हाल में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के संस्थापक दिवंगत रामविलास पासवान के छोटे भाई पशुपति कुमार पारस ने चार अन्य सांसदों की मदद से अपने भतीजे चिराग पासवान के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया, तो लोगों को हैरानी हुई। आखिकार, पासवान खानदान की मिसाल सियासत में पारिवारिक एकता बनाए रखने के कारण वर्षों से दी जाती रही है। बिहार में इसकी पहचान ऐसे कुनबे के रूप में रही, जो अच्छे और बुरे वक्त में साथ रहा है। इसलिए इस चट्टानी एकता के टूटने से लोगों का हैरान होना लाजिमी था। लेकिन, बिहार की राजनीति के जानकारों के लिए यह अप्रत्याशित नहीं, बल्कि ‘यह तो होना ही था’। वर्ष 2000 में अपनी स्थापना काल से ही लोजपा पासवान के परिवार की पार्टी समझी जाती रही है। अब भी लोकसभा में इसके छह सांसदों में से तीन- चिराग, उनके चाचा पारस और उनके चचेरे भाई प्रिंस राज इसी परिवार से हैं। प्रिंस पासवान के एक अन्य भाई तथा पूर्व सांसद स्वर्गीय रामचंद्र पासवान के पुत्र हैं। पिछले वर्ष अक्टूबर में निधन के पूर्व स्वयं रामविलास पासवान राज्यसभा सदस्य और केंद्रीय मंत्री थे।
आलोचकों के अनुसार, पासवान ने हमेशा पार्टी से ज्यादा परिवार को अहमियत दी। परिवार से बाहर के नेता दल में आते और जाते रहे, लेकिन भाई-भतीजावाद के आरोपों से इतर, उनका आपसी प्यार उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं पर हमेशा भारी पड़ा।
अब सब कुछ बदल गया है। चाचा पारस और भतीजे चिराग के बीच वर्चस्व की लड़ाई के कारण लोजपा दो टुकड़ों में टूट गई है। राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार, इस विभाजन से सबसे ज्यादा खुशी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को होगी। सियासी हलकों में चर्चा है कि लोजपा में जारी पारिवारिक जंग के पीछे उन्हीं का हाथ है। पिछले नवंबर में बिहार विधानसभा चुनावों में चिराग ने जनता दल-यू के सभी प्रत्याशियों के खिलाफ लोजपा के उम्मीदवार खड़े किए, जिससे नीतीश को करीब 35 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा। साथ ही, भाजपा के साथ गठबंधन में उनकी हैसियत बड़े भाई से घटकर छोटे भाई की हो गई। राजनीति में नीतीश की कुछ कमजोरियां जरूर हैं, लेकिन विरोधी भी उनकी स्मरणशक्ति के कायल रहे हैं। जाहिर है, चिराग के दिए चुनावी जख्म को उन्होंने भुलाया नहीं होगा। इन चर्चाओं की यही वजह है।
स्वयं चिराग भी इस बात से इनकार नहीं करते हैं कि नीतीश ने ही उनकी पार्टी और परिवार को तोड़ने का काम किया है। चिराग कहते हैं, ‘‘सच्चाई यह है कि दलित मतदाताओं की एकजुटता को तोड़ने का प्रयास मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लंबे समय से कर रहे हैं। इस सिलसिले में उन्होंने दलितों का दलित और महादलित में विभाजन किया।’’
चिराग के अनुसार, नीतीश ने उनके पिता के समय से ही लोजपा को तोड़ने का काम किया। वे कहते हैं, ‘‘फरवरी 2005 के (बिहार) चुनाव में हमारे 29 विधायकों को तोड़ा गया। नवंबर 2005 में हमारे सभी जीते हुए विधायकों को जदयू ने तोड़ा। 2020 में जीते हुए एक विधायक को भी तोड़ा गया और अब लोजपा के पांच सांसदों को तोड़ जदयू ने अपनी 'फूट डालो और शासन करो' की रणनीति को दोहराया है।’’
नीतीश हालांकि चिराग के आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं। वे कहते हैं कि यह लोजपा का अंदरूनी मामला है और उनका कुछ लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘हम लोगों की कोई भूमिका नहीं है। हम पर कोई इसलिए बोलता है कि पब्लिसिटी मिलती है, हम लोगों को कोई मतलब नहीं है। हमने कुछ नहीं बोला है।’’
उनसे पूर्व पार्टी के अध्यक्ष रामचंद्र प्रसाद सिंह ने कहा कि उनकी पार्टी किसी को तोड़ती नहीं है। वे कहते हैं, ‘‘जो बोये वही काटे। जब नेतृत्व मिलता है तो सबको सम्मान देना होता है। सबको साथ लेकर चलना होता है। मनमानी से काम नहीं चलता है। पासवान जी का अपना व्यक्तित्व था। लोग उन्हें नेता मानते थे, लेकिन उनके बाद मनमानी की जा रही है।’’ सिंह उन्हीं आरोपों को दोहराते हैं, जिनका हवाला देकर पारस और बाकी लोजपा सांसदों ने चिराग के खिलाफ विद्रोह किया। लेकिन, राजनैतिक टिप्पणीकार यह मानने को तैयार नहीं कि यह महज लोजपा का अंदरूनी मामला हैं। अर्थशास्त्री नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि यह बिलकुल स्पष्ट है कि इसमें नीतीश का हाथ है क्योंकि उनके कुछ विश्वासपात्र जदयू नेता उस मीटिंग में मौजूद थे जहां पारस को लोजपा का नेता बनाने का प्रस्ताव सांसदों ने पारित किया।
