हम प्रायः सूची बनाते हैं। शब्दों को पेज पर करीने से सजाते हैं ताकि उनका कोई अर्थ या उद्देश्य हो। लेकिन कुछ शब्दों की कुछ सूचियां सिर्फ डर पैदा करती हैं। इनके कुछ उदाहरण भी हैंः
2013: एक कॉलेज की छात्रा का उस समय अपहरण हो जाता है जब वह अपने घर के पास टहल रही होती है। एक बंद पड़ी फैक्ट्री में उसके साथ बलात्कार किया जाता है। बलात्कारी उसका गला काटने के बाद उसकी टांगों को धड़ से अलग कर देते हैं। यह ‘कमदुनी रेप केस’ के तौर पर चर्चित हुआ। इस मामले में नौ लोग आरोपी बनाए गए। तीन को मौत की सजा हुई। तीन अन्य को आजीवन कारावास मिला। दो आरोपियों को बरी कर दिया गया, एक की ट्रायल के दौरान मौत हो गई।
2014: बदायूं में एक से ज्यादा घटनाएं सुर्खियों में छा गईं। ‘बदायूं सिस्टर केस’ कहे गए इस मामले में दो बहनों को एक पेड़ से बांध दिया गया। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में शुरू में कहा गया था कि उनके साथ बलात्कार किया गया और फिर गला घोंटकर हत्या कर दी गई। बाद में सीबीआइ रिपोर्ट में कहा गया कि बलात्कार नहीं हुआ। तीन लोग गिरफ्तार किए गए, बाद में जमानत मिल गई। (एक अन्य बदायूं केस में पीड़िता को पुलिस में केस दर्ज कराने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी। बाद में उसने निराश होकर आत्महत्या कर ली।)
2014: सौम्या केस। चलती ट्रेन में बलात्कार के बाद बाहर फेंक दिया गया जिससे सिर में गंभीर चोटें आईं। हिस्ट्रीशीटर आरोपियों को मौत की सजा मिली लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सजा आजीवन कारावास में बदल दी।
2015: मणिपुर की अदालत ने चार वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के मामले में एक आरोपी को मौत की सजा दी।
2016: जिशा केस। लॉ स्टूडेंट को उसके घर के भीतर मार डाला गया और उसके शव को क्षत-विक्षत कर दिया गया। रिपोर्ट के अनुसार निर्भया केस की तरह इस घटना में छात्रा की अंतड़ियां निकल आईं। बाद में आरोपी को मौत की सजा हुई।
2016: डेल्टा मेघवाल का शव वाटर टैंक में मिला। वह हॉस्टल में रहती थी। माना जाता है कि उसने पीटी टीचर द्वारा बलात्कार करने के बारे में अपने माता-पिता को बताया। पुलिस को कथित तौर पर नगर निगम के कूड़ा घर से उसका शव मिला। तीन लोगों के खिलाफ मामला आत्महत्या के लिए उकसाने का बना, न कि बलात्कार या हत्या का।
2019: टोंक में छह वर्षीय बच्ची के साथ बलात्कार किया गया और बाद में उसकी स्कूल यूनीफॉर्म बेल्ट से गला घोंटकर हत्या कर दी गई।
2019: एक महिला को आग के हवाले कर दिया गया, जब वह अपने बलात्कारियों के खिलाफ गवाही देने के लिए जा रही थी। यह मामला उन्नाव का है, लेकिन इसे उन्नाव रेप केस नहीं कहा गया क्योंकि यह एक अन्य मामला है।
एक अन्य मामले में एक विधायक बलात्कार का आरोपी बना। पीड़िता के पिता की मौत पुलिस की हिरासत में उत्पीड़न के कारण हो गई। इसके बाद पीड़िता के साथ एक सड़क दुर्घटना हुई, जिसमें वह मरते-मरते बची। विधायक को बलात्कार के लिए दस साल की सजा हुई।
कौन सा अपराध ज्यादा दुर्लभ है और कौन सा ज्यादा डरावना? हम तय नहीं कर सकते, लेकिन हमें यह अनुमान अवश्य लग जाता है कि किसे कितनी सजा होगी क्योंकि यह इस पर निर्भर होता है कि उसके पास अपनी या संयुक्त रूप से कितनी संपदा है, उसकी जाति क्या है और जांच अधिकारी कितना कर्तव्यनिष्ठ है। 2018 के कठुआ केस पर गौर कीजिए। आठ वर्षीय आसिफा का अपहरण किया जाता है और मंदिर के भीतर बलात्कार करके हत्या कर दी जाती है। सात लोग गिरफ्तार किए जाते हैं, जिनमें से चार पुलिस अधिकारी हैं। किसी को भी मौत की सजा नहीं हुई।
इस केस का कौन सा पहलू सबसे जघन्य अपराध है? बच्चे की आयु? अपराध का स्थान? या फिर यह तथ्य कि कई लोग आरोपियों के समर्थन में रैलियां निकालते हैं? अथवा यह तथ्य कि पुलिसकर्मियों ने साजिश रची और उन्हें सिर्फ पांच साल की सजा हुई?
