लॉकडाउन लागू हुए एक महीने से ज्यादा वक्त हो चुका है। इस दौरान यह तो स्पष्ट हो गया है कि गरीब की जिंदगी दूभर हो गई है। उनके जीवनयापन का आधार खोखला हो गया है। ऐसे में ये लोग कोरोना से मरेंगे या बचेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन फिलहाल वह बहुत बुरी स्थिति में जी रहे हैं। वे न केवल बेरोजगार हो गए बल्कि उनके पास जो थोड़ी-बहुत बचत थी, वह भी खत्म हो गई है। उनके पास खाने-पीने की वस्तुएं खत्म हो चुकी हैं, उनके बच्चों की शिक्षा रुक गई, कभी-कभार मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधा भी छिन गई। वे अपनी जिंदगी बचाने के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं।
अमीरों का एक भ्रम है कि देश के सारे गरीब सरकार पर निर्भर हैं। शायद लॉकडाउन ने इस भ्रम को थोड़ा तोड़ा होगा। लॉकडाउन होते ही अचानक लाखों मजदूर अपने कारखानों और बस्तियों से निकलकर अपने गांव की तरफ चल पड़े। साधन संपन्न वर्ग पूछने लगा कि ये कहां से निकल आए? हकीकत तो यह है कि ये ही तो देश में काम करने और उत्पादन करने वाले लोग हैं। आज तक उन्हें कोई न तो पहचान पाया और न ही समझ पाया। ये लोग कभी सरकार पर निर्भर नहीं रहे। वे अपने गांव से निकले थे कोई छोटा-मोटा रोजगार ढूंढ़ने। नौकरी नहीं रोजगार, जहां वे 8,000-10,000 रुपये महीने कमाकर अपनी जिंदगी चलाने का प्रयास करते थे। जो लोग अपने परिवारों को गांव में छोड़कर आते हैं, वे युवा आमतौर पर एक साथ रहते हैं। एक छोटे से कमरे में 10-12 मजदूर एक साथ रहते हैं। फैक्टरियों के अंदर सैकड़ों की संख्या में लोग काम करते हैं। उनकी जिंदगी चारदीवारी के अंदर सिकुड़ी हुई रहती है। ऐसी जगहों पर शारीरिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) रखना असंभव है और उसकी बात भी करना क्रूर मजाक है। लॉकडाउन होते ही उनको समझ में आ गया कि उनका रोजगार समाप्त हो रहा है, यदि कोरोना हो गया तो यहां भी नहीं बचेंगे और नहीं हुआ तो भी उन्हें कोई राहत देने वाला नहीं है। इसलिए वे बिना सरकार से कुछ मांगे, भटकते हुए सैकड़ों मील दूर अपने गांव पैदल ही निकल पड़े।
21 दिन खत्म होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर एक बार राष्ट्र को संबोधित किया और लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा कर दी। मजदूरों को फिर से हिदायत दी कि वे जहां हैं, वहीं रहें। लेकिन साधन संपन्न वर्ग के लिए दूसरे नियम हैं। तीर्थ यात्रियों, विद्यार्थियों और अमीर वर्ग के अन्य लोगों को घर पहुंचाने की व्यवस्था लगातार होती रही। लेकिन मजदूर वर्ग को कहा गया कि वे उन्हीं शिविरों में रहें या वापस उन्हीं जगहों पर लौटकर जाएं, जहां काम करते थे। मजदूरों को पता था कि वहां सोशल डिस्टेंसिंग नाम की कोई चीज ही संभव नहीं है, तो उनके मन में एक सीधा सवाल कौंधता था कि यह तकलीफ और त्याग, जिसकी प्रधानमंत्री अपने भाषणों में अपील करते रहे हैं, किनके फायदे के लिए है?
