मेरो मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै।
सूरदास की इन पंक्तियों के पंछी की तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिर से अपने पुराने ‘जहाज’ पर अपना सियासी सफर जारी रखने के लिए लौट चुके हैं। बीते 27 जनवरी को उन्होंने लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल और राहुल गांधी के कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़ कर भाजपा के साथ अपने संबंधों को पुनः बहाल कर लिया। वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने रहेंगे। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले वे महागठबंधन सरकार के मुखिया थे, अब वे राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चा (एनडीए) हुकूमत के सिरमौर होंगे। सत्ता का यह अनूठा हस्तांतरण बिलकुल सहज तरीके से हो गया। न हींग, न फिटकरी, उनकी राजनीति का रंग हर बार की तरह चोखा ही रहा। मुख्यमंत्री वही रहे, बस उनके सहयोगी बदल गए। जो विपक्षी दल कल तक उन पर सदन और सदन के बाहर हमलावर रहते थे, वे उनके कसीदे पढ़ने लगे और जो सहयोगी रोज उनकी हां में हां मिलाते थे, उन्हें विधानसभा में प्रतिपक्ष के लिए आरक्षित मेजों का रुख करना पड़ा। इस घटना ने देश की राजनीति पर नजर रखने वालों को भौंचक्का कर दिया लेकिन इस पूरे प्रकरण के केंद्रीय पात्र नीतीश कुमार के लिए यह उतना ही स्वाभाविक था जितना उनके लिए तमाम राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बना रहना। आखिरकार, यह नौंवां मौका था जब उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। यह अपने आप में एक रिकॉर्ड है और जैसा कि प्रदेश के एक कांग्रेसी नेता ने कहा, गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल होने की हकदार है।
नीतीश परिक्रमाः पटना में पिछले साल विपक्षी नेताओं के साथ
नीतीश पहली बार भाजपा के समर्थन से 2000 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन बहुमत के अभाव में उन्हें महज सात दिन बाद ही इस्तीफा देना पड़ा। यह वह दौर था जब नीतीश की समता पार्टी भाजपा के साथ मिलकर प्रदेश की सत्ता में 1990 से काबिज लालू प्रसाद की पार्टी को हराने की जद्दोजहद में जुटी थी। इस लक्ष्य की प्राप्ति आखिरकार उन्हें नवंबर 2005 के विधानसभा चुनाव में मिली जब नीतीश के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बिहार में बनी। बिहार और एनडीए के लिए अगले सात साल ‘स्वर्णिम काल’ थे जब जदयू और भाजपा ने गठबंधन धर्म का आदर्श प्रस्तुत करते हुए प्रदेश में विकास को तेज गति दी। लेकिन, 2013 आते-आते स्थितियां बदल गईं जब भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी के हाथों से गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पास जाने लगा। मोदी-विरोधी नीतीश के लिए यह गंवारा न था।
मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने लालू के मुस्लिम-यादव (एम-वाय) समीकरण को चुनाव में ध्वस्त करने के लिए अल्पसंख्यकों के लिए कई विशेष योजनाएं चलाईं। 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा के चुनावों में उन्हें इसके सकारात्मक परिणाम मिले। उन्हें लगा कि 2014 के आम चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी के एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनते ही मुस्लिम मतदाता फिर से जदयू से दूरियां बना लेंगे, लेकिन नीतीश की चिंता से इतर भाजपा में शीर्ष स्तर पर नेतृत्व बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। मोदी के भाजपा के सर्वेसर्वा बनने की महज औपचारिकता पूरी होनी शेष थी। नतीजतन, नीतीश ने भाजपा से सत्रह वर्ष पुराने संबधों को एक झटके में तोड़ दिया।
