मृदुला गर्ग
पुत्री : बीरेन्द्र प्रसाद जैन
मेरे पिता बीरेन्द्र प्रसाद जैन जवानी में आजादी के अंदोलन में शरीक रहे। उस कॉरपोरेट जगत में नौकरी की, जिसकी मेहमाननवाजी गांधीजी ने स्वीकार की थी और डायरेक्टर के पद तक पहुंचे। अजीब बात यह है कि उनकी शख्सियत को समझने के लिए सबसे मौजूं है उनका इंतकाल।
उससे पहले अन्य घटना का जिक्र करना होगा। सत्तर के दशक में दिल्ली में एक सनसनीखेज खून हुआ था, जिसके नायक-खलनायक आंखों के मशहूर डॉक्टर पद्मश्री एन.एस. जैन थे। उन्होंने पिताजी की आंखों का ऑपरेशन भी किया था। खलनायिका थी महबूबाओं में से एक चन्द्रेश और शिकार उनकी बीवी। चन्द्रेश अड़ गई कि बीवी को तलाक दे, उससे शादी करें। बदनामी हुई थी, कुछ अपना हक मजबूत करने को उसने जान-बूझ कर करवाई थी। डॉ. जैन ने रुपये-पैसे का लालच दिया, सब बेअसर रहा। जायदाद दे बीवी को तलाक पर राजी करना चाहा, वे न मानीं। जब एक अनजान आदमी ने शौहर की दूसरी तरफ से गाड़ी में बैठती बीवी पर दनादन गोलियां चलाईं और मौका-ए-वारदात पर उनकी मौत हो गई, तब भी किसी ने डॉ. जैन को कुसूरवार न माना। दस्तूरे दुनिया, सुपारी दे करवाए कत्ल का जुर्म औरत के माथे मढ़ दिया गया। जाहिर तौर पर चन्द्रेश ने ही कातिल गुंडों से संपर्क किया था। जब वह बार-बार साजिश में डॉ. जैन के शामिल होने पर जोर देती गई तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बेमुरव्वत तफ्तीश के बाद उन्होंने जुर्म कबूल कर लिया और चन्द्रेश के साथ उन्हें उम्र कैद हो गई।
जैन की तारीफ में कसीदे काढ़ने वाले उनके रिश्तेदार-दोस्त उनका नाम लेने से बचने लगे, पर पिताजी नहीं। मैंने पिताजी से निहायत बचकाना सवाल किया, “सोच कर कैसा लगता है, एक कातिल ने आपकी आंखों का ऑपरेशन किया?” उन्होंने संजीदगी से जवाब दिया, “कातिल हैं फिर भी डॉक्टर काबिल हैं। मेरा ऑपरेशन कातिल ने नहीं, डॉक्टर ने किया था। तुम लेखक होने जा रही हो। इतना नहीं समझतीं कि कभी-कभी मर्द एक औरत से इश्क कर जिस्मानी रिश्ता बना लेता है। जब निजात चाहता है, तो पता चलता है फसाने की तमाम डोर औरत के हाथ में है। शरीफ आदमी, बिला चाहत बीवी और माशूका, दोनों को निभाता जाता है पर हर शख्स यह तवासुन नहीं बना पाता। लाचारगी और नाउम्मीदी के गर्त में गिर वहशी हो उठता है। जिसे हालात ने ऊचाई पर पहुंचा कर डींग मारना सिखला दिया पर जब्त रखना नहीं। डॉक्टर काबिल हो तो काबिल ही रहता है, सिर्फ कातिल नहीं होता। मैं डॉ. जैन का शुक्रगुजार हूं।”
पिताजी ने उस वक्त जो कहा, हमेशा याद रहा। तब कहां जानती थी, मसल उन पर लागू होने वाली थी पर कमजोर वे कतई न थे इसलिए कातिल होना दूर, मम्मी के नाज-नखरे उठाने में भी कमी न आने दी। इंतकाल होने तक एक के बजाय दो औरतों के नाज उठाते रहे। उनकी मृत्यु उतनी ही सभ्य और भव्य थी जितनी जिंदगी। एक दोपहर उद्योग भवन में अंतरराष्ट्रीय मीटिंग में तकरीर कर रहे थे कि पेशानी पर पसीना आया। जेब से रुमाल निकालने में नाकाम। पीछे बैठे पी.ए से कहा, “मेरा रुमाल निकाल दो।” उनकी जेब में हाथ डालने की उसकी हिम्मत न हुई। तब पिताजी ने सबको संबोधित कर कहा, “एतराज न हो तो मैं बैठ जाऊं।” कोई कुछ समझ पाता, उससे पहले बैठ कर प्राण त्याग दिए।
किसी ने घर फोन किया। मंजुल (बहन) ने उठाया। खुद शक्कर की मरीज थी, इसलिए दिमाग में संभावित हाइपोग्लेसेमिया हावी था। ग्लूकोज का डिब्बा ले ड्राइवर के साथ उद्योग भवन दौड़ी। पिताजी को विलिंगडन ले अस्पताल दौड़े। डॉक्टर की भरसक कोशिश दिल की बंद धड़कन चला न पाई। तब उनकी भव्यता कायम रखने के लिए उन्होंने सुझाव दिया, घर ले जाएं और पारिवारिक डॉक्टर से डेथ सर्टिफिकेट ले लें वरना पोस्टमार्टम होगा। “लेट हिम कीप हिज डिगनिटी।”
मंजुल ने पूछा, “हम कितना पहले लाते तो बच सकते थे?” डॉक्टर ने कहा, “दो दिन पहले। परसों इन्हें साइलेंट हार्ट अटैक आया होगा। डायबिटीज में आ जाता है। आप लोगों से तबीयत खराब होने के बारे में कहा नहीं?” सहसा पी.ए बोला, “मुझे तो पता ही नहीं था जैन साहब को डाइबिटीज है।” डॉक्टर की हमदर्दी चुक गई। पी.ए अकेला इंसान न था जिसे मालूम न था कि जैन साहब को शक्कर और उच्च रक्तचाप की बीमारियां थीं। तब यह कैसे पता होता कि 62 साल की उम्र में ही दो बीमारियां अतिगंभीर मोड़ पर पहुंच चुकी थीं। बीवी और प्रेमिका को मालूम था पर वे उन्हें आजाद न छोड़ पाई थीं। एक आला इंसान, एक औरत को गम के गर्त में डुबो और दूसरी को रईसी के खात्मे के दर्द में फंसा, चुपचाप चल बसा।
(साहित्य अकादेमी प्राप्त ख्यात लेखिका)