दरअसल, यशस्वी जायसवाल के जेहन में कहीं बहुत गहरे दर्ज हो चुके ये सिर्फ शब्द भर नहीं थे। यह उसकी जिंदगी के फलसफे में तब्दील हो चुकी सोच है, जो हर पल उसे नए और नए मुकाम की तरफ ले जा रही है। वह इस एक सोच के साथ जागता-सोता है। इसलिए इतने बड़े मौके पर, इतने कड़े मुकाबले के बीच, इतने वरिष्ठ खिलाड़ी के सामने बिना वक्‍त लिए सहजता से कहे यशस्वी जायसवाल के शब्द बयान की शक्ल में गूंज रहे हैं और हमेशा गूंजते रहेंगे। इसमें दूर-दूर तक कहीं हल्‍के से भी किसी भय की छाया नहीं है। न ऐसा कहते हुए रत्ती भर घमंड।

यशस्वी जायसवाल होने का यही मतलब है। यही आत्मविश्वास यशस्वी को नामुमकिन हालात में भारत के नक्शे पर एक अनजान कस्बे भदोही से दुनिया के मानचित्र पर असरदार तरीके से दर्ज कर मेलबर्न तक ले आता है। भदोही से मेलबर्न की इस यात्रा में वह कितने ही शहरों और मैदानों से गुजरता है, लेकिन ये सब शहर, मैदान उसकी इस यात्रा में महज एक पड़ाव भर बनते हैं, मंजिल नहीं। इसलिए मुंबई के खुले आसमान से टपकती मुश्किलों की हर बारिश के बीच वह अपने सपनों को कभी धुलने नहीं देता। मुंबई के आजाद मैदान पर अपनी क्रिकेट को गढ़ते हर दूसरे नौजवान क्रिकेटर की सोच में कुछ ही कदमों के फासले पर मौजूद वानखेड़े पर खेलने का ख्वाब तैरता है। टैलेंट और स्किल बहुतों में होता है, लेकिन आग की दरिया की तरह मौजूद इन चंद कदमों के फासले को अपने आसमानी हौसलों से पार करने की जिद ही किसी यशस्वी जायसवाल को शक्ल देती है। हर एक कदम पर वह अपने बल्ले से बहते रनों के बहाव को थमने नहीं देता। विजय हजारे ट्रॉफी से अंडर 19 वर्ल्ड कप, आइपीएल से रणजी ट्रॉफी- हर पारी के साथ उसका बल्ला नई कहानी लिखता है। पहले टेस्ट में शतक से लेकर इस गावस्कर-बॉर्डर ट्रॉफी तक वह अपने बल्ले की लय को डगमगाने नहीं देता। पहली बार ऑस्ट्रेलिया की जमीं पर उतरते हुए भी वह विराट कोहली से लेकर रोहित शर्मा जैसे दिग्गजों से बनी भारतीय टीम में सबसे बड़े बल्लेबाज की तरह खुद को दर्ज कराता है। आज वह क्रिकेट की रिकॉर्ड्स बुक को नए सिरे से लिख रहा है। भारतीय क्रिकेट की एक बड़ी उम्मीद की शक्ल में आने वाले कल में इन्हीं लेजेंड्स की खींची लकीरों की तरफ बढ़ रहा है।

भारतीय खेलों में खुद में ऐसे बेमिसाल भरोसे की गूंज सिर्फ क्रिकेट के मैदान से नहीं आ रही। यह भरोसा भारतीय खेलों की नई पहचान बन चुका है। भारतीय खेलों से हर पल जुड़ती कामयाबी की नई कहानियां इसका आईना हैं। इसलिए करीब एक दशक पहले 2013 में सात साल का नन्हा गुकेश डोम्‍मराजू यानी गुकेश डी अपने घर चेन्‍नै में अपने हीरो विश्वनाथन आनंद को कार्लसन के आगे वर्ल्ड टाइटल से दूर जाते देखता है। उस कच्ची उम्र में वह तय करता है कि यह बादशाहत वापस लेकर रहेगा। फिर कदम दर कदम इस ख्वाब को हकीकत में बदलने में जुट जाता है। सिर्फ 12 साल की उम्र में ग्रैंडमास्टर बनता है। सिर्फ 17 साल की उम्र में 2750 की रिकॉर्ड इलो रेटिंग पार करता है। एक साल पहले अपने शहर चेन्‍नै में चेन्‍नै मास्टर्स जीतकर कैंडिड्ट्स में खेलने का हक पाता है। फिर, सबकी उम्मीदों  और सोच से आगे निकलता हुआ कैंडिड्ट्स जीत विश्व खिताब के लिए चीन के डिंग लिरेन को चेलेंज करता है। यहां से गुकेश की कहानी भारतीय खेलों में एक परिकथा में बदल जाती है। बीती 12 दिसंबर को 18 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते वह शतरंज की दुनिया का बेताज बादशाह बन जाता है। सिंगापुर के सेंटोसा के वर्ल्ड रिसोर्ट में जब वह डिन को 14वें और आखिरी गेम में मात देता है, तो वह शतरंज के इतिहास में सबसे कम उम्र का चैंपियन कहलाता है। दुनिया के 201 शतरंज खेलने वाले देशों में शिखर पर काबिज हो जाता है।

