राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और पूर्व राज्यसभा सदस्य देवीप्रसाद त्रिपाठी एक ऐसे समय सबको अलविदा कह गए जब उनकी सबसे अधिक जरूरत थी। उर्दू के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ और उनके परिवार के वे बहुत नजदीक थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से उन्हें बेहद प्यार था, क्योंकि उनकी राजनीतिक और बौद्धिक परवरिश वहीं हुई थी। आज इन दोनों पर हमले हो रहे हैं। संभवतः अधिक लोगों को यह न पता हो कि डीपीटी के नाम से पुकारे जाने वाले देवीप्रसाद त्रिपाठी मूलतः कवि थे और साहित्यकारों के साथ उनकी घनिष्ठता के पीछे यही कारण था। पाकिस्तान की प्रख्यात कवयित्री फ़हमीदा रियाज़ दिल्ली में अक्सर उन्हीं के घर ठहरती थीं। उनसे और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ साहित्यकार यू.आर. अनंतमूर्ति और मॉरीशस के हिंदी लेखक अभिमन्यु अनत से कई बार मेरी मुलाकात त्रिपाठी जी के घर पर ही हुई। साहित्यिक अभिरुचि और विचार के विश्व में गहरी पैठ के कारण ही लगभग दो दशक पहले उन्होंने ‘विचार न्यास’ की स्थापना की और थिंक इंडिया नाम से वैचारिक-साहित्यिक विमर्श पर एकाग्र स्तरीय पत्रिका का संपादन किया।
मेरे साथ उनकी प्रगाढ़ मित्रता थी और वह 46 साल पुरानी थी। चार महीने पहले जब मेरा पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ, तो मैंने उन्हें उसकी प्रति यह लिखकर भेंट की—“आधी सदी के पूरे दोस्त देवीप्रसाद त्रिपाठी को”। 1972 में मैं एक वर्ष रुड़की विश्वविद्यालय में इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग पढ़कर वापस अपने कस्बे नजीबाबाद, जो उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में है, लौट आया था और साहू जैन कॉलेज में बी.एस.सी. पूरी कर रहा था। उस समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विभूति नारायण राय, दिनेश कुमार शुक्ल, मोहम्मद शीस खां, कृष्ण प्रताप सिंह, देवीप्रसाद त्रिपाठी और कुछ अन्य साहित्यप्रेमी छात्र मिलकर ‘परिवेश’ नाम की पत्रिका निकालते थे। इसमें मेरी भी कुछ कविताएं छपीं और इस तरह बिना मिले ही इन सब से मेरा परिचय हो गया। इनमें से सिर्फ विभूति नारायण राय से मेरी भेंट हुई थी। फिर ऐसा संयोग हुआ कि 1973 में मैंने और त्रिपाठी जी ने जेएनयू में एम.ए. में प्रवेश ले लिया। मैंने प्राचीन भारतीय इतिहास और उन्होंने राजनीति शास्त्र पढ़ने के लिए। कावेरी हॉस्टल की तब एक ही विंग बनी थी और बस मेस बना था। दूसरी विंग और गोदावरी हॉस्टल बन रहे थे। हम दोनों ने अगल-बगल के कमरे अलॉट कराए। मेरा 104 और उनका 105, और इस तरह हम पहले दिन से ही मित्र बन गए। यह मित्रता लगातार प्रगाढ़ होती गई और इसमें एक क्षण के लिए भी कभी किसी किस्म का तनाव नहीं आया। त्रिपाठी जी में हर प्रकार के व्यक्ति के साथ जुड़ने और संवाद स्थापित करने की अद्भुत क्षमता थी। उन्हें हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत के अलावा बांग्ला पर भी पूर्ण अधिकार था। अपनी मातृभाषा अवधी के अलावा वे भोजपुरी भी फर्राटे से बोल लेते थे। पहले उन्होंने ‘वियोगी’ उपनाम से कविताएं लिखीं और इलाहाबाद के उनके मित्र-परिचित अक्सर उन्हें वियोगी ही कहते थे। कुछ कविताएं ‘अग्निवेश’ के नाम से भी लिखीं। बाद में कविताएं लिखना तो बंद हो गया लेकिन कविता में रुचि पहले जैसी ही बनी रही। मेरे और उनके बीच वही प्रथम सेतु थी।
बहुत छुटपन में ही उनकी आंखें खराब हो गई थीं और उन्हें बहुत कम दिखाई देता था। सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) की तहसील कादीपुर के गांव मलिकपुर नोनरा में एक किसान परिवार में उनका जन्म हुआ था जो अक्सर अभावों से जूझता रहता था। इन परिस्थितियों में त्रिपाठी जी की परवरिश और शिक्षा-दीक्षा हुई। लेकिन इन सभी बाधाओं और सीमाओं का उन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर अतिक्रमण किया। उनकी जैसी स्मृति वाला व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा। खराब आंखों के बावजूद उनमें पढ़ने का बेहद चाव था। उन्हें पढ़ते देखना भी एक अनुभव था। लगता था वे पढ़ नहीं रहे, स्कैन कर रहे हैं। कभी उन्होंने फोन नंबर या पते के लिए डायरी नहीं रखी। हर चीज एक बार पढ़ने या सुनने के बाद उन्हें याद हो जाती थी।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनका संपर्क अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से हुआ लेकिन जेएनयू आते-आते वे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित हो गए। जेएनयू में उनका परिचय मार्क्सवाद से हुआ और शीघ्र ही उन्होंने स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की सदस्यता ग्रहण कर ली। उसके बाद तो वे पहले छात्रसंघ के काउंसिलर बने और फिर अध्यक्ष चुने गए। वे असाधारण वक्ता थे और हिंदी एवं अंग्रेजी में समान अधिकार से बोलते थे। अद्भुत स्मरणशक्ति के कारण वे बाकायदा पृष्ठ संख्या और पैरा संख्या उद्धृत करके अपनी बात को पुष्ट करते थे और श्रोता मंत्रमुग्ध रह जाते थे। वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी रहे और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कुछ वर्ष तक अध्यापन करने के दौरान इसके सक्रिय कार्यकर्ता रहे। जब इमर्जेंसी लगी तो कुछ माह भूमिगत रहने के बाद उनकी गिरफ्तारी हो गई और लगभग अठारह महीने उन्होंने जेल में गुजारे। कुछ समय वे चंद्रशेखर के भी नज़दीक रहे लेकिन फिर राजीव गांधी के निकट सलाहकार और रणनीतिकार बन गए। शरद पवार ने उनकी राजनीतिक क्षमता को पहचाना और अपनी पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता और महासचिव बनाया, और फिर राज्यसभा में भी भेजा।
1980 में त्रिपाठी जी फ़ैज़ को इलाहाबाद ले गए और जब लोगों ने फ़िराक़, फ़ैज़ और महादेवी वर्मा को एक ही मंच पर देखा, तो उन्होंने दांतों तले अंगुली दबा ली और माना कि यह करिश्मा सिर्फ डीपीटी ही कर सकते हैं। आज जब फ़ैज़ और जेएनयू दोनों सांप्रदायिक ताकतों के निशाने पर हैं, उनका निधन एक ऐसी क्षति है जो लंबे समय तक महसूस की जाएगी। “बड़े शौक से सुन रहा था जमाना, तुम्हीं सो गए दास्तां कहते-कहते।”
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देवीप्रसाद त्रिपाठी
(29 नवंबर 1952 - 2 जनवरी 2020)