अपना और परिवार का इलाज कराते-कराते 5.5 करोड़ लोग एक साल में गरीब हो गए। देश के करीब 3.5 करोड़ लोग एक साल में केवल दवा के खर्च से गरीबी रेखा के नीचे आ गए। यह चौंकाने वाली बात, केंद्र सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने खुद 31 जुलाई 2018 को राज्यसभा में कही थी। सरकार के इस बयान से ही आप समझ सकते हैं कि भले हम 70 साल में दुनिया की छठी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हों लेकिन वैश्विक स्वास्थ्य सूचकांक में 154वें नंबर पर खड़े हैं। भारत ‘द लॉन्सेट जर्नल’ द्वारा जारी सूचकांक (ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज) में बांग्लादेश, नेपाल, भूटान और श्रीलंका से भी बदतर स्थिति में है।
हम इस स्थिति में क्यों पहुंचे और मौजूदा सरकार निजी क्षेत्रों के भरोसे इस समस्या को दूर करने का जो मॉडल लेकर चल रही है, वह कितना कारगर होगा। इस पर पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क की संयोजक डॉ. वंदना प्रसाद ने आउटलुक को बताया, “सरकार की स्वास्थ्य क्षेत्र को देखने की नीति सही नहीं है। सरकार अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से नहीं उठा रही है। आम आदमी जो हर कदम पर टैक्स चुकाता है, फिर भी वह अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा निजी अस्पतालों को अपने इलाज पर खर्च कर रहा है। जब सरकारी अस्पतालों को मजबूत नहीं किया जाएगा, तो जनता के पास इलाज के लिए निजी अस्पतालों की ओर रुख करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा। इसी वजह से स्वास्थ्य सेवाएं महंगी और गरीब आदमी से दूर हैं। अहम बात यह है कि सरकार की मौजूदा नीति बीमा मॉडल पर आधारित हो गई है। इसके तहत कंपनियों के भरोसे हॉस्पिटलाइजेशन पर फोकस किया जा रहा है। यानी जब गरीब गंभीर रूप से बीमार होगा तब उसका इलाज आयुष्मान योजना के तहत होगा।” अब कोई पूछे कि जब उसे प्राथमिक उपचार या ऐसी बीमारियों के इलाज की जरूरत होगी, जिसमें हॉस्पिटलाइजेशन जरूरी नहीं है, तो वह कहां जाएगा। जाहिर है, उसे फिर निजी अस्पतालों की ओर रुख करना होगा। जहां उस पर इलाज के खर्च का भारी बोझ पड़ता है। एक और चौंकाने वाला आंकड़ा आपके सामने है, नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के 71वें दौर के सर्वेक्षण के अनुसार, गांवों में रहने वाले लोग अपने कुल दवा खर्च का 72 फीसदी हिस्सा बिना हॉस्पिटलाइजेशन के छोटी-मोटी बीमारियों के इलाज पर खर्च करते हैं। जबकि शहरी आबादी का 68 फीसदी खर्च इस हिस्से में चला जाता है। यानी जहां सबसे ज्यादा खर्च हो रहा है, वहां अभी सरकार का फोकस नहीं है। वंदना कहती हैं, “इसके लिए बजट में हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर खोलने का प्रावधान किया गया है। लेकिन उसके लिए पैसा नहीं के बराबर दिया गया है।” राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार, 2022 तक देश में 1.5 लाख हेल्थ वेलनेस सेंटर खोले जाएंगे जो प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं पर फोकस करेंगे। लेकिन इसके लिए 2018-19 में 1,200 करोड़ रुपये और 2019-20 के लिए केवल 1,600 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार "एक हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर चलाने के लिए पहले साल 17 लाख और दूसरे साल 7.5 लाख रुपये का खर्च आएगा।" इसमें दवाओं और जांच के खर्च शामिल नहीं है। ऐसे में अगर सभी खर्च को शामिल किया जाए तो औसतन 15-20 लाख रुपये का सालाना खर्च आएगा। ऐसे में 1.5 लाख सेंटर चलाने के लिए सालाना 20-30 हजार करोड़ रुपये का खर्च आएगा।