जानकारों का कहना है कि नीतीश और जदयू के अन्य नेता सिर्फ इसलिए चिराग से खफा नहीं कि उन्होंने उनके खिलाफ बिहार चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने नीतीश पर सीधा प्रहार किया। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने न सिर्फ नीतीश के विकास के दावों की खिल्ली उड़ाई बल्कि उन पर भ्रष्टाचार का आरोप लगते हुए उन्हें जेल भेजने तक की बात कही। जदयू नेताओं का यह भी अनुमान था कि चिराग ने भाजपा की शह पर एनडीए से अलग चुनाव लड़ा। उन दिनों चिराग के बयानों ने भी इस बात को हवा भी दी। उन्होंने नरेंद्र मोदी-अमित शाह के नेतृत्व में पूर्ण आस्था व्यक्त की और स्वयं को मोदी का हनुमान बताया। भाजपा के नेता बार-बार खंडन करते रहे, मगर जदयू के नेता यह मानने को तैयार न थे कि चिराग को भाजपा का परोक्ष समर्थन प्राप्त नहीं है। चुनाव के बाद भी केंद्र में लोजपा के एनडीए में रहने के कारण जदयू में व्यापक असंतोष था और इस वर्ष जब कभी चिराग को एनडीए की मीटिंग में बुलाने की पहल हुई, तो जदयू ने उसका पुरजोर विरोध किया। लेकिन, अब लगता है चिराग को अपनी ही पार्टी में हाशिये पर खड़ा करके नीतीश ने मानो एक तीर से दो शिकार कर लिया है। लोजपा तो टूटी ही, उन्होंने भाजपा को भी यह संदेश देने की कोशिश की है कि छोटे भाई की हैसियत होने के बाद भी उनके पास कुछ तुरूप के इक्के बचे हुए हैं।
लेकिन क्या सारा खेल बिना भाजपा की सहमति से हुआ? नवल किशोर चौधरी का मानना है कि लोजपा के तख्तापलट में भाजपा का सीधा हाथ भले न हो, लेकिन वह मूक दर्शक बनी रही। वे कहते हैं, ‘‘अगर भाजपा को नीतीश और चिराग में एक को चुनना हो तो वह नीतीश को ही चुनेगी। बंगाल में हार के बाद भाजपा नीतीश को खोने का खतरा नहीं मोल ले सकती क्योंकि नीतीश के पास विकल्प ही विकल्प हैं। न सिर्फ बिहार में, वे 2024 में केंद्र में भी अपनी तकदीर आजमा सकते हैं।’’
जो भी हो, भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि लोजपा में विद्रोह ऐसे समय में हुआ है, जब मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार की खबरें आ रही हैं। नीतीश के विरोध के कारण पहले चिराग को अपने पिता के स्थान पर कैबिनेट मंत्री बनाने में अड़चन थी, जो लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला के पारस को लोजपा के संसदीय दल के नेता के तौर पर मान्यता देने के कारण दूर हो गई है। चिराग को मंत्रिमंडल में स्थान न मिलने से अगर दलित नाराज होते हैं, तो उसे पारस को मंत्री बना कर दूर किया जा सकता है। पारस के मंत्री बनने से केंद्र में नीतीश के ही हाथ मजबूत होंगे क्योंकि चिराग को छोड़कर पारस और बाकी लोजपा सांसद अब उन्हीं के पाले में आ गए हैं।
पार्टी की एक बैठक में चिराग पासवान
लेकिन, क्या चिराग के लिए यह ऐसा झटका है, जिससे वे उबर नहीं पाएंगे? राजनैतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि भाजपा से नकारे जाने के बाद भी उनके सारे दरवाजे बंद नहीं हुए हैं। वैसे भी, पारस के लिए चिराग के स्थान पर अपने आप को पासवान का असली वारिस बता कर बिहार में दलितों का समर्थन जुटाना आसान नहीं होगा, क्योंकि चिराग सात-आठ साल से पिता के साथ राजनीति का ककहरा सीखते आए हैं। उनके पास राजद के तेजस्वी यादव से हाथ मिलाने का भी विकल्प है। राजद नेताओं से उन्हें अपने पिता की तरह केंद्र में राजनीति करने और बिहार में तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने का प्रयास करने की सलाह मिल चुकी है।
यह गठबंधन दिलचस्प हो सकता है। फिलहाल तो 38 वर्षीय चिराग अपने चाचा के साथ लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए कमर कस चुके हैं। लोजपा की कमान किसके हाथों में होगी, चुनाव चिन्ह बंगला किसे मिलेगा, इसका फैसला चुनाव आयोग और न्यायालय करेगा, लेकिन चिराग पार्टी को फिर से खड़ा करने की कवायद में जुट गए हैं। पिता की जन्म तिथि 5 जुलाई से वे उनके लोकसभा क्षेत्र हाजीपुर से राज्यव्यापी ‘आशीर्वाद यात्रा’ शुरू करेंगे। नतीजा जो हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि परिजनों की बगावत के बाद उनके पास ऐसी पार्टी बनाने का मौका है जिस पर एक परिवार या खानदान की पार्टी होने का आरोप न लगे।
नीतीश ने एक तीर से दो शिकार किए। लोजपा तो टूटी ही, भाजपा को भी संदेश दिया कि छोटे भाई की हैसियत में भी क्या कर सकते हैं