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9 जनवरी 2023 · JAN 09 , 2023

मेरे पिता : आदिवासियत क्या होती है मैंने पिता से जाना

उनका सबसे बड़ा योगदान यही रहा कि उन्होंने आदिवासी समाज को राष्ट्रीय फलक पर ला दिया
मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा

जयंत पाल

पुत्र : जयपाल सिंह मुंडा

उस समय मैं महज 13 साल का था जब पिता की मौत हुई। पिता यानी मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा। देश में पहले आदिवासी भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी। हिंदुस्तान को हॉकी में ओलंपिक में पहला स्वर्ण पदक दिलाने वाले, झारखंड पार्टी के संस्थापक और पहली संसद में सांसद चुने जाने वाले। इसके बाद जीवनपर्यंत 1970 तक वे सांसद रहे। आदिवासियों के हित, अस्तित्व के लिए जंग लड़ने वाले सिपाही। वे कितने लोकप्रिय थे इसका पता उनके निधन के बाद चला। उनके पार्थिव शरीर को जब रांची लाया गया, तब श्रद्धांजलि अर्पित करने आए लोगों की संख्या एक लाख था। उनके जीते जी हमने कभी कोई स्पेशल प्रिविलेज इंज्वाय नहीं किया। उन दिनों ऐसी परंपरा भी नहीं थी।

उनकी मृत्यु को 52 साल हो गए। उनका सबसे बड़ा योगदान यही रहा कि उन्होंने आदिवासी समाज को राष्ट्रीय फलक पर ला दिया। वरना बाहर से आए लोग जो यहां बसे हैं उनका एक ही काम था, आदिवासियों को किनारे कर उनकी जमीन पर कैसे कब्जा किया जाए। जब अंग्रेज चले गए तो झारखंड क्षेत्र चार स्टेट में बांटा गया, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बंगाल और झारखंड। पिता जी ने चारों क्षेत्र मिलाकर अलग राज्य की आवाज उठाई थी। हम लोगों के लिए संविधान सभा में जो मांग रखी गई थी उसे पूरी तरह खारिज किया जा रहा है। पिता जी का यह सपना अभी अधूरा है। पिताजी ने अपना रास्ता बनाया। उनमें एक क्वालिटी लीडरशिप की थी जो खेल के मैदान में और दूसरी जगह दिखती थी। लीडरशिप बिना बुद्धि के नहीं आ सकती। जब आप एक टीम गेम में हिस्सा लेते हैं तो एक क्वालिटी विकसित होती है। टीम में अनफेयर प्ले करेंगे तो मार खाएंगे। इसी मूल गुणवत्ता से उनकी नींव पड़ी। नौकरी की तो हर दो-तीन साल में नौकरी छोड़ देते थे। वे आइसीएस अफसर भी हुए, मगर अंग्रेज सरकार से वैचारिक मतभेद के कारण नौकरी छोड़ दी थी। उसके बाद कोलकाता की कंपनी बर्मा सेल जॉइन की, फिर छोड़ दी। वजह यह रही कि उन्हें कहा गया कि आप अधिकारी हैं, तो जो लिफ्ट अंग्रेजों के लिए है उसी का इस्तेमाल करें। उनका कहना था कि मैं अंग्रेज नहीं हूं। इंडियन के लिए बनी लिफ्ट का ही वे इस्तेमाल करते थे। नतीजतन उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। बर्मा सेल कोलकाता की कंपनी थी जिसमें वे पहले भारतीय थे जिन्हें बड़े अफसर का पद मिला था।

ऐसी छोटी घटनाओं से पता लगता है कि उन्हें अपनी आदिवासियत पर बहुत गर्व था, हम किसी से कम नहीं हैं वाला भाव था। ये मेरी जमीन है, ये मेरी जायदाद है। किसी दूसरे की नहीं है। यही आदिवासियत है। आजादी के बाद जब संविधान लागू हुआ, अंग्रेजों के निकलने के बाद बिहारी राज हुआ जिसमें आदिवासियों का कोई बोलबाला नहीं था। सीएनटी एक्ट होते हुए भी कितने बिहारी बस गए पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में, जबकि उन्हें इसका कोई अधिकार नहीं था। अब जाकर उसके असर का पता चल रहा है। राष्ट्र-निर्माण में आदिवासियों ने ही सर्वाधिक योगदान दिया। स्टील प्लांट, डैम, खदान सबमें आदिवासियों की ही जमीन गई।

 कई बड़ी कंपनियों में बड़ी जिम्मेदारी निभाने के बाद अब 65 साल की उम्र में मैंने अपने गांव खूंटी जिले के टकरा को ठिकाना बनाया है। जो बच्चे स्कूल नहीं जा पाते उनके लिए प्ले स्कूल चला रहा हूं। गांव में ही हॉकी अकादमी चला रहा हूं जिसमें अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी ओलंपियन मनोहर टोप्पनो अध्यक्ष हैं और मैं सचिव। कई राष्ट्रीय स्तर के पूर्व हॉकी खिलाड़ी इससे जुड़े हैं। अभी 70 बच्चे हॉकी का प्रशिक्षण ले रहे हैं। यह एक प्रकार से पिता के सपनों को आगे बढ़ाने में छोटा सा प्रयास है। पिताजी ने मुझे एक गुण मिला, आदिवासी हो तो गर्व करो। वे अनुशासनप्रिय थे। कहते थे, बदमाशी करोगे तो दंड मिलेगा। ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के लिए आधारभूत संरचना का अभाव है। खेल में प्रतिभा की कमी नहीं है। दरवाजा खेल के माध्यम से खुलेगा, लेकिन पढ़ाई भी जरूरी है। अच्छे कॉलेजों में नामांकन के लिए 90-95 प्रतिशत चाहिए। मेजोरिटी के लिए यह संभव नहीं। हां, खेल में देखिएगा तो 90 प्रतिशत बच्चे पार हो जाएंगे।

(लेखक जयंत पाल टाटा स्टील, हाइड्रो पेट्रो केमिकल, एफआर स्टील, लैम्कोकोलकाता फुटबॉल-क्रिकेट क्लब के सीईओ रह चुके हैं।)

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