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8 जनवरी 2023 · JAN 08 , 2024

नए सिपहसालारः पीढ़ी क्या बदल रही

राजनैतिक फलक पर नेताओं की नई पांत की आमद
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव

अमूमन हर चुनाव कुछ नए नेतृत्व के लिए दरवाजे खोलता है, लेकिन 2023 के आखिर में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कुछ हटकर साबित हुए और राजनीति के चेहरों के मामले में नई इबारत लिख गए। ईवीएम मशीनों से चौंकाऊ जनादेश ही नहीं, बल्कि नए नेता भी ऐसे उभरे कि हैरान कर गए। कुछ एक हद तक प्रत्याशित थे तो कुछ बेहद अप्रत्याशित, इस कदर कि उनकी जानकारियां खंगालनी पड़ीं। सबमें बस यही समानता है कि पांचों राज्यों के मुखिया राजनैतिक परिदृश्य में अपनी नई अहमियत का एहसास करा रहे हैं।

पूर्वोत्तर के मिजोरम में पहली बार बतौर पार्टी चुनाव मैदान में उतरे जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) की अच्छी-खासी जीत के बाद राज्य की बागडोर संभाल रहे 71 वर्षीय ललदुहोमा के अलावा तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश के नए मुख्यमंत्री उम्र के छठवे दशक में हैं, जो राजनीति में अपेक्षाकृत युवा उम्र ही कहलाती है। 1987 में वजूद में आए मिजोरम में गद्दी अब तक मिजो नेशनल फ्रंट और कांग्रेस के बीच ही बारी-बारी से बंटती रही है। इस मायने में ललदुहोमा का उदय भी नया है।

तेलंगाना में 54 वर्षीय ए. रेवंत रेड्डी इस मायने में प्रत्याशित थे कि बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष उन्होंने अजेय-से के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) की पराजय के करिश्माई अभियान की अगुआई की थी लेकिन कई पार्टियां बदलने और 2017 में ही कांग्रेस में आने के कारण राज्य पार्टी में उनका विरोध भी काफी था। कांग्रेस नेतृत्व का उनके पक्ष में फैसला पीढ़ीगत बदलाव का इशारा है।

लेकिन पीढ़ीगत बदलाव की सबसे चौंकाऊ पहल तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में दिखी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तथा भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की अगुआई में पार्टी ने छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्‍थान में ऐसे चेहरों को आगे बढ़ाया, जिनके बारे में शायद ही कोई कयास लगा पाया था। छत्तीसगढ़ में 69 वर्षीय विष्‍णुदेव साय लंबे समय से पार्टी के आदिवासी चेहरा थे मगर ऊंची कुर्सी की दावेदारी में कहीं नहीं थे। इस बार आदिवासी बहुल सीटों पर भाजपा की बड़ी जीत से शायद फैसला उनके पक्ष में गया, जबकि पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और दूसरे वरिष्ठ नेताओं को संदेश मिल गया। मध्य प्रदेश में 58 वर्षीय मोहन यादव का चयन शायद राज्य में चार बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और कई वरिष्ठ दावेदारों को हक्का-बक्का कर गया। संघ की पृष्ठभूमि का ओबीसी होना तीन बार के विधायक के पक्ष में गया। सबसे हैरतनाक चयन तो राजस्‍थान में पहली बार के विधायक 56 वर्षीय भजनलाल शर्मा का है। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का चेहरा मंच पर नाम की पर्ची देखकर तन गया था।

कांग्रेस भी हिंदी पट्टी में हार के बाद पार्टी की कमान युवाओं को सौंपने जा रही है। मध्य प्रदेश की कमान कमलनाथ के बदले युवा जीतू पटवारी को दी गई। तो, पुरानी पीढ़ी की विदाई की वेला है या सियासी संकेत कुछ और हैं। जो भी हो, यह एक मायने में लोकतंत्र की महिमा है तो केंद्रीकरण के पैमाने पर लोकतंत्र का संकुचन भी है।