वंदना के अनुसार, "हम पिछले 70 साल से सुन रहे हैं कि सरकारी अस्पतालों को सुदृढ़ बनाया जाएगा। लेकिन यह कब होगा, हम कब तक अपनी ओपीडी जरूरतों के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भर रहेंगे। सरकारी अस्पतालों को बिना आधारभूत सुविधाएं दिए फेल कर दिया गया है। जब हम उन्हें पर्याप्त उपकरण, स्टॉफ और दूसरी सुविधाएं नहीं देंगे तो वह काम कैसे करेंगे। सरकारी अस्पताल बहुत अच्छा काम कर सकते हैं। लेकिन उन पर फोकस नहीं है। जिस तरह सरकार का रुख है सरकारी अस्पतालों को खत्म कर दिया जाएगा। हम केवल अपनी जीडीपी का एक फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं। जबकि सभी राजनीतिक दल चुनावों में 2.5 फीसदी खर्च का वादा करते हैं।” पिछले तीन साल में केंद्र सरकार ने जीडीपी का केवल 1.02 से लेकर 1.28 फीसदी सार्वजनिक खर्च किया है।
एसोसिएशन ऑफ हेल्थकेयर प्रोवाइडर्स (इंडिया) के डायरेक्टर जनरल डॉ. गिरधन ज्ञानी ने आउटलुक को बताया कि "आयुष्मान भारत (प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना) के दो प्रमुख हिस्से हैं। पहला प्राथमिक सेवाओं के लिए हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर और दूसरा गंभीर बीमारी के लिए हॉस्पिटलाइजेशन, जिसमें योग्य लोगों को पांच लाख रुपये तक का सालाना मुफ्त इलाज की सुविधा मिलती है। तार्किक रूप से पहले हिस्से पर ज्यादा फोकस होना चाहिए था। लेकिन अभी सारा फोकस हॉस्पिटलाइजेशन पर है।
देश में गंभीर बीमारियों का इलाज जिसमें हॉस्पिटलाइजेशन की जरूरत पड़ती है, वह पूरी तरह से निजी क्षेत्र पर निर्भर है। देश में करीब 724 बड़े सरकारी अस्पताल है उनमें से कुछेक को छोड़ दिया जाए तो वे गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए पूरी तरह से सक्षम नहीं हैं। करीब 90 फीसदी इलाज निजी क्षेत्र के भरोसे हैं। इसके तहत ट्रस्ट और इंश्योंरेंस मॉडल को अपनाया गया है।" हालांकि इंश्योरेंस मॉडल पर लगातार सवाल उठते रहे हैं। इस मामले में पब्लिक हेल्थ रिसोर्सेज नेटवर्क द्वारा सितंबर 2018 में कराई गई नेशनल हेल्थ असेंबली की रिपोर्ट के अनुसार "पिछली बीमा योजनाओं के अनुसार यह मॉडल सही नहीं है। उन योजनाओं में मुफ्त इलाज की जगह डिस्काउंट ही मिलता है। रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी अस्पताल में जब मरीज भर्ती होता है तो उसे 4,500 रुपये खर्च करना पड़ता है, जबकि निजी अस्पताल में औसतन 18,000 रुपये खर्च करना पड़ता है।
हालांकि अभी आयुष्मान भारत स्कीम का ऑडिट नहीं किया गया है। बीमा मॉडल की एक समस्या यह है कि सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं पर किए जाने वाले खर्च का एक बड़ा हिस्सा प्रीमियम भुगतान में ही चला जाता है। ऐसे में सरकारी अस्पतालों पर खर्च कम हो जाता है। इस रवैए से सरकारी अस्पताल, निजी अस्पतालों से गुणवत्ता के मामले में पिछड़ रहे हैं।" राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार, स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार का खर्च जीडीपी का 3.5 फीसदी होना चाहिए। इसके जरिए प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति पर 4,000 रुपये का खर्च किया जा सकेगा। जबकि अभी 1,112 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च होता है। यानी सरकार स्वास्थ्य पर तीन रुपये रोज खर्च कर रही है।
