मन्नू भंडारी
(3 अप्रैल 1931-15 नवंबर 2021)
हिंदी की प्रख्यात संवेदनशील रचनाकार मन्नू भंडारी का 90 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। हिंदी कथा साहित्य के शीर्षस्थ रचनाकारों- अमरकांत, भीष्म साहनी, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, कमलेश्वर, कृष्णा सोबती, राजेंद्र यादव, मार्कण्डेय के कथा समय में आपका बंटी और महाभोज जैसे कालजयी उपन्यासों और आत्मकथा एक कहानी यह भी की लेखिका मन्नू भंडारी का अपना विशिष्ट स्थान रहा है। एक निहायत सीधा-सादा, आडंबरहीन, ईमानदार और बेहद पारदर्शी व्यक्तित्व, जिसकी साठ साल पहले लिखी कहानियां आज भी उसी तरह उद्वेलित करती हैं, जैसे तब करती थीं, जब कथा लेखन में महिला रचनाकार उंगलियों पर गिनी जा सकती थीं। दूसरा कारण उनका अपने मध्यवर्गीय समाज के दायरे से ऐसे पात्रों और मुद्दों को उठाना है, जो सहज ही एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। साथ ही कथानक को बेधड़क, सहज संप्रेषित होने वाली सादी लेकिन चुस्त और चुटीली भाषा, जिसमें न ज्यादा घुमाव हैं, न पेच अपने पाठकों तक पहुंचा देना है। ऐसे कि कहानी के निहितार्थ तक पहुंचने में पाठकों को किन्हीं आड़े-तिरछे रास्तों से होकर न गुजरना पड़े।
उनकी कहानियां अकेली, मजबूरी, नई नौकरी, स्त्री सुबोधिनी, त्रिशंकु, एक प्लेट सैलाब, करतूते मरदां पिछले कई दशकों से हिंदी साहित्य के छात्र पाठ्यक्रम में पढ़ रहे हैं। अपनी शर्तों पर जीती हुई इस रचनाकार ने कभी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया और आपातकाल के वर्ष में पद्मश्री लेने से इनकार कर दिया।
मन्नू भंडारी को हिंदी का आम पाठक रजनीगंधा फिल्म से पहचानता है, जो नई कहानियां के कहानी विषेशांक में प्रकाशित उनकी बहुचर्चित कहानी यही सच है पर आधारित थी, जिसने हिंदी फिल्मों में एक साथ कला सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा में सफलता के नए प्रतिमान रचे और सिनेमा में अति नाटकीय और रोमांचकारी विषयों से अलग, रोजमर्रा की मामूली घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में भावनात्मक ऊहापोह और द्वंद्व के रेशे खंगालने-खोलने की शुरुआत की।
आपका बंटी और महाभोज जैसे उपन्यास लिखकर मन्नू भंडारी ने वह मुकाम हासिल किया, जो किसी भी रचनाकार का सपना होता है। आपका बंटी धर्मयुग साप्ताहिक में 70 के दशक में प्रकाशित हुआ और पाठकों का आलम यह था कि धर्मयुग की प्रतियां स्टॉल में आने के साथ ही बिक जाती थीं। उन दिनों जब इस पर फिल्म बनाने की बात हुई तो यह व्यंग्य किया गया कि यह समस्या तो हमारे देश भारत में है ही नहीं, यह तो पश्चिम के देशों की सिंगल पेरेंट और हाफ पेरेंट वाली स्थिति है। जबकि आज भी यह हमारे समाज की एक बड़ी विडंबना है। आज स्थितियां बदली जरूर हैं और हर तीसरे घर में अपने बच्चे का दायित्व निभाती सिंगल मदर मिल जाएंगी। लेकिन, उन दिनों इस उपन्यास का कई पाठकों-पाठिकाओं पर इतना गहरा असर हुआ कि उनका दाम्पत्य दरकने से बच गया। विश्व की कई भाषाओं में इन दोनों कृतियों का अनुवाद हुआ और वहां के विश्वविद्यालयों में उन्हें पाठ्यक्रम में रखा गया।
1988 में लिखा गया महाभोज 1977 के बेलछी कांड से उद्वेलित होकर रचा गया था। इस उपन्यास का नाट्य रूपांतर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की प्रख्यात निर्देशक अमाल अल्लाना के साथ मिलकर मन्नू जी ने किया और दिल्ली में इसके मंचन ने तहलका मचा दिया। पूरे भारत की लगभग सभी नाट्य संस्थाओं ने इस नाटक का मंचन किया और मन्नू जी की कलम को नई संजीवनी मिली।
मुख्य रूप से कहानियां लिखने से ही उनका अन्तस संतुष्ट होता था पर कालांतर में जब उन्होंने दूरदर्शन के लिए प्रेमचंद की निर्मला और महादेवी वर्मा की लछमा धारावाहिक के लिए पटकथाएं लिखीं तो उस विधा में भी उन्हें दर्शकों का ऐसा प्रतिसाद मिला कि वे पटकथाएं लिखने में जुट गईं। बंगाल के शीर्षस्थ रचनाकार शरतचंद्र की कहानी स्वामी को पहले उन्होंने उपन्यास का रूप दिया, फिर रजनीगंधा के निर्देशक बासु चटर्जी ने अभिनेता गिरीश कर्नाड और अभिनेत्री शबाना आजमी को लेकर उस पर एक और सफल फिल्म का निर्माण किया। दूरदर्शन धारावाहिक रजनी की कई लोकप्रिय किस्तें मन्नू जी की लिखी हुई थीं, जिन्होंने आम भारतीय जन में विद्रोह की चिनगारी फूंकी!
कहानी हो या उपन्यास, फिल्म हो या पटकथा, चरित्रों और स्थितियों का फोटोग्राफिक विवरण और पैना बयान मन्नू जी की खूबी रही। भाषा की तरलता और सहज प्रवाह में, बाहर से आरोपित या अनावश्यक रूप से थोपा हुआ नहीं होता। जैसा कि मन्नू जी स्वयं कहती हैं, “थोपा हुआ तो कुछ भी हो- बौद्धिकता, नैतिकता, करुणा या विचारधारा- जिंदगी के असली रंग को धुंधला और कहानी के संतुलन को डगमगा तो देता ही है।”
उन्हें उनके सभी पाठकों की ओर से विनम्र श्रद्धांजलि!
(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं)