पिछले कई वर्षों से देश के विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के खिलाफ तथाकथित ‘राष्ट्रवादियों’ ने विद्वेषपूर्ण घृणा अभियान छेड़ा हुआ है, और उसे ‘देशद्रोहियों का अड्डा’ बताकर उसकी साख को गिराने की निरंतर कोशिशें की जा रही हैं। ये तथाकथित ‘राष्ट्रवादी’ कभी तथ्यों की ओर ध्यान नहीं देते, इसलिए उन्होंने कभी यह जानने की जहमत नहीं उठाई कि एक ऐसे विश्वविद्यालय ने, जिसे उनकी राय में बंद कर दिया जाना चाहिए, कैसे कई केंद्रीय मंत्री, सांसद, आला दर्जे के अफसर और अनेक अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान तैयार किए। वर्तमान सरकार में भी वित्त और विदेश जैसे दो अत्यंत महत्वपूर्ण मंत्रालय इसी विश्वविद्यालय में पढ़े हुए व्यक्तियों के पास हैं। लेकिन 2016 में अंग्रेजी दैनिक द पाॅयोनियर के संपादक चंदन मित्र, जो उस समय भारतीय जनता पार्टी के सांसद थे और इन दिनों पाला बदल कर तृणमूल कांग्रेस के साथ हो गए हैं, ने बाकायदा लेख लिखकर मांग की थी कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को ताला लगा दिया जाए।
अब अभिजीत बनर्जी को अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार मिलने से एक बार फिर जेएनयू चर्चा के केंद्र में आ गया है, इसी के साथ शिक्षा और उसके उद्देश्य, शिक्षा संस्थानों का स्वरूप और छात्र राजनीति की दशा-दिशा पर भी चर्चा शुरू हो गई है। यहां याद दिला दें कि 1983 में जेएनयू में हुए कुलपति-विरोधी आंदोलन में गिरफ्तार हुए छात्रों में अभिजीत बनर्जी भी शामिल थे और अपने साथियों के साथ उन्होंने भी बारह दिन तिहाड़ जेल में गुजारे थे। हाल ही में दिवंगत अरुण जेटली हों या उनकी उत्तराधिकारी निर्मला सीतारमण, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, सभी छात्र राजनीति में सक्रिय रहे हैं। पुरानी पीढ़ी के नेताओं में भी चाहे चंद्रशेखर हों या नारायण दत्त तिवारी या हेमवतीनंदन बहुगुणा, अधिकांश नेता छात्र राजनीति के गर्भ से ही निकले थे। लेकिन इन दिनों एक अजीब-सा तर्क सुनने को मिलता है, वह यह कि छात्रों को केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए और शिक्षा संस्थान राजनीति के अड्डे नहीं बनने चाहिए। यह तर्क अब लगभग सभी पर लागू किया जाने लगा है। मसलन, पत्रकारों को केवल निष्पक्ष पत्रकारिता करनी चाहिए, शिक्षकों को पढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए, अभिनेता-अभिनेत्री हैं तो नाचें-गाएं, राजनीति में क्या करने आए हैं वगैरह-वगैरह। इसका निहितार्थ यह है कि राजनीति केवल पेशेवर राजनीतिकों के लिए छोड़ दी जानी चाहिए, ताकि वे बिना किसी रोक-टोक के मनमानी और स्याह-सफेद करने के लिए स्वतंत्र रहें।
बुद्धि-विरोधी, विचार-विरोधी और बुद्धिजीवी-विरोधी माहौल तैयार करना हर प्रकार की एकाधिकारवादी फासिस्ट विचारधारा और उससे संचालित होने वाली राजनीति का पहला काम होता है, क्योंकि झूठ और अर्ध-सत्य पर आधारित यह राजनीति विवेकवाद-विरोधी वातावरण में ही फल-फूल सकती है। इसका लक्ष्य केवल अनुयायी और भक्त तैयार करना है, हर बात की जांच-परख करके उस पर विवेक आधारित आलोचनात्मक राय बनाने और जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय और सार्थक हस्तक्षेप करने वाले लोग नहीं। शिक्षा का उद्देश्य भी छात्रों का सर्वांगिक शारीरिक और बौद्धिक विकास नहीं, केवल नौकरी पा सकने और सामाजिक-आर्थिक तंत्र का पुर्जा बन सकने की योग्यता रखने वालों को तैयार करना समझा जाता है। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि हाऊडी-हाऊडी पर न्योछावर होने वाले लोग सोशल मीडिया पर अभिजीत बनर्जी के खिलाफ लिखने में जुट गए हैं। ऐसे ही लोग नोबेल पुरस्कार से अलंकृत एक दूसरे भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के खिलाफ विषवमन किया करते थे। गौरतलब बात यह है कि इन दोनों ही अर्थशािस्त्रयों ने गरीबी का अध्ययन करने और उसके उन्मूलन के लिए कारगर उपाय ढूंढ़ने पर अपना शोध केंद्रित किया है।
देश से प्यार करने वाले सभी देशप्रेमियों को गंभीरता से सोचना चाहिए कि जिस विश्वविद्यालय ने नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने की योग्यता अर्जित करने वाले छात्र को शिक्षित-दीक्षित किया, आज उसी को नष्ट करने की कोशिशें क्यों की जा रही हैं और इन कोशिशों में कुलपति एम. जगदीश कुमार क्यों सक्रिय और उत्साहपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? अन्य विश्वविद्यालयों को भी क्यों स्वतंत्र चिंतन को प्रोत्साहन देने वाले विद्यापीठों के बजाय सरकारी विभागों में तब्दील किया जा रहा है?
हाल ही में वर्धा में महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने राष्ट्रपिता के आदर्शों और जीवन-मूल्यों के पूरी तरह खिलाफ जाकर प्रधानमंत्री के नाम पत्र लिखने और उसके लिए एक सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित करने का प्रयास करने वाले छात्रों को तत्काल निष्कासित करने का तानाशाही फरमान जारी कर दिया। किसी भी विद्यार्थी के भविष्य के लिए निष्कासन का क्या अर्थ होता है, यह किसी से छुपा नहीं है।
प्रधानमंत्री को पत्र लिखना कब से इतना बड़ा अपराध हो गया कि इसके लिए छात्रों को विश्वविद्यालय से निष्कासित किया जाए? लेकिन इन दिनों सभी शिक्षा संस्थानों को नौकरशाही के तरीकों और नियम-कायदों से चलाया जा रहा है और उनमें काम कर रहे कर्मचारियों, शिक्षकों और छात्रों को नौकरशाही की लाठी से हांका जा रहा है। आश्चर्य नहीं कि इस समय जेएनयू में बहुत बड़ी संख्या में शिक्षक विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा जारी ‘कारण बताओ’ नोटिसों और अदालत में चल रहे मामलों का सामना कर रहे हैं।
यहां जेएनयू केवल एक उदाहरण है। दूसरे विश्वविद्यालयों में भी यही सब जारी है। देश भर में शिक्षा के निजीकरण की कोशिशें हो रही हैं, और सरकारी धन से चलने वाले स्तरीय संस्थानों को ध्वस्त करने की कोशिशें निजी संस्थानों के लिए जगह बनाने की कोशिशों का अंग हैं। इन कोशिशों का हर स्तर पर विरोध होना चाहिए। अभिजीत बनर्जी की उपलब्धि पर उन्हें बधाई देने का यही सर्वोत्तम तरीका होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)