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चुनाव आयोग की अग्निपरीक्षा

चुनाव आयोग को आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में फौरन कार्रवाई करके अपनी स्वायत्तता और शक्तियों को साबित करना चाहिए, ताकि लोगों का भरोसा उसमें कायम रहे
साख का सवाल

पहली बार ऐसा हो रहा है जब किसी राजनैतिक दल को चुनाव घोषणा-पत्र में वादा करना पड़ा है कि वह सत्ता में आता है तो चुनाव आयोग की संस्थागत स्वायत्तता मजबूत की जाएगी। तो, क्या देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से सरकारों और संस्थाओं के प्रतिनिधियों के चुनाव का जिम्मा निभाने वाली संस्था की स्वायत्तता पर सवाल उठ रहे हैं? हाल में ये सवाल तीखे होते गए हैं। जाहिर है, इसकी ठोस वजहें भी रही होंगी। यह सवाल किसी भी लोकतंत्र के वजूद के लिए सबसे अहम है और इसका जवाब खुद चुनाव आयोग को ही देना है। जवाब देने का माकूल वक्त भी उसके पास है क्योंकि 17वीं लोकसभा के चुनाव की प्रक्रिया जारी है। इस बीच लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जिन पर कार्रवाई करके चुनाव आयोग को अपनी स्वायत्तता और शक्तियों को साबित करना होगा, ताकि लोगों का भरोसा उसमें कायम रहे।

असल में कई बार सत्तारूढ़ दल और नेताओं को लगता है कि वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तय नियम-कायदों से ऊपर हैं। यह चुनाव आयोग का जिम्मा है कि वह उन दलों और नेताओं को एहसास कराए कि देश में चुनाव आचार संहिता सभी लोगों, दलों, अधिकारियों, संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों पर समान रूप से लागू होती है। ताजा प्रकरण राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह का है। पिछले दिनों उन्होंने अलीगढ़ में एक बयान दिया, जिसमें खुद को पार्टी कार्यकर्ता बताते हुए नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री बनाने की बात कही। भला राजनैतिक और संवैधानिक पदों पर रहने का लंबा अनुभव रखने वाला व्यक्ति ऐसा बयान देकर आचार संहिता का उल्लंघन कैसे कर सकता है? क्या उनके जेहन में चुनाव आयोग की महत्ता को लेकर भ्रम है? चुनाव आयोग ने कल्याण सिंह को आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी पाया है और अपनी संस्तुति राष्ट्रपति को भेज दी है, क्योंकि आयोग संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के खिलाफ खुद कार्रवाई नहीं कर सकता है। अब सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन राष्ट्रपति पर है कि वे इस मामले में देश के सामने कैसी कार्रवाई का मिसाल रखते हैं। वैसे, नब्बे के दशक में हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल गुलशेर अहमद को अपने बेटे के लिए मध्य प्रदेश के सतना में चुनाव प्रचार करने पर इस्तीफा देना पड़ा था।

दूसरा ताजा मामला चेन्नै में राफेल विवाद पर आई किताब के विमोचन पर चुनाव आयोग के फ्लाइंग स्‍क्वायड द्वारा छापा मारकर रोक लगाने का है। प्रकाशक के कार्यालय से किताब की प्रतियां जब्त कर ली गईं। मामले के तूल पकड़ने पर चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया कि उसने ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया। फ्लाइंग स्‍क्वायड की टीम को हटा दिया गया और पुस्तक का विमोचन कार्यक्रम शाम को संभव हो सका। सवाल है कि आयोग के अधिकारियों को ऐसी कार्रवाई की शक्ति कहां से मिलती है, जो लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है? क्या आयोग के अधिकारियों को अपने अधिकारों और जिम्मेदारी की पूरी जानकारी नहीं होती है? इसका जवाब आयोग को देना चाहिए। इंडियन एयरलाइंस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तसवीर वाले बोर्डिंग पास देने का मामला सामने आया। आयोग ने इंडियन एयरलाइंस से सफाई मांगी, जिसका संतोषजनक जवाब नहीं मिला। तो, आयोग को कार्रवाई करने में देरी क्यों करनी चाहिए? शताब्दी ट्रेन में ‘मैं भी चौकीदार’ नारे लिखे पेपर कप में चाय परोसी गई। यात्रियों ने मामला उठाया तो आयोग ने कार्रवाई की।

इन सरकारी उपक्रमों में ऐसा कैसे हो रहा है? इसी तरह अचानक नमो टीवी नाम से एक चैनल शुरू हो गया। इसके मालिकाना हक, लाइसेंस और मंजूरी प्रक्रिया को लेकर भ्रम है। इस पर आयोग जानकारी जुटा रहा है। कहीं-कहीं उसकी सख्ती भी दिख रही है। बड़े पैमाने पर नकदी पकड़ी जा रही है। हाल ही में अरुणाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री की रैली से ठीक पहले करोड़ों रुपये पकड़े गए। चुनावों में बड़े पैमाने पर पैसे के दुरुपयोग को रोकना आयोग की सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है। जिस भारी पैमाने पर चुनावों में पैसा खर्च हो रहा है, उसको लेकर गंभीर चिंताएं उठ रही हैं। राजनैतिक दलों को मिलने वाले चंदे की पारदर्शिता भी बेहद धुंधली है। इस पर आउटलुक के इस अंक में विस्तृत रिपोर्ट भी है। इलेक्टोरल बांड को पारदर्शिता बढ़ाने वाला बताकर लांच किया गया था। खुद चुनाव आयोग इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में गया है।

इतना ही बड़ा मसला नेताओं के चुनावी भाषणों का है। चुनाव जीतने के लिए परोक्ष रूप से धर्म का सहारा लेने की कोशिशें होती रही हैं। अभी भी हो रही हैं। सेना को लेकर दिए गए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के बयान की जांच भी आयोग कर रहा है। असल में, जांच और कार्रवाई का सिलसिला बहुत लंबा नहीं चलना चाहिए। आयोग को तत्परता से सख्त फैसले लेने चाहिए। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन का उदाहरण इसीलिए दिया जाता है, क्योंकि चुनाव प्रक्रिया की शुचिता और निष्पक्षता बहाल करने में उनका अहम योगदान रहा है। लेकिन आयोग के साथ हमारे नेताओं और राजनैतिक दलों को भी अपनी जवाबदेही समझनी होगी। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करने के साथ नियम-कायदों के पालन करने का दायित्व भी उनके ऊपर है।

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