अमन सहरावत

असली नायकः अमन सहरावत ने लगातार अभ्यास और कड़ी मेहनत से हासिल की सफलता (खड़े हुए)

इसके करीब पांच महीने पहले ही 22 साल की मनु भाकर पेरिस ओलंपिक की स्टेज पर एक नहीं, दो-दो बार विक्टरी पोडियम पर जा खड़ी होती है। वह भी सिर्फ 48 से 60 घंटों के बीच। पेरिस ओलंपिक को कवर कर रहे एक भारतीय रिपोर्टर ने मनु की उपलब्धि को एक बेहतरीन संदर्भ के साथ पेश किया था। यह कारनामा उस देश की निशानेबाज कर रही है, जिस देश में एक व्यक्तिगत मेडल से दूसरे तक पहुंचने में चार दशक लग गए। खाशाबा जाधव ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती में कांस्‍य पदक हासिल किया था। उसके बाद लिएंडर पेस ने 1996 के एटलांटा में टेनिस में इस कामयाबी को छूआ। ओलंपिक में एक खिलाडी को दो पदक लेने के लिए दो ओलंपिक में खेलना पड़ा। पहलवान सुशील कुमार ने 2008 के सियोल और 2012 के लंदन ओलंपिक में मेडल जीते। बैडमिंटन में पीवी सिंधु ने रिओ और फिर टोक्यो में यह कामयाबी दर्ज की, लेकिन एक ही ओलंपिक में दो मैडल जीतने का इतिहास रचा मनु भाकर ने 10 मीटर एयर पिस्टल व्यक्तिगत और मिक्स्ड ईवेंट में कांस्‍य पदक जीत कर।

मनु की यह बेमिसाल कामयाबी अपने खेल को जिंदगी जीने के तरीके में बदलने की कहानी है। इसलिए हर एक निशाने के साथ वह नई मंजिल की तरफ बढ़ती दिखती रही है। पेरिस की इस कामयाबी के पहले वर्ल्ड यूनिवर्सिटी गेम्स हो या यूथ ओलंपिक, एशियाई गेम्स हो या कामनवेल्थ गेम्स, वर्ल्ड चैंपियनशिप हो या वर्ल्ड कप, एक-दो अपवाद छोड़ दें, तो वह लगातार सुनहरे मेडल पर ही निशाना साधती रही है।

ओलंपिक कामयाबियों की इसी फेहरिस्त में हम कुश्ती के मैट पर मिलते हैं अमन सेहरावत से और हॉकी फील्ड में विवेक सागर प्रसाद से। अमन अपने आइडल और टोक्यो के सिल्वर मेडल विनर रवि दहिया को नेशनल चैंपियनशिप में हरा पेरिस में पुरुष कुश्ती में दाखिल होने वाले भारत के इकलौते पहलवान थे। यही अमन बनते हैं सबसे कम उम्र में ओलंपिक के विक्टरी पोडियम पर कदम रखने वाले भारतीय पहलवान। सिर्फ सत्रह साल 10 महीने की छोटी उम्र में देश के लिए खेलने वालों में विवेक 24वें साल में दाखिल होते-होते दो ओलंपिक मेडल अपने नाम कर चुके हैं। 2019 में एफआइएच के राइजिंग प्लेयर ऑफ द ईयर बने विवेक आने वाले कल में हरमनप्रीत के बाद भारत की कप्तानी के बड़े दावेदार हैं।

