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हर कट्टरता के विरुद्ध

सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के प्रमुख पहरेदारों में एक, स्वामी अग्निवेश संसार से विदा ले ली
स्वामी अग्निवेश (21 सितंबर 1939-11 सितंबर 2020)

नियति क्रूर और निष्ठुर होती है। उसे क्या पता कि देश और समाज को किसकी कितनी जरूरत है। उसने पिछले दिनों जन सरोकारों से जुड़े सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के प्रमुख पहरेदारों में एक, स्वामी अग्निवेश को हम सबसे छीन लिया। आंध्र प्रदेश के तेलुगु ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए, बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के संघर्ष से सार्वजनिक चर्चा के केंद्र में आए, अंध विश्वास, अंध श्रद्धा, सामाजिक कुरीतियों, विषमता के विरुद्ध मान-अपमान की चिंता किए बगैर चट्टान की तरह खड़े रहने वाले 81 वर्षीय आर्यसमाजी भगवा वस्त्रधारी स्वामी अग्निवेश 11 सितंबर को हमको अलविदा कह गए।

स्वामी जी के नाम से मशहूर अग्निवेश बंधुआ मुक्ति, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों के प्रति अपनी पक्षधरता, सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपंथ के विरुद्ध आवाज उठाते रहने के कारण मृत्युपर्यंत सक्रिय थे। समाज के गरीब, दलित, वंचित, शोषित और पीड़ित तबके अगर उन्हें अपना प्रवक्ता मानते थे, तो शोषक, पीड़क और धर्म के नाम पर पोंगापंथ, कट्टरपंथ और नफरत की राजनीति को बढ़ावा देने वाले उनसे उतनी ही नफरत भी करते थे। उनके प्रति नफरत का आलम यह रहा कि अपने भ्रष्टाचार के किस्सों के लिए मशहूर सीबीआइ के पूर्व प्रमुख (अंतरिम) एम. नागेश्वर राव ने मरणोपरांत उनके बारे में अत्यंत कुत्सित टिप्पणी ट्वीट की, ‘मुझे यमराज से शिकायत है कि उन्होंने इतना लंबा इंतजार क्यों किया।’स्वामी अग्निवेश (बचपन का नाम वेपा श्याम राव) का जन्म 21 सितंबर 1939 को आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के श्रीकाकुलम में हुआ था। जब वे केवल चार वर्ष के थे, पिता की मृत्यु हो गई। पालन-पोषण और शिक्षा नाना के यहां हुई। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के शाम राव ने लॉ और कॉमर्स का अध्ययन किया और फिर कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज में प्रबंधन के अध्यापक बन गए। कुछ समय के लिए, उन्होंने सब्यसाची मुखर्जी के जूनियर के रूप में वकालत भी की, जो बाद में देश के प्रधान न्यायाधीश बने। 1968 में वे आर्य समाज के साथ जुड़े, संन्यासी बने लेकिन कुछ समय बाद ही हुए विवादों के चलते अलग होकर उन्होंने आर्यसभा के नाम से संगठन बनाकर सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वास के विरुद्ध संघर्ष शुरू किया। इमरेजेंसी के बाद 1977 में वे जनता पार्टी के साथ जुड़े। हरियाणा विधानसभा का सदस्य और बाद में (1979) कैबिनेट मंत्री भी बने। उन्होंने हरियाणा के भाटी खदानों, ईंट भट्ठों में काम करने वाले बंधुआ मजदूरों की दुर्दशा देखी और उनकी मुक्ति के संघर्ष के लिए बंधुआ मुक्ति मोर्चा की स्थापना की। इससे पहले उन्होंने बंधुआ मजदूरी का विरोध करने वाले श्रमिकों पर गोलियां चलाने वाली पुलिस के खिलाफ हरियाणा सरकार के कोई कार्रवाई नहीं करने के रवैये के विरोध में मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। दिल्ली और उसके आसपास की खदानों में बंधुआ मुक्ति के संघर्ष के क्रम में वे दो बार गिरफ्तार हुए। तोड़फोड़ और हत्या के आरोप में कुल 14 महीने जेल में बिताए। बाद में वे इन आरोपों से बरी कर दिए गए।

