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छापे और छिपाने के खेल

चुनाव के दौरान आयकर विभाग की विवादास्पद छापेमारी और पैसे की बढ़ती अहमियत से लोकतंत्र में समान अवसर का सिद्धांत बेमानी बन गया तो पूरी प्रक्रिया ही संदिग्ध हो जाएगी
आइटी के छापों पर उठ रहे सवाल

देश में चुनाव हो रहे हैं और चुनाव में पैसे का महत्व लगातार बढ़ता जा रहा है। चुनाव एक बड़ी और खर्चीली लोकतांत्रिक प्रक्रिया में तब्दील होते जा रहे हैं। ऐसे में समान अवसर के साथ प्रतिस्पर्धा का मुद्दा गौण हो गया है। इसका कुछ जिम्मा चुनाव आयोग का है और कुछ ताकतवर राजनैतिक दलों का। लेकिन कुछ मसले ऐसे हैं जो निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करते हैं। पहली बार चुनावों के दौरान आयकर विभाग जबरदस्त छापेमारी कर रहा है। ताजा घटना तमिलनाडु में द्रमुक के दिग्गज दिवंगत करुणानिधि की बेटी कनिमोझी के घर पर दूसरे चरण के मतदान के दो दिन पहले विवादास्पद छापेमारी की है। बाद में आयकर विभाग ने कुछ साफ नहीं किया लेकिन खबरें आईं कि कनिमोझी के घर में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला। आयकर विभाग को मिली जानकारी सही नहीं थी। क्या बिना सही जानकारी के की गई इस कार्रवाई का कनिमोझी की चुनाव जीतने की संभावना पर कोई असर नहीं पड़ेगा? कुछ समय के लिए ही सही उनकी नैतिकता सवालों के घेरे में रही। इसलिए आयकर विभाग के इस कदम को जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

पिछले दिनों कुछ कांग्रेसी नेताओं और दूसरे विपक्षी दलों के नेताओं तथा उनके करीबियों पर भी आयकर विभाग ने ताबड़तोड़ छापेमारी की थी। मामला चुनाव आयोग तक पहुंचा। विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि उनको जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है। हालांकि सत्तारूढ़ पार्टी के एकाध छोटे-मोटे पदाधिकारी को छोड़ दें तो वह इस छापामारी से बाहर ही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनाव सभाओं में कांग्रेस नेताओं के करीबियों के यहां हुई छापेमारी को मुद्दा भी बनाया। विपक्ष के आरोपों के बाद चुनाव आयोग को आयकर विभाग और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को निर्देश देना पड़ा कि कहीं भी छापेमारी करने के पहले आयोग को जानकारी दें। लेकिन कनिमोझी के मामले में चुनाव आयोग को जानकारी की बात भी देर से साफ हुई।

अब सवाल उठता है कि जब केंद्र में चुनाव के दौरान एक कामचलाऊ सरकार है तो इतने बड़े फैसले कौन ले रहा है? पिछले कई लोकसभा चुनावों के दौरान नकदी पकड़े जाने की खबरें तो आती रही हैं और इस बार भी नकदी पकड़ी जा रही है, लेकिन आयकर के छापे इस तरह शायद कभी नहीं पड़े। वैसे भी आयकर छापों का इतिहास यह भी रहा है कि तमाम बड़े छापों की अंतिम परिणति क्या हुई, इसका खुलासा नहीं हुआ।

इससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि क्या चुनाव पैसे से प्रभावित हो रहे हैं। जवाब हां में है। चुनाव आयोग की पूरी कोशिशों के बावजूद पैसा किसी न किसी रूप में चुनाव पर असर डाल रहा है। नकद चंदे तो ज्यादातर छोटे ही होते हैं। बड़े कॉरपोरेट ने तरीका बदल लिया है। वे राजनैतिक दलों की फंडिंग के लिए इलेक्टोरल ट्रस्ट या इलेक्टोरल बांड का रास्ता अपना रहे हैं। सरकार ने इस रास्ते के जरिए राजनीतिक फंडिंग को सुविधाजनक बना दिया है। इलेक्टोरल बांड से चंदा देने वाली कंपनियों या व्यक्तियों की जानकारी को गुप्त रखने का प्रावधान है। अब खुद चुनाव आयोग इसके पक्ष में नहीं है और इसकी पारदर्शिता के लिए सुप्रीम कोर्ट गया है। लेकिन सरकार की पैरवी करने वाले अटार्नी जनरल कहते हैं कि पार्टियों को कहां से पैसा आ रहा है, इसकी जानकारी मतदाताओं को देना जरूरी नहीं है। उनकी दलील का चुनाव आयोग विरोध कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी सीलबंद लिफाफे में जानकारी मुहैया कराने की बात कही है। लेकिन अभी मामले पर कोई अंतिम फैसला नहीं आया है।

अब सवाल उठता है कि जब किसी एक दल को कुल बांड्स का 90 फीसदी से ज्यादा मिलेगा तो उसके पीछे कोई तो वजह होगी। यह पैसा कौन दे रहा है और किस उद्देश्य से दे रहा है, उसका कुछ तो अनुमान वोटरों को होना चाहिए। जब पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पैसे का पलड़ा भारी हो जाएगा तो उसमें समान अवसर की स्थिति कैसे बनेगी?

एक बात और जरूरी है कि चुनाव में प्रत्याशी के लिए लोकसभा क्षेत्र में खर्च की सीमा है। लेकिन पार्टी अलग से पैसा खर्च कर सकती है। उस स्थिति में वही पार्टी ज्यादा पैसा खर्च करेगी, जिसके पास अधिक पैसा होगा। असल में पैसे के इस खेल में छोटे खिलाड़ियों की जगह बहुत कम बची है। बड़े कॉरपोरेट और कॉरपोरेट कल्चर वाली पार्टियां ज्यादा सक्रिय हैं। ऐसे में आयकर विभाग द्वारा कुछ करोड़ रुपये मिलने वाली जो छापेमारी की जा रही है, वह समस्या की तह में जाने का तरीका नहीं है। चुनाव लड़ना और लड़ाना अब पूरी तरह से कॉरपोरेट कल्चर में तब्दील हो गया है। टेक्नोलॉजी और कम्युनिकेशन के नए तरीकों ने भी इसे बदल दिया है।

ऐसे में पूरे मसले को नए सिरे से देखने और  सुधार करने की जरूरत है, ताकि सही मायने में पारदर्शिता आए। चुनाव प्रक्रिया लोकतंत्र को मजबूत करने और उसमें विश्वास बनाए रखने के लिए सबसे अहम है। उसे जितना पारदर्शी और समान अवसर वाला बनाया जाएगा, उतना ही बेहतर होगा। यह तभी संभव है जब इससे जुड़ी सभी खामियों का समग्र रूप से निवारण किया जाए। केवल रेड राज से यह संभव नहीं।

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