अनहत सिंह

अनाहत सिंह

कामयाबियों की ऐसी ही कड़ी में आप मिल सकते हैं उम्र को अंगूठा दिखाती महज 16 साल की स्क्वेश प्लेयर अनाहत सिंह से। 14 साल की उम्र में ही हॉन्गजोउ एशियाई खेलों में दो मेडल जीतने के बाद बीते साल 9 प्रोफेशनल स्क्वेश एसोसिएशन चैलेंजर टाइटल अपने नाम कर चुकी अनाहत रैकेट स्पोर्ट्स में भारत की सबसे बड़ी उम्मीद बनकर सामने हैं। अनाहत ने इस नए साल की शुरुआत की है, अंडर 17 ब्रिटिश ओपन जीतकर। भारतीय खेलों में  रैकेट स्पोर्ट्स में इस उम्र में कोई भी इन कामयाबियों तक नहीं पहुंचा है। अब उसकी निगाह है 1928 में होने वाले लॉस एंजलिस ओलंपिक पर, जहां स्क्वेश पहली बार खेलों का हिस्सा बन रहा है।

शीतल देवी

शीतल देवी

खुद पर भरोसे की इन सभी कहानियों पर अकेली भारी पड़ जाती है शीतल देवी की कहानी। कुदरत के सब कुछ छीन लेने के बावजूद उससे भिड़ने के जज्‍बे की बेमिसाल है शीतल। जन्म के समय ही फोकोमेलिया से पीड़ित शीतल के हाथ पूरी शक्ल नहीं ले पाए, लेकिन खुद में बेमिसाल भरोसे से उसने अपने पैरों को अपने हाथ बना धनुष उठाया और फिर अपनी पूरी दुनिया ही बदल दी- कुछ इस तरह कि उसके धनुष से छूटता हर तीर किसी नए मेडल की तरफ मुखातिब न होकर कुदरत को ही चैलेंज कर रहा हो। एशियाई पैरा गेम्स में दो गोल्ड लेने वाली शीतल ने पेरिस ओलंपिक में मिक्स्ड कम्पाउंड ईवेंट का ब्रांज हासिल किया, तो वह भारत की सबसे कम उम्र की ओलंपिक मेडलिस्ट बन चुकी थी। पैरा ओलंपिक के इतिहास में बिना हाथों के पैरों से धनुष पकड़ कर निशाना साधने वाली वह सिर्फ दूसरी आर्चर हैं। उसके पहले मैट स्टुटजमन ने 2012 के लंदन पैरा ओलंपिक में सिल्वर हासिल किया था। दिलचस्प है कि स्टुटजमन के इसी कारनामे ने ही शीतल के लिए आर्चरी की राह खोली, जहां उसने अभी अपनी कहानी की सिर्फ शुरुआत भर की है। शीतल की कहानी इस ऐलान के साथ हमसे टकराती है कि इनसानी कोशिशों की कोई सीमा आप तय नहीं कर सकते। और शायद कुदरत भी नहीं।

ये सब कहानियां उस टैलेंट को भी नए सूत्र थमा रहीं हैं, जो नया इतिहास लिखने के बावजूद अपनी मंजिल से एक फासले पर खड़े रह गए। यहां हमारी नजरें ठहरती हैं, जूनियर वर्ल्ड नंबर वन लक्ष्य सेन पर। पेरिस में बेशक वह मेडल से चूक गया, लेकिन जिस मोड़ से वह वापस लौटा वहां आज तक कोई दूसरा पुरुष बैडमिंटन प्लेयर नहीं पहुंच पाया। आखिरी चार में जगह बनाने वाले वह पहले भारतीय हैं। बीते साल थॉमस कप में भारत की ऐतिहासिक जीत की भी वह धुरी रहा है। भारतीय खेलों के इसी मोड़ पर हमारे सामने है- दो बार की वर्ल्ड चैंपियन निखित जरीन। बेशक, पेरिस ओलंपिक के रिंग से उसे खाली हाथ लौटना पड़ा, लेकिन उसकी कहानी खत्म नहीं हुई, अभी बस शुरू हुई है।