डॉ. ज्ञानी के अनुसार, “आयुष्मान स्कीम में इस समय बड़ी समस्या अस्पतालों के जुड़ने की आ रही है, जिसका खामियाजा उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को सबसे ज्यादा उठाना पड़ रहा है। दोनों राज्यों में अस्पतालों का नेटवर्क बहुत कम है। यहां पर प्रति 1,000 लोगों पर 0.60-0.70 बेड हैं। जबकि पूरे देश का औसत एक से ज्यादा है। इसमें भी दिल्ली में औसत करीब तीन बेड का है। ऐसे में उत्तर प्रदेश और बिहार के राज्यों के लोगों को दिल्ली की ओर रुख करना पड़ता है। लेकिन यहां पर कई प्रमुख अस्पतालों ने आयुष्मान स्कीम से जुड़ने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि स्कीम के तहत इलाज के जो रेट तय किए गए हैं, वे बहुत कम है। ऐसे में उनके लिए मरीजों का इलाज करना संभव नहीं है। इस स्थिति में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को आयुष्मान स्कीम का लाभ नहीं मिल पा रहा है।” सूत्रों के अनुसार, इस मामले में इलाज पर होने वाले खर्च के रेट में बदलाव की तैयारी चल रही हैं, जिसके बाद अस्पतालों को जोड़ना आसान होगा। ऐसे में प्राथमिक स्वास्थ्य से लेकर गंभीर बीमारियों तक के इलाज के लिए अस्पतालों में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव साफ दिख रहा है। अब गांव में रहने वाले व्यक्ति को अगर किसी भी आपात स्थिति में इलाज के लिए 100-200 किलोमीटर जाना होगा तो यह समझा जा सकता है कि आयुष्मान कार्डधारक होने के बावजूद उसके लिए इलाज कराना कितना मुश्किल होगा। इसके अलावा ज्यादातर बड़े अस्पताल महानगरों तक सीमित हैं। ज्ञानी के अनुसार, “यह एक बहुत बड़ी समस्या है। अस्पतालों के लाइसेंस देने में इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता है। आप इन उदाहरणों से समझ सकते हैं कि तमिलनाडु में करीब 200 अस्पताल हैं, जो गंभीर इलाज के लिए सक्षम हैं। इसमें 100 अस्पताल अकेले चेन्नै और कोयंबतूर में हैं। इसी तरह तेलंगाना के 170 में से 150 अस्पताल केवल हैदराबाद में हैं। इस तरह का असमान वितरण नीतिगत स्तर पर सबसे बड़ी समस्या है, ऐसे में जब तक इन समस्याओं का समाधान नहीं होगा, आयुष्मान स्कीम का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाएगा।”
नेटवर्क बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सरकार वेलनेस हेल्थ सेंटर को जल्द से जल्द तैयार करने के साथ-साथ निजी क्षेत्र को भी इंसेंटिव दे। ज्ञानी के अनुसार, “जिस तरह हमारी स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र पर निर्भर हो गई हैं, उसे पूरी तरह बदला नहीं जा सकता है। टियर-2 और टियर-3 शहरों में अस्पताल खोलने के लिए कृषि ऋण की तरह रियायती कर्ज, सस्ती बिजली, सिंगल विंडो क्लीयरेंस सिस्टम की जरूरत है।” इन अभावों के अलावा हम कुशल डॉक्टरों की कमी से भी जूझ रहे हैं। सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलिजेंस की नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 की रिपोर्ट के अनुसार देश में औसतन प्रति 11,039 जनसंख्या पर एक एलोपैथिक डॉक्टर है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानक प्रति 1,000 आबादी पर एक डॉक्टर का है। यानी हम लक्ष्य का केवल 10वां हिस्सा ही पूरा कर पाए हैं। उसमें भी उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की बात करें तो वहां स्थिति और गंभीर है। उत्तर प्रदेश में 19,962 लोगों पर, झारखंड में 18,518 पर, मध्य प्रदेश में 16,996 पर, छत्तीसगढ़ में 15,916 लोगों पर एक डॉक्टर है। वहीं, देश में सरकारी अस्पतालों की संख्या 23,582 है।