दरअसल, 2005 से 2013 तक नीतीश ने अटल बिहारी वाजपेयी-अाडवाणी काल में भाजपा शीर्ष नेतृत्व को यह कहकर बिहार में मोदी की एक भी चुनावी रैली नहीं होने दी कि इसका उनके चुनावी परिणामों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। उनका मानना था कि 2002 के गुजरात दंगे के कारण मुस्लिम मोदी के खिलाफ थे और उनके आने से इन मतदाताओं का एकमुश्त वोट लालू की पार्टी को मिल सकता है। 2010 में गठबंधन में रहते हुए नीतीश ने पटना में आयोजित भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान पार्टी के शीर्ष नेताओं के लिए आयोजित रात्रिभोज को सिर्फ इसलिए रद्द कर दिया कि वे नहीं चाहते थे कि मोदी उस भोज का हिस्सा बनें। यही नहीं, उन्होंने मोदी की गुजरात सरकार द्वारा 2008 के कोशी बाढ़ विभीषिका के लिए मुख्यमंत्री राहत कोष के लिए भेजे गए पांच करोड़ रुपये का चेक वापस कर दिया। भाजपा की बैठक के दौरान पटना के समाचार-पत्रों में नीतीश की मोदी के साथ एक तस्वीर प्रकाशित हुई थी जो उससे पहले लुधियाना में एनडीए की एक रैली के दौरान की थी, जिससे वे बेहद खफा थे।
बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
उधर, भाजपा के बदलते दौर में मोदी की लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ने लगी और प्रदेश के अश्वनी चौबे और गिरिराज सिंह जैसे भाजपा नेता नीतीश के मोदी-विरोध के खिलाफ अपनी आवाज को मुखर करने लगे।
नीतीश का भाजपा के साथ संबंध बिहार के 1995 विधानसभा चुनाव के बाद स्थापित हुआ था जिसमें लालू यादव ने शानदार जीत के साथ अपनी सत्ता बरकरार रखी थी। उस चुनाव में नीतीश की समता पार्टी को 324 सीट में महज सात सीट पर विजय मिली थी। 1990 में अपने पटना विश्वविद्यालय के छात्र दिनों के साथी लालू के मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती तीन साल नीतीश उनके साथ थे, लेकिन बाद में उनके बीच मतभेद होने लगे और नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी का गठन किया। चुनाव हारने के कुछ दिनों बाद नीतीश जॉर्ज फर्नांडिस को देखने मुंबई गए जहां वे उन दिनों जसलोक अस्पताल में इलाज करा रहे थे। वहां उनकी मुलाकात आडवाणी से हुई जिन्होंने उन्हें वहां आयोजित भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में आने का निमंत्रण दिया। भाजपा के लिए यह एक राजनैतिक निर्णय था। बिहार में लालू से टक्कर लेने के लिए भाजपा को जमीन से जुड़े एक पिछड़ी जाति के नेता की तलाश थी और उन्हें लगा कि लालू को सत्ताच्युत करने के लिए नीतीश सबसे अच्छा विकल्प हैं। भाजपा और नीतीश का उसके बाद संबंध 17 वर्षों तक चला।
भाजपा में मोदी के नेतृत्व के सवाल पर अलग होने के बाद नीतीश मुख्यमंत्री बने रहे और सीपीआइ के साथ उन्होंने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा जिसमें उनकी पार्टी जदयू का बेहद खराब प्रदर्शन रहा। गौरतलब है कि 2003 में समता पार्टी और शरद यादव की जनता दल का विलय हो गया था। जदयू को 2014 के आम चुनाव में महज दो सीट पर विजय मिली जबकि उससे पहले 2009 के चुनावों में उसे 20 सीट पर जीत मिली थी। उस चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद नीतीश ने हार का नैतिक जिम्मा लेते हुए त्यागपत्र दे दिया और अपने सहयोगी नेता जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। नौ महीने बाद ही वे पुनः मुख्यमंत्री बन गए जब मांझी स्वतंत्र रूप से सरकार के फैसले लेने लगे। चर्चा यह भी थी कि मांझी भाजपा से करीब होने लगे थे जो नीतीश को नागवार गुजरा।