दरअसल, कामयाबी की इन कहानियों में बेहतर कल की पदचाप सुनाई पड़ती है। उनमें खुद में भरोसे के साथ-साथ वापसी करने का वह जज्बा है जो कभी-कभार मंजिल तक पहुंचने में देर कर सकता है, लेकिन उससे दूर नहीं हो सकता। इसलिए मनु भाकर टोक्यो के दुस्वप्न को पीछे छोड़ पेरिस में नए सिरे से निशाना साधती हैं। फाइनल में 9.6 के एक निशाने से वह मेडल की दौड़ से दूर जाती हैं, लेकिन फिर 10.3 के स्कोर के साथ जोरदार वापसी करती हैं। गुकेश वर्ल्ड चैंपियनशिप में पहली बाजी सफेद मोहरों से खेलते हुए हार जाते हैं, लेकिन फिर पलट कर ऐसी वापसी करते हैं कि पूरी दुनिया उनकी कायल हो जाती है। अपने पहले आइपीएल सीजन में गेंदों की रफ्तार से अपने स्ट्रोक की तालमेल बनाने में चूकते यशस्वी जायसवाल राजस्थान रॉयल्स की अकेडमी में नए सिरे से खुद को तैयार करते हैं। वे दिन रात एक कर देते हैं। फिर हम गवाह बनते हैं महज 13 गेंदों में आइपीएल इतिहास की सबसे तेज हाफ सेंचुरी के।  सिर्फ 11 साल की कच्ची उम्र में अपने माता-पिता को खो देने वाला अमन अपनी दुनिया को सिर्फ और सिर्फ कुश्ती के मेट पर समेट लेता है। ओलंपिक से डेढ़ साल पहले देश में हुए वर्ल्ड कप में विवेक प्रसाद अपनी सही लय नहीं तलाश पाते। अनुभवी हार्दिक की गैर-मौजूदगी में तो वे कुछ बिखरे-बिखरे लगते हैं, लेकिन पेरिस में वे फिर खुद को नए सिरे से खड़ा करते हैं। पहली नजर में सिर्फ पांच फुट चार इंच के विवेक प्रसाद कहीं से भी आधुनिक हॉकी के एथलीट नहीं दिखते, लेकिन टर्फ पर पूरे नियंत्रण के साथ जब वे अपने साथियों तक सही वक्त पर सही जगह गेंद पहुंचाते हैं, तो विपक्षी टीम को मालूम हो जाता है कि भारत पर जीत से पहले उसे विवेक पर जीत दर्ज करनी होगी।

डी गुकेश

डी गुकेश

दरअसल, यह बदलता हुआ भारत है। गुकेश से हुए मुकाबले से कुछ दिन पहले ही उनके प्रतिद्वंद्वी डिंग लिरेन ने फीडे को दिए एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘आज की नौजवान पीढ़ी बेखौफ खेलती है। हालात कुछ भी हो, वे हमेशा जीत की कोशिश करते हैं।’’ यह बात शायद भारत के शतरंज खिलाड़ियों पर सटीक बैठती है। वे शतरंज की बिसात पर जीत की नई कहानियां लिख रहे हैं। इसलिए 36 साल पहले भारत में सिर्फ एक ग्रैंडमास्टर था- विश्वनाथन आनंद। आज देश में 85 ग्रैंडमास्टर हैं। भारत शतरंज की दुनिया का सबसे बड़ा नर्व सेंटर है। आइपीएल दुनिया में क्रिकेट का सबसे बड़ा मंच है। अंतरराष्ट्रीय फलक पर भारत की पहचान रही हॉकी वापस लौट रही है। भारतीय निशानेबाज नए से नए लक्ष्यों पर निशाना साध रहे हैं। रैकेट स्पोर्ट्स में भारत के चेलैंज को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। आज हम ओलंपिक में हिस्सेदारी के लिए नहीं, मेडल के लिए पहुंचते हैं। इतना ही नहीं, अब तो हम ओलंपिक की मेजबानी का ख्वाब संजो रहे हैं। ये खुद में झलकते आत्मविश्वास का नया आईना है, जिसकी नुमाइंदगी भारतीय खेलों के ये नए नायक कर रहे हैं, आने वाले कल की सुनहरी तस्वीर के करीब जाते हुए।

नरेंद्र पाल सिंह

(लेखक वरिष्‍पत्रकार, लेखक और खेल समीक्षक हैं)

 

 

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