सरकारी हेल्थ सेंटर की बदहाली की एक और बानगी में डॉ. ज्ञानी बताते हैं, “देश के 80 फीसदी पद कम्युनिटी हेल्थ सेंटर में खाली पड़े हैं। एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर 30 बेड वाला अस्पताल होता है, जिसमें एक जनरल फिजीशियन, एक जनरल सर्जन, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ और एक शिशु रोग विशेषज्ञ होना चाहिए। इतनी बड़ी संख्या में पद खाली हैं तो उन जगहों पर मरीज का इलाज कैसे होगा।”
मोदी सरकार इस समय सारी समस्या को दूर करने का हल प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना को मान रही है। आयुष्मान योजना के क्रियान्वन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले एक वरिष्ठ अधिकारी ने आउटलुक को बताया, “योजना को शुरू हुए अभी केवल पांच महीने हुए हैं। अब तक दो करोड़ से ज्यादा लोग इससे जुड़े चुके हैं। जबकि 13.66 लाख से ज्यादा मरीज योजना का फायदा उठा चुके हैं, जिनका 14,700 से ज्यादा अस्पतालों में इलाज हुआ है। अधिकारी के अनुसार, यहां पर पात्र लोगों का पूरी तरह से मुफ्त इलाज होता है। इसके लिए किसी भी तरह के कैश सिस्टम को पूरी तरह से खत्म किया गया है। ऐसे में यहां पर यह संभव नहीं है कि कोई अस्पताल किसी भी मरीज से पैसे की मांग करे। जहां तक इलाज के लिए तय रेट बढ़ाने की बात है, तो इस पर अभी तक कोई फैसला नहीं हुआ है। जब देश के 14 हजार से ज्यादा अस्पताल इस रेट पर काम करने के लिए तैयार हैं, तो मुझे नहीं लगता कि बाकी अस्पतालों को कोई दिक्कत आएगी। मुझे पूरी उम्मीद है कि वह भी योजना के साथ जुड़ जाएंगे।
स्कीम के तहत 1,393 बीमारियों का इलाज किया जा रहा है। टियर-2 और टियर-3 शहरों में अस्पतालों की कमी की बात है, तो अभी तक निजी अस्पतालों के संचालकों को लगता था कि यहां पर लोगों के पास भुगतान करने की क्षमता नहीं है। लेकिन अब आयुष्मान स्कीम के जरिए उन्हें यह भरोसा हो रहा है कि भुगतान की समस्या नहीं आएगी। हमें पूरी उम्मीद है कि टियर-2 और टियर-3 शहरों में अस्पताल तेजी से खुलेंगे। जहां तक इस आरोप की बात है कि इससे केवल बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचेगा, तो ऐसा नहीं है। स्कीम के तहत 17 राज्यों ने ट्रस्ट मॉडल अपनाया है। वहां पर बीमा कंपनी का कोई रोल नहीं है। इलाज खर्च का 60 फीसदी केंद्र सरकार वहन करेगी, जबकि 40 फीसदी राज्य सरकार करेगी। जिन नौ राज्यों ने बीमा कंपनियों का मॉडल अपनाया है। उनमें भी प्रीमियम भुगतान के लिए केंद्र व राज्यों की हिस्सेदारी यही है।” नोबेल पुरस्कार विजेता और प्रमुख अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने आयुष्मान योजना पर सवाल उठाते हुए कहा है कि सरकार ने प्राथमिक हेल्थकेयर की अनदेखी की है। लोगों को स्पेशलाइज्ड केयर का लाभ तो मिलेगा, लेकिन यह तब होगा जब शुरुआती खतरों से बचकर उस स्थिति में पहुंचेंगे। उनके बयान से साफ है कि सबसे पहले इलाज के लिए रोजमर्रा की जरूरी चीजों पर फोकस किया जाए। बढ़ी आबादी अपनी कुल कमाई का बड़ा हिस्सा इलाज पर खर्च कर रही है, जिस वजह से करोड़ों लोग गरीबी के गर्त में जा रहे हैं। यह काम निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं हो सकता है। सरकार को ही अपना खर्च बढ़ाना होगा। तब स्वस्थ भारत का लक्ष्य हासिल होगा।