लॉकडाउन होने पर विदेशों से आने वाले प्रवासी भारतीयों को वापस लाने के लिए हवाई जहाज और चार्टर्ड विमान लगाए गए। उनके लिए एयरपोर्ट पर स्क्रीनिंग और उनको सुरक्षित घर पहुंचाने की व्यवस्था की गई। लेकिन मजदूरों को केवल चार घंटे का नोटिस दिया गया कि देश बंद होने वाला है। इससे लोग सड़कों पर आ गए और किसी भी तरह से घर पहुंचने का मन बनाया। गृह मंत्रालय ने एक आदेश दिया कि इन्हें जहां है, वहीं रोको और कैंपों में डाल दो। यहां तक कि हरियाणा सरकार ने आदेश दिया कि स्टेडियमों को अस्थायी जेल जैसा बनाओ और किसी भी सूरत में मजदूरों को बंद रखने की व्यवस्था करो। उच्चतम न्यायालय में सरकार ने आश्वसन दिया कि इन सभी मजदूरों को कम से कम 14 दिन तक वहीं बंद रखा जाएगा। जिन लोगों ने इज्जत के साथ अपनी रोटी कमाई थी और अब अपने घर जाना चाहते थे, उन्हें कैदी बना दिया गया और आगे के दिनों में खाने के लिए कटोरा लिए लाइनों में खड़ा कर दिया गया।
भारत ने एक विदेशी मॉडल ले लिया और भारत के मध्यम वर्ग और अमीर वर्ग ने एक बार भी नहीं सोचा कि वे अपने बड़े-बड़े घरों में हैं, जहां एक-एक कमरे में एक-एक व्यक्ति रहता है। इसके उलट जब इन मजदूरों ने खिड़कियों से बाहर झांककर देखा, तो उन्हें कहा गया कि आपको समझ में नहीं आता कि यदि यह दूरी नहीं रखेंगे तो हम सबमें वायरस फैल जाएगा।
प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन किया और गरीबों को मदद करने का उपदेश दिया। लेकिन सरकार ने उनके लिए कोई खास व्यवस्था नहीं की। 1.70 लाख करोड़ रुपये का पैकेज हकीकत में करीब 60,000 करोड़ रुपये का ही था। बाकी तो पहले से ही लोगों को मिलने वाले अधिकारों को सरकार ने इस समय दिलाने की व्यवस्था की। किसानों को 2,000 रुपये की मदद तो पहले ही पीएम किसान के तहत मिल रही थी। मनरेगा में मजदूरी हर साल महंगाई के साथ बढ़ती ही है, इसलिए इसे राहत पैकेज का हिस्सा कहना बिलकुल गलत है। मनरेगा का काम भी लॉकडाउन के साथ एकदम रुक गया। इसके तहत काम जो आपदा के समय एक वैकल्पिक रोजगार के रूप में उपलब्ध रहना चाहिए, वह काम बंद था तो मनरेगा से कौन सी राहत? सरकार ने आदेश देकर फैक्टरी और कंपनी मालिकों को अपने मजदूरों को लॉकडाउन के समय पूरी मजदूरी देने की हिदायत दी। लेकिन सरकार ने खुद अपने रोजगार गारंटी, मजदूरों के चलते काम में मस्टर रोल बंद करके कमाई का यह जरिया भी छीन लिया। मनरेगा में बेरोजगारी भत्ते का भी प्रावधान है। लेकिन बेरोजगारी भत्ता भी नहीं दिया।
लॉकडाउन के दो-तीन दिन के बाद ही भुखमरी की कहानियां आने लगीं। हजारों-लाखों की संख्या में फंसे मजदूरों की दास्तान सामाजिक कार्यकर्ताओं, विद्यार्थियों, शिक्षकों और सचेत नागरिकों के समूह स्टैंडर्ड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क ने अपने अध्ययन के माध्यम से पेश की। 10,000 मजदूरों से सवाल पूछने पर जो जवाब मिले, वे चौंकाने वाले और रुलाने वाले भी हैं। इन मजदूरों में से 89 फीसदी को मालिकों ने लॉकडाउन के समय कोई पैसा नहीं दिया। 44 फीसदी मजदूरों के पास कोई पैसा और राशन बचा नहीं था। 78 फीसदी मजदूरों के पास जेब में 300 रुपये भी नहीं थे और 96 फीसदी लोगों को सरकार से कोई राशन नहीं मिला था। ये बातें सुप्रीम कोर्ट में प्रवासी मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए दायर की गई जनहित याचिका में रखी गईं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम सरकार की रिपोर्ट को ही मानेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रवासी मजदूरों की किसी बात पर ध्यान नहीं दिया और सरकार को ही शाबाशी दी।
लॉकडाउन को आगे बढ़ाते समय 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने देश के सामने सात सूत्रीय फॉर्मूला रखा, जिसमें उन्होंने बताया कि लोग कैसे कोरोना वायरस के प्रकोप से बच सकते हैं। उन्होंने कहा कि बुजुर्गों का ध्यान रखें, जबकि केंद्र सरकार ही बुजुर्गों को मात्र 200 रुपये महीना पेंशन देती है और वह भी बीपीएल परिवार वाले बुजुर्गों को। बाकी दो तिहाई बुजुर्ग इस समय कहां से खाएंगे और कैसे जिएंगे? बुढ़ापे में वह कमा नहीं सकते हैं और किसी काम पर जा नहीं सकते हैं। उनको 200 रुपये की पेंशन भी नसीब नहीं है और न ही नसीब होंगे वे 1,000 रुपये जो सरकार बुजुर्गों को देगी।
अन्य छह सूत्रों में प्रधानमंत्री मालिकों को उपदेश देते हैं कि वे मजदूरों को मजदूरी दें, लेकिन मनरेगा के मजदूरों को भूल जाते हैं। प्रधानमंत्री अमीरों को कहते हैं कि गरीबों का ध्यान रखें लेकिन बार–बार अनुरोध करने पर भी देश के गोदामों में सड़ रहे अनाज को अभी भी मजदूरों को भूख से बचाने के लिए बांटने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री ने सबको अपने स्मार्टफोन पर आरोग्य सेतु एप डाउनलोड करके कोरोना से बचने का सुझाव दिया। कितने गरीबों के पास स्मार्टफोन हैं?