उसके बाद 2015 के विधानसभा चुनाव में जदयू, राजद और कांग्रेस के महागठबंधन ने शानदार बहुमत हासिल किया। परिस्थितियों को भांप कर इस चुनाव में नीतीश ने राजद के साथ गठबंधन तो किया, लेकिन उन्होंने शर्त रखी कि चुनाव पूर्व ही उनका नाम गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित किया जाए। लालू इसके लिए राजी हो गए। इसलिए राजद के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद नीतीश मुख्यमंत्री बने रहे और लालू के छोटे बेटे तेजस्वी प्रसाद यादव को उप-मुख्यमंत्री पद से संतोष करना पड़ा, हालांकि यह गठबंधन के भीतर जल्द ही दोनों के बीच टकराव का कारण बना। गठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी के मुखिया लालू प्रसाद पर सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप के आरोप भी लगने लगे जो नीतीश को गंवारा न था। अंततः चुनाव के डेढ़ वर्ष बाद उनका संबंध विच्छेद हो गया जब भाजपा के सुशील मोदी ने उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी समेत लालू परिवार के कई सदस्यों पर प्रेस कॉन्फ्रेंस करके भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए। नीतीश ने तेजस्वी से उन आरोपों पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने को कहा और जल्द ही राजद से गठबंधन तोड़ कर भाजपा के साथ फिर सरकार बना ली। इस बार भी वे मुख्यमंत्री बने रहे।
पटना में ईडी पूछताछ से बाहर निकले लालू प्रसाद
नीतीश ने भाजपा के साथ 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव जीता, लेकिन केंद्र में मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार सरकार बनने के पूर्व ही भाजपा के साथ उनके संबंधों में खटास आने लगी। जदयू को लोकसभा की 16 सीट पर जीत मिली थी और नीतीश अपनी पार्टी के लिए कम से कम दो काबिना मंत्री का पद चाहते थे, लेकिन भाजपा ने- जिसे अपने बलबूते स्पष्ट बहुमत मिला था- अपने सभी सहयोगियों को एक ही सीट देने का निर्णय किया था। नीतीश अपने सांसदों आरसीपी सिंह और ललन सिंह के लिए मंत्री पद चाहते थे लेकिन सिर्फ एक पद मिलने के कारण उन्होंने मोदी मंत्रिमंडल का हिस्सा न बनने का निर्णय किया, हालांकि बाद में आरसीपी मंत्री बन गए। कहा जाता है कि उन्होंने यह नीतीश की इच्छा के विरुद्ध किया। आरसीपी पर यह भी आरोप लगे कि उनकी भाजपा से नजदीकियां बढ़ गईं हैं। इसी कारण कभी नीतीश के सबसे विश्वासपात्र रहे आरसीपी को जदयू से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। जदयू-भाजपा संबंधों में दरार उसके बाद और चौड़ी हो गई जब भाजपा ने अरुणाचल प्रदेश में जदयू के छह विधायकों को अपने पाले में कर लिया। जदयू ने इस कदम को गठबंधन धर्म के खिलाफ कहा।