हम मानते हैं कि न्याय तब होता है जब हत्यारे को फांसी दे दी जाए। मौत होने के साथ मामला खत्म हो जाता है। इसके साथ ही यह कड़वा सच भी ढंक जाता है कि एक समाज में, जहां बार-बार और लगातार ऐसे अपराध हो रहे हैं, उसमें बड़ा बदलाव लाने की आवश्यकता है। हमने देखा है कि 2012 में यह ढर्रा छिन्न-भिन्न हो गया, निर्भया केस का दिल दहलाने वाला सच सब के सामने आया। बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर आ गए और इस बारंबारता को रोकने के लिए कड़े कदम उठाने की मांग करने लगे। आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और केस चलाकर आरोप साबित करने के बाद सात साल में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।
कुछ लोगों ने वीडियो डाले। मैं उन्हें नहीं देखना चाहती। मैं उन आरोपियों के बारे में और नहीं जानना चाहती। पहले ही यह भूलना मेरे लिए मुश्किल है कि वे जिंदा रहने के लिए छटपटा रहे थे और बार-बार अपील दायर कर रहे थे। मैं मानती हूं कि मुझे नहीं पता कि उनके साथ क्या होना चाहिए। 14 साल, 25 साल या फिर 50 साल की भी सजा न्यायोचित नहीं लगती। लेकिन यह भी सच है कि मैं किसी तरह राहत या खुशी महसूस नहीं करती। मैं डरती हूं, 2012 में जितना भयभीत थी, उससे भी ज्यादा घबराती हूं।
मैंने जिन घटनाओं का जिक्र किया है, वे अंग्रेजी प्रेस रिपोर्ट में आए महज चुनिंदा मामले हैं। इनमें से कुछ ‘जघन्यतम’ अपराध निर्भया केस में आरोपियों के गिरफ्तारी के बाद हुए। अपराधी फिर भी जघन्य अपराधों को अंजाम देने से बाज नहीं आए। मृत्यु दंड लगभग अंतिम निष्कर्ष माना जाता है। इसके बावजूद ‘जघन्यतम’ अपराध बार-बार हो रहे हैं। अकेले अथवा गैंग में लोग उसी तरह की बर्बरता दिखा रहे हैं जैसी उन्होंने निर्भया केस की मीडिया कवरेज से सुनी। एक भयावह तथ्य सामने आया कि अपराधी पीड़ित की हत्या करने का सुनिश्चित करते हैं।
उत्तर प्रदेश में 2019 के दौरान एक रिपोर्ट में पांच घटनाओं का उल्लेख किया गया, जिनमें बलात्कार की पीड़िताओं को जला दिया गया। ये घटनाएं उन्नाव, फतेहपुर, चित्रकूट, संभल में हुईं। बिहार में एक 16 वर्षीया का शव मिला, उसका सिर काट दिया गया और एसिड से जला दिया गया। इस वजह से उसकी पहचान भी मुश्किल थी। पुलिस ने इसे ऑनर किलिंग बताया लेकिन आम लोगों ने प्रदर्शन किया और दोषपूर्ण जांच का आरोप लगाया। तेलंगाना में वेटनरी डॉक्टर के साथ गैंग रेप किया गया और हत्या करके शव को जला दिया गया। जांच पूरी भी नहीं हो पाई थी कि पुलिस ने एक मुठभेड़ में आरोपियों को गोली मार दी। कहा गया कि आरोपियों ने भागने का प्रयास किया। हमसे अपेक्षा की गई कि हम इस घटना में पुलिस के बयान पर भी भरोसा कर लें।
आयशा मिरान केस पर भी गौर कीजिए। 2007 में विजयवाड़ा में 19 वर्षीय छात्रा का उसके हॉस्टल के बाथरूम में बलात्कार किया गया और हत्या कर दी गई। सत्यम बाबू नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया। उस पर पुलिस हिरासत से फरार होने का आरोप था लेकिन उसे तुरंत पकड़ लिया गया। निचली अदालत ने उसे 14 साल की सजा सुनाई, हालांकि उसे एक बीमारी थी जिसके कारण वह ठीक तरीके से चल नहीं सकता था। उसने पुलिस पर थर्ड डिग्री टॉर्चर का आरोप लगाया। उसे अदालत में सुनवाई के लिए उठाकर लाना होता था। पीड़िता का परिवार भी इससे सहमत नहीं था। उन्होंने कहा कि पुलिस ने बाबू को केस में फंसाया ताकि राजनीतिक रूप से दबंग एक अन्य व्यक्ति को बचा सके।