कनिका शर्मा नामक शोधकर्ता ने बताया कि लॉकडाउन में अभी तक कम से कम 270 मौतें हुई हैं। लॉकडाउन की वजह से करोड़ों परिवार गरीबी की तरफ धकेले जा रहे हैं और करोड़ों परिवारों को भुखमरी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे समय में सरकार को ही नेतृत्व करके सबको रास्ता खोजने की हिम्मत और साहस दिलाना पड़ेगा। आगे के रास्ते के लिए चार मुख्य उपाय हैं जो हमारे देश की कार्य क्षमता में है। भूखे पेट के साथ न कोई इंसान और न ही कोई समाज किसी बड़ी चुनौती का सामना कर सकता है। देश के गोदामों में रखे अनाज को सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए उपलब्ध कराना चाहिए, जिसमें बिना कोई विशेष पहचान मांगे हर इंसान को अनाज उपलब्ध कराना चाहिए। दूसरा, भयंकर बेरोजगारी का सामना करने के लिए एक सर्वव्यापी आपदा रोजगार गारंटी कार्यक्रम चलाना चाहिए, जिसमें हर व्यक्ति को न्यूनतम मजदूरी पर काम की गारंटी मिले ताकि उसे अपना परिवार बचाने का विश्वास हो। रोजगार गारंटी के काम गांव और शहर में साल भर चलाने होंगे जिसमें 100 दिन की सीमा न हो और ऐसे काम कराए जा सकें जिनसे कोरोना संकट का सामना किया जा सकता है। तीसरा बिंदु सबको बराबर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना है। इसका सामना एक व्यापक सार्वजानिक और समान जन स्वास्थ्य ढांचे से ही होगा, जहां हमें निजी अस्पतालों और स्वास्थ्य कर्मियों को भी सार्वजानिक क्षेत्र में अधिग्रहीत कर लेना चाहिए।
आखिर में, भारत की सबसे बड़ी ताकत उसका मानव संसाधन है। घर में बैठकर कुछ ही लोग काम कर सकते हैं और कुछ ही काम हो सकते हैं। हर मोहल्ले, पंचायत और इलाकों में भी लोगों को बंधुत्व के आधार पर अर्थव्यवस्था, समाज और देश चलाने का रचनात्मक तरीका ढूंढ निकालना होगा। यह ऐसा समय है जब सरकार को दिखाना पड़ेगा कि वह गरीबों, मजदूरों और किसानों के लिए है, या साधन संपन्न ताकतवर लोगों के लिए ही काम करेगी। जैसे प्रधानमंत्री ने कहा कि कोरोना वायरस जाति, धर्म और पैसे को नहीं पहचानता, मजदूर वर्ग को हमारे शासकीय वर्ग ने नहीं पहचाना। लेकिन शायद अब मजदूर वर्ग शासन को पहचानने लगा है। कोरोना से लड़ने की भी एक राजनीति है। यह न्याय, समानता, आजादी और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों पर आधारित हो तो शायद हम मिलकर इस महामारी का सामना कर पाएंगे।
(दोनों लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और मजदूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक सदस्य हैं)
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सरकार द्वारा घोषित 1.70 लाख करोड़ रुपये का पैकेज, हकीकत में केवल 60 हजार करोड़ रुपये का ही है। बाकी तो पहले से मिलने वाले अधिकार ही दिए गए हैं
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शायद मजदूर वर्ग अब शासकों को पहचानने लगा है। ऐसे में, कोरोना से लड़ाई न्याय, समानता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों पर चलकर लड़नी चाहिए