मध्य प्रदेश में ओबीसी चेहरा

भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश कार्यालय के लॉन में 11 दिसंबर की दोपहर नव-निर्वाचित विधायकों के ‘फोटो सेशन’ और उसके बाद विधायक दल की बैठक होनी थी। पहली कतार में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पद के दावेदार सभी बड़े नेता केंद्रीय पर्यवेक्षकों के साथ बैठे थे। फोटो सेशन के बाद तीसरी कतार में तीसरी बार विधायक बने मोहन यादव थे। लेकिन कुछ ही मिनटों बाद वे पहली कतार के सबसे प्रमुख नेता हो गए। उज्जैन (दक्षिण) के 58 वर्षीय विधायक को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने न सिर्फ चौंकाया, बल्कि राज्य में पार्टी के सभी स्थापित नेताओं को पीढ़ीगत बदलाव का फरमान सुना दिया और विपक्ष के ओबीसी मुद्दे की धार कुंद करने की रणनीति आगे बढ़ा दी। यादव ओबीसी वर्ग से है और प्रदेश में तकरीबन आधे वोटर इसी वर्ग के हैं।

मोहन यादव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से करीब 14 वर्ष की उम्र में ही जुड़ गए थे। बाद में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में प्रदेश के विभिन्न पदों पर रहे। महाकाल की नगरी उज्जैन में 25 मार्च 1965 को जन्मे मोहन यादव का शहर प्रदेश के मालवा क्षेत्र में है, जो भाजपा का गढ़ माना जाता है। उनकी पढ़ाई-लिखाई भी अच्छी है। वे बी.एससी, एलएलबी, एमए, एमबीए और पी.एचडी हैं। वे 2013 में पहली बार उज्जैन दक्षिण से विधायक बने और 2018 और अब 2023 में जीत का सिलसिला कायम रख पाए। 2020 में वे शिवराज सिंह चौहान की सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री बनाए गए लेकिन उनकी छवि हमेशा चुपचाप काम करने वाले ‘लो प्रोफाइल’ नेता की रही है। बतौर उच्च शिक्षा मंत्री मध्य प्रदेश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सफल क्रियान्वयन और प्रदेश में 54 नए महाविद्यालय खोलने का उन्हें श्रेय दिया जाता है। उनके परिवार के लोग भी राजनीति में हैं। उनकी एक बहन कलावती यादव उज्जैन नगर निगम की अध्यक्ष हैं। परिवार पर उज्जैन में सिंहस्थ पथ में जमीन संबंधी अनियमितताओं के भी आरोप हैं।

उनके मुख्यमंत्री बनने से लगभग चार दशक बाद प्रदेश का नेतृत्व मालवा अंचल में वापस आया है। इससे पहले 20वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में इस क्षेत्र से वीरेंद्र कुमार सखलेचा, कैलाश जोशी और सुंदरलाल पटवा प्रदेश का नेतृत्व कर चुके हैं। लेकिन 2003-2023 के बीच रहे तीनों मुख्यमंत्री- उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान बुंदेलखंड और नर्मदा क्षेत्र के रहे हैं।

मालवा क्षेत्र से ही मंदसौर जिले के जगदीश देवड़ा को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया है। दूसरे उप-मुख्यमंत्री विंध्य क्षेत्र या बघेल खंड के रीवा से विधायक राजेंद्र शुक्ला हैं। इसमें जाति का समीकरण भी करीने से साधने की कोशिश है। यादव ओबीसी हैं तो देवड़ा अनुसूचित जाति (एससी) और शुक्ला ब्राह्मण हैं। ये तीनों ही शिवराज सरकार में मंत्री रह चुके हैं। सूत्रों की मानें तो तीनों नामों की घोषणा में संघ की चली है। देवड़ा छात्र जीवन से राजनीति में सक्रिय हैं और सातवीं बार विधानसभा पहुंचे हैं। पिछली सरकार में वित्त मंत्री रहे देवड़ा को शिवराज सरकार के हर मंत्रिमंडल में जगह मिलती रही है। मालवा क्षेत्र से थावरचंद गहलोत के सक्रिय राजनीति से हटने के बाद देवड़ा अनुसूचित जाति वर्ग से भाजपा के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे हैं।