2017 में हाइकोर्ट के एक फैसले में बाबू को बरी कर दिया गया और आठ साल तक जेल में बेवजह रखने के लिए मुआवजा देने का भी आदेश दिया गया। सीबीआइ को इस मामले की जांच का आदेश दिया गया। 2019 में एक रिपोर्ट में कहा गया कि राजनीतिक रूप से ताकतवर व्यक्ति से पूछताछ की गई लेकिन गिरफ्तार नहीं किया गया। निश्चित ही उसे उस स्थान पर नहीं ले जाया गया जो न तो उसका घर था और न ही पुलिस स्टेशन जहां वह ऐसा कुछ करता जिसके कारण किसी को आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ती।
क्या होता अगर बाबू को मौत की सजा दे दी जाती या फिर मुठभेड़ में पुलिस द्वारा कथित तौर पर बच भागने के प्रयास करते समय उसे गोली मार दी जाती। और इस तरह न जाने कितने बलात्कारी पुलिस के उत्पीड़न और हिरासत में टूट जाते।
2017 में भारत में बलात्कार की प्रतिदिन 92 घटनाएं हुई थीं। बलात्कार पर समाचार पत्रों और टीवी पर प्रायः बहसें होती हैं, क्योंकि उनके साथ हत्या, बर्बरता और परिवार के साथ विश्वासघात भी जुड़ा होता है। लेकिन हिरासत में लड़कों के साथ होने वाले समलैंगिक बलात्कार और उत्पीड़न की वारदातें शायद ही कभी सुर्खियां बनती हैं। क्या इस वजह से कि इस तरह के अपराध जघन्य नहीं हैं या फिर हम इन्हें अपराध मानते ही नहीं हैं। और अगर यह अपराधियों को रोक सकता है तो फिर दंगों और सामूहिक हत्या के लिए मौत की सजा की मांग क्यों नहीं सुनाई देती है।
हम सब जानते हैं कि पुलिस, न्यायपालिका, नेता इनसान ही हैं। वे दुर्भावनाग्रस्त और अहंकारी हो सकते हैं, बदतर स्थिति में बलात्कारी और बर्बर हो सकते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि पश्चिमी जगत में वर्गवाद ने कैसे कानून प्रवर्तन एजेंसियों को अपने प्रभाव में ले लिया है। अमेरिका में सेंट्रल पार्क फाइव का केस बड़ी चेतावनी है। 1989 में पांच किशोरों पर एक श्वेत महिला के साथ बलात्कार का आरोप लगता है। उन्हें इतना पीटा जाता है कि उनकी मौत हो जाती है। 2002 में वास्तविक बलात्कारी ने जब यह जुर्म कबूला तो वे पांचों निर्दोष साबित हुए।
हम किसी की जिंदगी को छीनने में जल्दबाजी दिखाते हैं क्योंकि हम मानते हैं कि पुरुष दोषी होते हैं। हम न्याय पर जोर नहीं देते हैं। कहा जा सकता है कि हम अपनी सीमाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं। हम भगवान नहीं हैं। हम कोई जीवन वापस नहीं ला सकते हैं। अगर किसी निर्दोष को सजा देने पर हमें कोई पछतावा नहीं होता है तो फिर कहने को कुछ नहीं बचता है।
(लेखिका मुंबई स्थित कवियत्री, नाटककार, कहानीकार और रिपोर्ताज लेखक तथा निबंधकार हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)
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अगर फांसी से अपराध रुकता है और अपराधियों पर अंकुश लगता है, तो दंगों के दोषियों के लिए मृत्युदंड की मांग क्यों नहीं की जाती?