2020 का विधानसभा चुनाव नीतीश ने भाजपा के साथ लड़ा, लेकिन तब तक दोनों के बीच अविश्वास की खाई और गहरी हो चुकी थी। उस चुनाव में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा और जदयू के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े किए। चिराग ने भाजपा के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए। परिणामस्वरूप जदयू को भारी नुकसान चुकाना पड़ा। पार्टी के आकलन के अनुसार 36 सीटों पर उसे चिराग के कारण हार मिली। जदयू मात्र 43 सीट पर सिमट गई। उस चुनाव में भाजपा को 74 सीटों पर जीत मिली जबकि राजद 75 सीट के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आई। नीतीश को भी लगा कि चिराग को भाजपा की शह पर जान-बूझ कर उनके खिलाफ उतारा गया था ताकि उनकी स्थिति प्रदेश में कमजोर की जा सके। इसका यह परिणाम हुआ कि भाजपा के साथ गठबंधन में अब उनकी हैसियत ‘छोटे भाई’ की हो गई। वे मुख्यमंत्री तो बने रहे लेकिन दो-दो उप-मुख्यमंत्रियों के साथ (तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी) भाजपा का प्रभाव और दखल उनकी सरकार में बढ़ गया। इस बीच यह भी खबर फैली कि भाजपा आरसीपी के माध्यम से जदयू को तोड़ कर उनके कुछ विधायकों को अपने पाले में कर बिहार में सरकार बनाना चाहती है। भाजपा ने इसका खंडन किया, लेकिन 2022 में नीतीश ने महागठबंधन में जाने का निर्णय ले लिया। अब, उसके लगभग डेढ़ साल बाद, वे एनडीए में फिर से शामिल हो गए और नौवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।
ललन सिंह
नीतीश के लगातार खेमे बदलने के कारण लालू ने पहले ही उन्हें ‘पलटू राम’ की संज्ञा दी थी। इस बार उनके विरोधी उन्हें अवसरवादी और गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला नेता कह रहे हैं जिनके लिए सत्ता में येन-केन-प्रकारेण मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहना उनकी लोहिया और जेपी से प्रेरित राजनीतिक विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण है। नीतीश ऐसा करने में कुछ रणनीति और कुछ अनुकूल राजनीतिक परिस्थितियों के कारण सफल रहे हैं। यही कारण है कि पिछले नौ वर्षों से विधानसभा में अलग-अलग गठबंधनों में जदयू के दूसरे नंबर की पार्टी होने के बावजूद वे मुख्यमंत्री बने रहे। इसकी सबसे प्रमुख वजह बिहार में चुनाव दर चुनाव के परिणाम रहे हैं।
बिहार में राजद और भाजपा एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे हैं। लालू अपने ‘माय’ समीकरण के कारण भाजपा के साथ कभी नहीं जा सकते और भाजपा की पूरी राजनीति ही बिहार को लालू प्रसाद के कथित जंगलराज से मुक्ति दिलाने के नारे के इर्द-गिर्द घूमती रही है। जाहिर है दोनों पार्टियां एक-दूसरे की दुश्मन नंबर वन हैं, लेकिन हाल के चुनावों में जनादेश ही ऐसे आते रहे कि बिना नीतीश को अपने कैंप में लिए हुए दोनों में से कोई भी पार्टी सरकार नहीं बना सकती। इसलिए 2015 में राजद से नौ सीट और 2020 में भाजपा से 31 सीट कम होने के बावजूद नीतीश दोनों बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे। स्पष्ट है कि भाजपा और लालू एक-दूसरे को सत्ता से बाहर रखने की होड़ में नीतीश पर निर्भर रहे हैं जिसका फायदा जदयू सुप्रीमो को लगातार मिलता रहा है।
