इस साल का मानसून 25 साल में सबसे बेहतरीन बारिश लेकर आया। भले ही शुरुआत थोड़ी देरी से हुई और अनुमान लगाने वाले विशेषज्ञ ‘अल नीनो’ के असर की बात कर रहे थे, लेकिन असल कहानी उससे बहुत अलग रही। देश के अधिकांश जलाशय अपनी क्षमता के 90 फीसदी भरे हुए हैं। दूसरे जल स्रोत भी लबालब हैं और भूजल स्तर में भी सुधार हुआ है। यानी वह सब कुछ है जो आगामी रबी की फसल को बंपर बनाने के लिए होना चाहिए। इसका नतीजा यह होगा कि अधिकांश कृषि उपजों की उपलब्धता अधिक रहेगी। प्राकृतिक मोर्चे पर इतना सब कुछ बेहतर है, लेकिन सरकार का ध्यान अब भी इधर नहीं है।
यह ऐसी परिस्थिति है जो देश की अर्थव्यवस्था में चल रही सुस्ती को दूर करने का एक बेहतर मौका दे रही है। अर्थव्यवस्था में कमजोरी की शुरुआत कृषि और ग्रामीण क्षेत्र यानी ‘भारत’ से ही शुरू हुई थी, लेकिन इसकी आंच तब महसूस की गई जब यह ‘इंडिया’ यानी गैर कृषि क्षेत्रों में पहुंची। लेकिन खेदजनक बात यह है कि आर्थिक कमजोरी का हल ढूंढ़ने के लिए जो पैकेज और सुधार लागू किए जा रहे हैं, उनमें फोकस कॉरपोरेट जगत और स्टॉक मार्केट ही हैं।
2014 में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कृषि जिंसों की कीमतों में आई गिरावट से इसकी शुरुआत हुई, जिसका सीधा असर देश में कृषि उपजों की कीमतों में गिरावट के रूप में सामने आया। इससे किसानों की आमदनी तेजी से घटी। उसके बाद सरकार ने कृषि उपजों की स्टॉक सीमा पर कई तरह के नियंत्रण लागू किए। फिर महंगाई दर का लक्ष्य तय कर दिया गया। इसके लिए भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के बीच करार हुआ। नतीजतन, न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी सीमित करने के साथ ही कीमतों पर नियंत्रण के उपाय लागू किए गए। उसके बाद रही-सही कमी नोटबंदी ने पूरी कर दी और उसने कृषि जिंस कारोबार को ही तोड़ कर रख दिया। इन तमाम परिस्थितियों के चलते कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था अभी तक नहीं उबर पाई है और इसके चलते उपभोक्ता उत्पादों से लेकर ऑटोमोबाइल तक की मांग पर जबरदस्त असर पड़ा, क्योंकि ग्रामीण भारत बड़ी मांग भी पैदा करता है। इसलिए उसकी आय में गिरावट का नतीजा मांग में गिरावट के रूप में सामने आया।
लेकिन जब कमजोर विकास दर का हल ढूंढ़ने की बारी आई तो सरकार कॉरपोरेट टैक्स में कटौती से लेकर स्टॉक मार्केट में निवेशकों को छूट देने और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) के लिए शर्तें आसान करने में रास्ता तलाशने लगी, जबकि इसका हल कहीं और है। उसके लिए सरकार को इंडिया की जगह भारत पर फोकस करना होगा। सरकार को कृषि क्षेत्र में सुधारों को लागू करने पर विचार करना चाहिए। बेहतर होगा कि इसकी शुरुआत कृषि जिंसों के कारोबार को उदार करने से की जाए। आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव कर जिंसों की स्टॉक सीमा समाप्त की जानी चाहिए। अगर किसी के पास स्टॉक रखने का विकल्प ही नहीं होगा तो वह स्टोरेज सुविधा पर निवेश क्यों करेगा?
इसके अलावा, देश में कृषि जिंसों की आंतरिक आवाजाही को पूरी तरह से मुक्त कर देना चाहिए। साथ ही मंडी में होने वाली खरीद-फरोख्त पर नकदी सीमा के नियमों को पूरी तरह से समाप्त करना चाहिए, क्योंकि कृषि उत्पादों की बिक्री के बाद किसान को नकद पैसे की जरूरत सबसे ज्यादा होती है। वह ऑनलाइन ट्रांसफर के झंझट और उसमें होने वाली देरी से बचना चाहता है। भले ही ऑनलाइन ट्रांसफर को जल्द भुगतान के विकल्प के रूप में प्रचारित किया जाता हो, कृषि उत्पादों की बिक्री करने वाले किसानों के मामले में प्रक्रियागत मसलों के चलते इस तरीके से भुगतान में एक सप्ताह से 15 दिनों की देरी हो जाती है। निर्यात पर किसी भी तरह का अंकुश समाप्त करने की भी दरकार है, ताकि कृषि उत्पादों के लिए दीर्घकालिक विदेशी बाजार खड़ा किया जा सके।
लेकिन सरकार है कि घरेलू स्तर पर कदम उठाने के बजाय रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) के जरिए दूसरे देशों के कृषि और डेयरी उत्पादों के लिए भारतीय बाजार खोलने की दिशा में आगे बढ़ रही है। यह घातक साबित हो सकता है। इस पर जरूर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, ताकि किसानी की दशा कुछ सुधर सके। इसके लिए सरकार को 25 साल के सबसे बेहतर मानसून ने अच्छा मौका दिया है। जिस ‘भारत’ से मंदी का दौर शुरू हुआ था, वही इसे दूर करने का मौका दे रहा है। जरूरत है तो सरकार को अपनी प्राथमिकताएं बदलने की।