निश्चित ही कोविड-19 का यह त्रासद दौर भी एक दिन गुजर जाएगा क्योंकि आपदाएं स्थायी नहीं होती हैं। इतिहास में पहले भी ऐसी आपदाएं आई हैं और दुनिया उससे उबर कर निकली है। चौदहवीं शताब्दी में प्लेग नामक महामारी ने यूरोप की जीवन प्रणाली को प्रभावित किया था। इसके बाद चेचक, हैजा सहित अनेक महामारियों का दौर आया, जिससे मानव समाज तथा वैश्विक परिवेश में बड़ा बदलाव देखने को मिला। यह भी सच है कि ऐसी परिस्थितियों की भारी कीमत पहले भी चुकानी पड़ी है और आज भी चुकानी होगी। यह भी सत्य है कि कोविड-19 का यह दौर जाते-जाते दुनिया और मानव सभ्यता के सामने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न छोड़ जाएगा। इस अदृश्य परजीवी के संकट से उभरे सवालों को भारत के परिप्रेक्ष्य में समझने की चुनौती हमारे सामने है।
काफी हद तक यह सही है कि पिछले कुछ दशकों में हमने तकनीक आधारित प्रगति के बहुस्तरीय लक्ष्य हासिल किए हैं। तकनीक के सहारे सब कुछ हासिल कर लेने की होड़ भी पैदा हुई है। ऐसा इसलिए भी हुआ कि पिछले दशकों में तकनीक के क्षेत्र में हुई क्रांति ने मानव जीवन की जरूरतों को पूरा करने का सरल और सुलभ साधन उपलब्ध कराया है। इसका परिणाम यह हुआ कि मानव प्रकृति आश्रित कम रहा और तकनीकी आश्रित अधिक होता गया। लेकिन कोरोना नाम के इस वायरस की वजह से पैदा हुए संकट की स्थिति ने मानव समाज की अनंत इच्छाओं पर लगाम लगाया है। सब कुछ तेजी से हासिल कर लेने की गति को मानो रोक-सा दिया है। यह ठहराव ऐसा है कि आज हम अपने घरों में खुद को कैद करके ही सुरक्षित महसूस कर पा रहे हैं।
निश्चित ही दुनिया का हर देश कोरोना के स्थायी समाधान के रास्ते तलाश रहा है। इस वायरस को निष्प्रभावी करने की वैक्सीन ईजाद करके हम तात्कालिक समाधान की राह तो खोज लेंगे, लेकिन सिर्फ इतना कर लेना स्थायी समाधान नहीं हो सकता है। इसलिए यह धारणा रखना कि इसके किसी वैक्सीन की खोज कर लेने मात्र से मानव समाज उसी ढर्रे पर आ जाएगा, गलत अपेक्षा रखने जैसा है। मानव समाज को यह स्वीकार करना ही होगा कि हमारी चुनौती सिर्फ समाधान खोज लेने तक नहीं है, बल्कि सबक लेकर आगे की राह देखने की भी है. दूरगामी समाधान सबक लेने से ही निकलेगा। इस समस्या को अतीत मानकर बेतहाशा दौड़ में एकबार फिर कूद जाना, हमारी गलती होगी।
भविष्य में हमें इस बात का सटीक मूल्यांकन अवश्य करना होगा कि दुनिया को इस आपदा की कितनी कीमत चुकानी पड़ी है। साथ ही, हमें प्रगति के संतुलित और प्रकृति पोषक उपायों की दिशा में भी सोचना होगा। प्रगति के असीमित लक्ष्यों को हासिल करने की इच्छा पालने वाली दुनिया के समक्ष इस नए दौर में कोविड का संकट मानव सभ्यता के लिए एक ‘चेतावनी’ बनकर उभरा है। तकनीक और प्रकृति के प्रति संतुलित सोच का अभाव हमें समस्याओं के नए अंधकार में ही ले जाएगा।
हमें समझना होगा कि दुनिया पहले से ही प्राकृतिक रूप से संकट की स्थिति की तरफ बढ़ रही है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आए दिन बाढ़ और भूकंप की प्राकृतिक आपदाओं से मानव जीवन में संकट बढ़ रहा है। भू-संपति की सुरक्षा का स्तर अनिश्चित होता जा रहा है। ऐसे में वायरस शृंखला की विकटता नए किस्म के खतरे की आहट देने वाली है। सवाल उठता है कि कहीं हम जाने-अनजाने ऐसी दोहरी चुनौतियों को आमंत्रित तो नहीं कर रहे हैं?