विद्रोही स्वभाव का होने के कारण ही उन्होंने जनता पार्टी के संगठनात्मक चुनाव में अध्यक्ष जी के नाम से मशहूर चंद्रशेखर के विरुद्ध अध्यक्ष पद का चुनाव लड़कर उनके नेतृत्व को चुनौती दी थी। वे हार गए थे और उनका सामान जंतर मंतर रोड पर स्थित तत्कालीन जनता पार्टी मुख्यालय से फिंकवा दिया गया था लेकिन वे वहां लगातार अपने बंधुआ मुक्ति मोर्चा के कार्यालय के साथ बने रहे। उनका वहां होना देश भर के आंदोलनकारियों के लिए मिलने-जुलने का स्थाई ठिकाना और हर तरह के सहयोग का आश्वासन जैसा था।

अग्निवेश भगवाधारी स्वामी थे लेकिन भगवा राजनीति के घनघोर विरोधी थे। वे आर्य समाज के अध्यक्ष थे लेकिन कर्मकांड और अंधविश्वास पर जबर्दस्त प्रहार करते थे। उनके लिए, एक सच्चे आर्य समाजी होने का मतलब तर्कवादी होना था, समाज में सुधार करना और सबसे गरीब लोगों के लिए काम करना। वे धर्मों के बीच संवाद की वकालत करते थे। तेलुगु भाषी होने के बावजूद वे हिंदी, अंग्रेजी के अलावा अन्य कई भाषाओं में पारंगत थे। जहां कहीं संघर्ष और मानवाधिकारों का दमन होता था, अग्निवेश वहां पहुंच जाते थे। कन्या भ्रूण हत्या, शराबबंदी, नशाबंदी, बेटी बचाओ, नर्मदा बचाओ और महिलाओं की मुक्ति के अभियान में भी वे शामिल थे। वे आतंकवाद, नक्सलवाद की विचारधारा और हिंसा के कतई विरुद्ध लेकिन उनके भी मानवाधिकारों के समर्थक थे। शायद इसलिए भी उनके साथ उनके संवादी रिश्ते थे। उन्होंने हिंसा के सबसे खराब समय में भी कश्मीर में शांति और पारस्परिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए पहल की। मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने 2011 में उन्हें माओवादी नेतृत्व से बातचीत के लिए मध्यस्थ नियुक्त किया था। उन्होंने बंधुआ मजदूरों की मुक्ति के संघर्ष और मुद्दों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई और केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को भी बंधुआ मजदूरों की मुक्ति और पुनर्वास के लिए कानून बनाने को बाध्य किया। लेकिन इस क्षेत्र में काम के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार उनके कभी करीबी रहे और बाद में कुछ मतभेदों के कारण उनसे अलग हो गए कैलाश सत्यार्थी को मिला। हालांकि उन्हें भी वैकल्पिक नोबेल शांति पुरस्कार (राइट लाइवलीहुड अवार्ड) 2004 मिला था। 1994 में, उन्हें गुलामी के समकालीन रूपों पर संयुक्त राष्ट्र ट्रस्ट फंड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

2011 में जन लोकपाल बिल को लागू करने के लिए इंडिया अगेंस्ट करप्शन के अभियान के दौरान उन्होंने अन्ना हजारे के प्रमुख सहयोगी के रूप में हिस्सा लिया लेकिन बाद में आंदोलन के कोर ग्रुप से उनका मोहभंग हो गया था। बाद के वर्षों में उनका झुकाव कांग्रेस की तरफ बढ़ा था। धार्मिक कट्टरपंथ, मनुवाद, और अंधविश्वास तथा सांप्रदायिकता की राजनीति का घनघोर विरोधी होने के कारण वे लगतार हिंदुत्व के नाम पर सक्रिय सांप्रदायिक तत्वों के निशाने पर होते थे। जुलाई 2018 में उनके साथ झारखंड के पाकुड़ में भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने ‘जय श्रीराम’ के उद्घोष के साथ मार पीट और बदसलूकी की थी। इससे पहले भी उन पर छत्तीसगढ़ में ‘सलवा जुडूम’ समर्थकों की भीड़ ने हमला किया था। बहरहाल, वे हमेशा वंचितों, शोषितों और कट्टरता विरोधयों के पैरोकार के रूप में जाने जाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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