प्रदेश में दलितों के आरक्षण बचाओ आंदोलन से 2018 में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा का काफी नुकसान पहुंचा था। 2023 के विधानसभा चुनाव में एससी वर्ग की आरक्षित 35 में से 20 सीटें ऐसी रही हैं, जहां भाजपा ने 50 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किए हैं। कांग्रेस ने सिर्फ 9 सीटें जीती हैं। चार सीटों पर जीत-हार का अंतर पांच हजार से कम वोटों का रहा है।

सूत्रों के मुताबिक, 2024 के लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जाति के वोटरों को साधने के लिए देवड़ा को चेहरा बनाया गया है। राज्य की कुल 29 लोकसभा सीटों में से चार भिंड, टीकमगढ़, देवास और उज्जैन अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। इनमें दो देवास और उज्जैन सीधे देवड़ा के प्रभाव वाले क्षेत्र में आती हैं। उनके उप-मुख्यमंत्री होने से दूसरी दो सीटों पर भी भाजपा का असर बढ़ने की संभावना जताई जा रही है।

 इसी तरह उच्च जातियों का एक वर्ग भी भाजपा से नाराज बताया जा रहा था। 2018 में भाजपा की हार की एक वजह यह भी बताई जा रही थी। राजेंद्र शुक्ला को चुनाव से तीन महीने पहले कैबिनेट में शामिल कर विंध्य को साधने की कोशिश की गई। इस चुनाव में भाजपा ने 8 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें 5 जीतने में कामयाब रहे। अब शुक्ला को उप-मुख्यमंत्री बनाकर 2024 के लोकसभा चुनाव में किसी भी तरह की नाराजगी की आशंका को खत्म करने की कोशिश की गई है। विंध्य में ब्राह्मण और ठाकुर वोटर प्रभावशाली हैं। इस क्षेत्र में लोकसभा की चार सीटें हैं, जिनमें से रीवा, सतना और सीधी में ब्राह्मण मतदाता निर्णायक माने जाते हैं।

तीन बड़े संदेश

. सत्ता का केंद्र किसी एक नेता को न बनने देना

. जाति समीकरण को साधकर चुनावी जीत हासिल करना

. नए चेहरों को तवज्जो देकर ‘पीढ़ी परिवर्तन’ की ओर बढ़ना, जो चौहान के 18 साल के कार्यकाल में रुक-सा गया था

. दरअसल, मौजूदा क्षत्रपों और दिग्गजों को इस बार चौंकाऊ अंदाज में दरकिनार किया गया, मगर राज्य भाजपा में पीढ़ीगत नेतृत्व परिवर्तन कोई नई बात नहीं है। मसलन, वीरेंद्र सखलेचा की जगह कैलाश जोशी को बतौर मुख्यमंत्री लाया गया था। फिर उनकी जगह सुंदरलाल पटवा ने ले ली थी। 2003 में जब भाजपा की प्रदेश में वापसी हुई तो बुंदेलखंड क्षेत्र से उमा भारती, 2004 में नर्मदा अंचल से बाबूलाल गौर और 2005 में फिर नर्मदा अंचल से शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह दीगर बात है कि इन सभी नेताओं ने अपनी पहचान पहले ही व्यापक बना ली थी, जो केंद्र की पुख्ता पकड़ वाले मौजूदा बदलाव में शायद न दिख रहा हो।

पहला ऐलान

. सभी मंदिरों-मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाए जाएं। मांस की बिक्री को नियंत्रित किया जाए। भाजपा कार्यकर्ताओं के घरों पर हमला करने वालों के घरों पर बुलडोजर

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