ऐसा नहीं है कि नीतीश की स्वतंत्र रूप से अपनी राजनैतिक ताकत नहीं रही है। 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने धीरे-धीरे अपनी राजनैतिक शक्ति विकास को आधार बनाकर बढ़ाई। अपने पहले पांच साल के कार्यकाल में उनकी सरकार द्वारा किए गए कार्यों के कारण उन्हें ‘विकास पुरुष’ और ‘सुशासन बाबू’ जैसी उपाधियां मिलीं। कानून व्यवस्था में लगातार गिरावट के कारण हमेशा बदनाम रहे बिहार में उन्होंने कानून का राज बहाल किया। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए नए कानून बनाए जिसके फलस्वरूप भ्रष्ट लोकसेवकों के खिलाफ चल रहे केस की सुनवाई दौरान उनकी चल-अचल संपत्ति को जब्त किया गया। कुछ आरोपी आइएएस-आइपीएस अधिकारियों के घरों को भी जब्त कर वहां बच्चों के लिए स्कूल खोले गए। इसके अलावा, बाहुबली नेताओं के खिलाफ मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए विशेष अदालत की स्थापना की गई और उन्हें लंबे समय के लिए जेल भेजा गया। बिजली, सड़क और पानी के समस्या को दूर करने के लिए भी प्रभावी कदम उठाए गए, हालांकि विकास कार्यों को संपादित करते हुए नीतीश राजनीति नहीं भूले। महिलाओं के लिए पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत सीट आरक्षित किया, पुलिस की नौकरियों में भी उनके लिए 35 फीसदी आरक्षण रखा और शराबबंदी जैसा साहसिक निर्णय लिया। नतीजतन, उन्हें महिलाओं का अभूतपूर्व समर्थन मिला। इसके अतिरिक्त, ओबीसी और अतिपिछड़ा वर्ग के लिए विशेष कल्याणकारी योजनाओं को शुरू किया। मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए कब्रिस्तानों की घेराबंदी और उनके मेधावी छात्रों को वजीफे देने की शुरुआत की। जाहिर है, ऐसा उन्होंने लालू यादव की मुस्लिम मतदाताओं में पैठ को कम करने के लिए किया। उन्होंने दुसाध (पासवान) को छोड़कर बिहार की बाकी सभी 21 दलित जातियों को महादलित का नाम देकर उनके उत्थान के लिए विशेष आयोग का गठन किया, जिसे रामविलास पासवान का दलितों में प्रभाव कम करने का कदम कहा गया।
यही नहीं, पिछले वर्ष राज्य में जाति सर्वे करवाकर और उसके अनुरूप आरक्षण बढ़ाने की दिशा में भी काम किया।
उल्लेखनीय है कि नीतीश ने विकास कार्य और राजनीति हमेशा अपने हिसाब से की। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि वे किस पार्टी के साथ किस गठबंधन में हैं। यही कारण है उनका समय-समय पर अपने गठबंधन सहयोगियों से टकराव भी हुआ। लगातार पाला बदलने के बावजूद वे बिहार के विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते रहे। यही कारण है उनकी काम करने वाले मुख्यमंत्री की छवि बनी रही। आम लोगों में उनके प्रति धारणा एक ईमानदार मुख्यमंत्री की बनी और उनके कार्यकाल में सृजन घोटाला और मुजफ्फरपुर बालिका गृह जैसे स्कैंडल होने के बावजूद उनकी आंच उन तक नहीं पहुंची।
दिलचस्प यह भी है कि नीतीश बार-बार कहते रहे हैं कि अपराध, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता पर उनकी नीति जीरो टॉलरेंस की है, लेकिन उनके विरोधी उन पर राजद और भाजपा के साथ बारी-बारी सरकार चलाने के कारण इन मुद्दों पर समझौता करने का आरोप लगाते रहे हैं। इसके बावजूद उनके राजनैतिक करियर पर इसका प्रभाव नहीं के बराबर पड़ा है। अब नौवीं बार शपथ लेकर उन्होंने फिर सिद्ध किया है कि राजनीति में युद्ध और प्रेम की तरह सब जायज है, भले ही इससे उनकी विश्वनीयता पर ढेरों सवाल फिर से उठ रहे हैं।