भारत के संदर्भ में अगर बात करें, तो हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम प्रगति के संतुलित आयामों पर विचार करें। विकास के लक्ष्यों, उसकी सीमाओं और उसकी आवश्यकता को एक बार फिर परिभाषित करने की दिशा में व्यापक चर्चा को आगे बढ़ाएं। यह सवाल अब गंभीरतापूर्वक चर्चा की मांग करता है कि विकास की सीमा क्या है और संतुलित विकास के लक्ष्य क्या होने चाहिए। अपनी प्राथमिकताओं को भी चिह्नित करने की दिशा में अब सोचने की जरूरत है।
भारत की सामाजिक और भौगोलिक संरचना में बसावट के लिहाज से देखें, तो गांव, कस्बे और शहर संतुलित रूप से महत्व रखते हैं। बसावट की इस संरचना का न सिर्फ मानव जीवन बल्कि पशु-पक्षी, जीव-जंतु तथा पर्यावरण के लिए भी विशेष उपयोगिता है। जल-जंगल भी इस संरचना का हिस्सा हैं। अत: विकास के लक्ष्य और सीमाओं को तय करते समय हमें इस भौगोलिक संरचना की उपयोगिता को प्राथमिकता तथा इस संरचना की बसावट के सामाजिक महत्व को तरजीह देनी होगी। इसके सभी आयाम परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं, लिहाजा, इनके बीच समान और संतुलित विकास का होना भी उतना ही आवश्यक है। स्वच्छता, पर्यावरण और जल-संरक्षण की अनदेखी करके हम इसे प्राप्त नहीं कर सकते।
मानव जीवन की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऊर्जा के आधुनिक विकल्पों की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस आवश्यकता की पूर्ति को ऊर्जा स्रोतों के दोहन के रूप में न लेकर अनुकूल विकल्पों को अपनाते हुए हमें पर्यावरण के अनुकूल सौर ऊर्जा सहित ग्रीन-एनर्जी की ओर कदम बढ़ाना होगा।
जिन बदलावों की बात की जा रही है। उन बदलावों के लिए पहली आवश्यकता यह है कि समाज अपने सोचने की दृष्टि को भी बदलने का प्रयास करे। ऐसा करके ही हम अपने शौक की सीमा और आवश्यकता की पूर्ति का अंतर समझ पायेंगे। कहा जाता है कि शौक और आवश्यकता में सिर्फ इतना अंतर है कि शौक असीमित हो सकते हैं और आवश्यकताओं की सीमा होती है। इस धरती के संसाधन सिर्फ हमारे शौक या पसंद-नापसंद से संबंधित नहीं हैं, बल्कि इनसे मानव जीवन के अस्तित्व का सवाल भी जुड़ा है। इस कठिन दौर से उबरने के बाद समाज को अपनी आवश्यकता से जुड़े तमाम विषयों पर विचार करना होगा, जो उसके भविष्य के लिए उपयोगी हैं। स्वास्थ्य चिंतन को लेकर हमारे दृष्टिकोण में नवाचार होना आवश्यक है। बेहतर सुविधाओं, अस्पतालों के साथ-साथ हमें स्वास्थ्य के प्रति शिक्षित समाज के निर्माण पर भी सोचना होगा। इस क्षेत्र में युगानुकूल शोध, भावी चुनौतियों से निपटने की तैयारी तथा आरोग्य को प्रोत्साहित करने वाली आयुष प्रणाली को बढ़ावा देने की जरूरत होगी।
पिछले दशकों में समाज को बाजार के बदलते स्वरूप ने काफी प्रभावित किया है। यह प्रभाव कई मामलों में हमारे जीवन में हस्तक्षेप करने की सीमा तक पहुंचने लगा है। लिहाजा, बाजार को लेकर भी समाज की दृष्टि में बदलाव की जरूरत है। हमें समझना होगा कि बाजार समाज को असंतुलित ढंग से प्रभावित करने की स्थिति में न आए। प्रकृति की परवाह किए बिना बाजार को अंधी दौड़ में धकेलना, कहीं न कहीं संसाधनों के अनुचित दोहन को प्रोत्साहित करने जैसा है। बाजार का आर्थिक मॉडल नियंत्रित भले न हो, लेकिन इसका ध्यान रखना भी जरूरी है कि वह स्वच्छंद न हो जाए।