इस बार उन्होंने पालाबदल क्यों किया, इसकी कई व्याख्याएं हो रही हैं। स्वयं नीतीश के अनुसार राजद के साथ गठबंधन में स्थितियां उनके लिए सहज नहीं थीं। सूत्रों की मानें, तो उन पर तेजस्वी को मुख्यमंत्री पद सौंप देने का दबाव था। कहा जाता है 2022 में राजद और जदयू के बीच एक अलिखित समझौता हुआ था कि 2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व मोदी को चुनौती देने के लिए नीतीश केंद्रीय राजनीति का रुख करेंगे और बिहार की बागडोर तेजस्वी के हाथों में दे देंगे। नीतीश ने स्वयं कई बार कहा कि तेजस्वी भविष्य में नेतृत्व संभालेंगे। नीतीश ने पिछले साल सभी भाजपा-विरोधी पार्टियों को ‘इंडिया’ गठबंधन के साझा मंच पर लाने में प्रमुख भूमिका निभाई, लेकिन इस गठबंधन के सहयोगी दलों, खासकर कांग्रेस से उन्हें निराशा हाथ लगी। उन्हें संभवतः उम्मीद थी कि उन्हें इस गठबंधन का अगुआ घोषित किया जाएगा, लेकिन पटना में आयोजित इसकी मीटिंग में लालू द्वारा मोदी के खिलाफ लड़ाई में राहुल गांधी को इस अभियान का ‘दूल्हा’ और बाकी दलों को उनका बाराती बनने की बात शायद उन्हें पसंद नहीं आई। नीतीश ने हालांकि हमेशा इस बात पर बल दिया है कि उन्हें किसी पद की आकांक्षा नहीं रही है, लेकिन उन्हें करीब से जानने वाले इस बात को जोर देकर बताते रहे हैं कि वे ही विपक्ष के सबसे अच्छे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होते। जाहिर है ‘इंडिया’ गठबंधन के बाकी सहयोगियों ने उनसे इत्तेफाक नहीं रखा।
यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश के अपने दल के भीतर ही उनकी पार्टी को तोड़ने की साजिश हो रही थी। कुछ माह पूर्व यह चर्चा जोरों पर थी कि उनके करीबियों में से एक ललन सिंह राजद के संपर्क में थे। हाल में ही उन्हें जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से हटाकर नीतीश स्वयं पार्टी सुप्रीमो बन गए। राजनैतिक हलकों में एक और संभावना व्यक्त की जा रही है कि नीतीश को यह एहसास हो चला था कि मोदी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं और उनके लिए राजनीतिक रूप से यही बेहतर है कि उनसे फिर हाथ मिला लें। हाल में अयोध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के दौरान जनभावना को देख कर उनका यह विश्वास और पुख्ता हो गया। नीतीश को अगर भाजपा से हाथ मिलाने की जरूरत थी तो भाजपा के लिए भी यह राजनैतिक रूप से फायदे का सौदा रहा। पिछले लोकसभा चुनाव में एनडीए को बिहार की 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल हुई थी और राजद को एक भी सीट नसीब नहीं हुई। 2022 में नीतीश के महागठबंधन में जाने के बाद एनडीए के लिए 2019 के परिणाम की पुनरावृत्ति 2024 में करना मुश्किल प्रतीत हो रहा था। नीतीश के फिर से आने के बाद एनडीए की स्थिति बिहार में मजबूत हुई है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन नीतीश के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए क्या कहा जा सकता है कि यह उनके लिए आखिरी गठबंधन-बदल है? स्वयं नीतीश ने इस बार जोर देकर कहा है कि वे अब कहीं नहीं जाने वाले, लेकिन जैसा भाजपा नेता और नीतीश के करीबी सुशील मोदी का कहना है, ‘राजनीति में दरवाजे कभी बंद नहीं होते।’
बात सही भी है। पहली बार भाजपा का साथ छोड़ने के बाद नीतीश ने आरएसएस-मुक्त भारत बनाने का संकल्प लिया था और यह भी कहा था कि वे मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन भाजपा में वापस नहीं जाएंगे। उसके बाद उन्होंने भाजपा से दो बार हाथ मिलाया है। भाजपा ने भी 2022 में कहा था कि उसके दरवाजे नीतीश के लिए सदा के लिए बंद हो चुके हैं। दिलचस्प है कि 2017 के बाद तेजस्वी ने भी कहा था कि उनकी पार्टी अब ‘पलटू चाचा’ के साथ कभी गठबंधन नहीं करेगी, लेकिन दोनों फिर साथ आए। इसीलिए यह कहना मुश्किल है कि यह नीतीश का अंतिम राजनीतिक पड़ाव है- ठीक वैसे ही यह कहना कि उनके साथ राजद का यह अंतिम गठबंधन था।