पिछले सात दशकों में भारत एक स्थिर और विश्वसनीय लोकतांत्रिक शक्ति बनकर उभरा है। भारत के राजनैतिक मॉडल की भी इसकी लोकतांत्रिक सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसे में हम भविष्य के बदलावों के आलोक में भारत की भूमिका पर चर्चा करेंगे, तो यह सवाल स्वाभाविक है कि भावी बदलावों के प्रति राजनीति की क्या भूमिका होगी? निश्चित ही कोई भी राजनैतिक दल वर्तमान में पैदा हुए वायरस के खतरे की अनदेखी नहीं कर सकता है। भविष्य में ऐसा कोई खतरा देश पर न आए, इसके लिए सकारात्मक उपायों की अनदेखी राजनैतिक दल नहीं कर सकते। अपने वैचारिक मतभेदों के बावजूद, सभी दलों को मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए ऐसे खतरों से निपटने के लिए एक पारदर्शी नीति तैयार करने के लिए आगे आना ही होगा। राजनैतिक दलों को एक ऐसे नीतिगत विषयों पर विचार करना होगा, जो विकास के ‘जीडीपी केंद्रित’ मॉडल तक सीमित न होकर सामान्य जनजीवन से जुड़े विषयों तथा आजीविका के प्रश्नों पर ठोस समाधान देने में सक्षम हो। भारत जैसे देश के लिए आजीविका की सुरक्षा पर एकजुटता सर्वाधिक आवश्यक है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपवादों को दरकिनार कर दें, तो वर्तमान महामारी में देश ने एक इकाई के रूप में एकजुटता दिखाई है। लगभग पूरे देश ने लॉकडाउन के दौरान घरों में रहने का जिम्मेदारी से पालन किया है। राज्य भी वायरस से लड़ने में केंद्र के साथ समन्वय स्थापित कर कार्य कर रहे हैं। आज जिस एकजुटता और अनुशासन का परिचय देश ने दिया है, भावी चुनौतियों से निपटने में भी इसी भावना की जरूरत है।
यह सवाल सबके मन में है कि इस कोविड के खतरे के बाद अर्थव्यवस्था में किस तरह के बदलाव आएंगे? जैसा हमने देखा है कि इतिहास में जब भी कभी ऐसी महामारी आई है, उसके सामाजिक, आर्थिक तथा वैश्विक परिणाम किसी न किसी रूप में प्रभावित करने वाले रहे हैं। कोविड के बाद का दौर भी परिवर्तनकारी होगा। सभी आकलन बताते हैं कि महामारी के परिणामस्वरूप आर्थिक मंदी की स्थिति पैदा होगी। हालांकि इसके प्रभाव का दायरा कितना अधिक होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हमने इस पर नियंत्रण पाने में कितना समय लगाया है।
आज वैश्वीकरण के दौर में जब कोविड के कारण सारी सीमाएं और आवागमन लगभग बंद हैं, तब वैश्विक अर्थ प्रणालियों की कमजोर कड़ियां सामने आ रही हैं। आर्थिक बदलावों के लिहाज से हमें आर्थिक रूप से अंतरराष्ट्रीय निर्भरता के क्षेत्रों पर पुनर्विचार करने की जरूरत होगी। एक, ‘राज्य इकाइयों के संघ’ के रूप में भारत को ऐसे मॉडल की तरफ बढ़ने की आवश्यकता है, जो बाजार को प्रभावित करने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्तियों पर असीमित रूप से निर्भर न हो। हमें इस संकटकाल से उबरने के लिए आर्थिक पुनरुद्धार के लिए वित्तीय पैकेजों को स्थायी आजीविका सुरक्षा के प्रति केंद्रित करना होगा तथा वैश्विक निर्भरता को कम करने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा। समाधान की बहस तात्कालिक होने के बजाय दूरगामी और मानव सभ्यता के लिए संतुलित तथा टिकाऊ हो, यह हमारी नीति-विषयक चर्चाओं के केंद्र में होना चाहिए। भविष्य के लिहाज से हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए स्थायी, प्रकृति अनुकूल, मानव हित में कदम उठाने होंगे। प्रगति के प्रति अपनी दृष्टि भी बदलनी होगी।
(लेखक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और राज्यसभा सदस्य हैं)
---------------
मानव समाज को यह स्वीकार करना होगा कि चुनौती सिर्फ समाधान खोजने तक नहीं है, बल्कि उससे सबक लेकर आगे की राह देखने की भी जरूरत है
---------------
संकटकालः स्वास्थ्य ढांचे में सुधार वक्त की जरूरत
------------
आर्थिक रिवाइवल के िलए वित्तीय पैकेजों को स्थायी सुरक्षा के प्रति केंद्रित करना होगा। और वैश्विक निर्भरता को कम करने की दिशा में कदम उठाना होगा