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जनादेश 2022/मणिपुर: अभी से सत्ता की जोड़तोड़

त्रिशंकु विधानसभा की आशंका से गठबंधन की संभावनाएं तलाशती पार्टियां
मणिपुर कांग्रेस की महासचिव तिलोत्तमा लोइतोंगबाम

मणिपुर में मतदान की नई तारीख 28 फरवरी और 5 मार्च तय हुई है, लेकिन वहां सरकार बनाने का खेल अभी से शुरू हो गया है। लगता है सभी पार्टियों ने मान लिया है कि 2017 की तरह इस बार भी किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा, इसलिए वे गठबंधन की कोशिशों में लग गई हैं। छोटी पार्टियां इस जुगत में हैं कि उन्हें कुछ सीटें मिल जाएं जिसके बल पर वे मोलभाव कर सकें। पार्टियों के भीतर भावी सरकार में बड़े पदों के लिए अभी से मारामारी मची है। विधायक मंत्री बनने का, तो मंत्री अगला मुख्यमंत्री बनने का सपना पाले हैं और उसी तर्ज पर चुनाव प्रचार भी कर रहे हैं।

राजनीतिक अस्थिरता के चलते यहां 10 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। एम.के. सिंह के 1 जुलाई 1963 को पहला मुख्यमंत्री बनने के बाद अब तक 12 मुख्यमंत्री हुए। 59 सालों में करीब 37 साल कांग्रेस की सरकार रही, साढ़े छह साल राष्ट्रपति शासन रहा और पांच वर्षों से बीरेन सिंह के नेतृत्व में भाजपा, नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) की सरकार है। इससे पहले 15 वर्षों तक कांग्रेस के ओकरम इबोबी सिंह मुख्यमंत्री रहे।

प्रदेश में मैतेयी और जनजातीय लोगों के बीच मतभेद दशकों पुराना है। यहां रहने वालों में आम धारणा है कि मैतेयी आर्थिक और राजनीतिक रूप से मजबूत हैं। पहाड़ों में भी नगा और कुकी के बीच विवाद होते रहे हैं। मैतेयी समुदाय का एक वर्ग अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग वर्षों से कर रहा है। लेकिन पर्वतीय इलाकों में रहने वाले अनुसूचित जनजाति के नगा और कुकी विरोध कर रहे हैं क्योंकि इससे उन्हें मिले दर्जे का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। राजनीतिक दल इस बारे खुलकर कुछ भी कहने से बचते हैं। कांग्रेस और एनपीपी के घोषणा पत्र में इसका जिक्र तक नहीं है। बीरेन सिंह ने विधानसभा में मैतेयी को जनजाति का दर्जा देने की मांग पर विचार करने की बात कही थी, तब काफी विरोध हुआ था।

मैतेयी हिंदू हैं और 2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में 53 फीसदी आबादी उन्हीं की है। प्रदेश में नगा 24 फीसदी और कुकी 16 फीसदी हैं। कुल जनजातीय आबादी करीब 41 फीसदी है। यहां हिंदू और ईसाई लगभग समान, 41-41 फीसदी और मुस्लिम 8.3 फीसदी हैं। प्रदेश की 60 सीटों में से 40 मैदानी इलाकों में और 20 पर्वतीय इलाकों में हैं। एक सीट अनुसूचित जाति और 19 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है।

लोगों ने यहां अक्सर उस पार्टी को चुना है जिसकी केंद्र में सरकार होती है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत तो नहीं मिला पर सबसे बड़ी पार्टी जरूर बनी। लेकिन एनपीपी और एनपीएफ के चार-चार विधायकों के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बना ली। हालांकि चुनाव तीनों पार्टियां अलग-अलग लड़ रही हैं। एनपीपी ने आरोप लगाया है कि कई उग्रवादी संगठन भाजपा के लिए खुलकर प्रचार कर रहे हैं। केएनएफ, यूकेएलएफ, केएनए और एचपीसी-डी जैसे संगठनों के कार्यकर्ता हथियार लेकर गांव-गांव घूम रहे हैं और लोगों को भाजपा के पक्ष में वोट डालने के लिए धमका रहे हैं। पार्टी ने चुनाव आयोग में शिकायत भी दर्ज कराई है।

भाजपा का टिकट नहीं मिलने पर कई नेता पाला बदल कर कांग्रेस, एनपीपी और जदयू में चले गए हैं। इससे सत्तारूढ़ पार्टी को कितना नुकसान होगा, यह देखने वाली बात होगी। कांग्रेस अपेक्षाकृत कमजोर लग रही थी, लेकिन पांच वामदलों के साथ हाथ मिलाकर इसने खुद को मुकाबले में ला खड़ा किया है। पार्टी ने प्रत्याशियों को शपथ दिलाई है कि जीतने के बाद वे किसी दूसरे दल में नहीं जाएंगे।

भाजपा और कांग्रेस समेत कई दलों के करीब 20 नेता नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड में शामिल हुए हैं। इनमें करीब एक दर्जन भाजपा के हैं। 2017 में जदयू ने यहां चुनाव नहीं लड़ा था। इससे पहले वह 2002, 2007 और 2012 में बुरी तरह हारी थी। शुरू में जदयू सिर्फ 20 सीटों पर लड़ना चाहती थी, लेकिन दूसरे दलों से नेताओं के आगमन के बाद वह अब तक 37 प्रत्याशी घोषित कर चुकी है। बिहार में भाजपा-जदयू की सरकार है। यहां भी माना जा रहा है कि जदयू नेता आखिरकार भाजपा के ही साथ जाएंगे। अरुणाचल प्रदेश में उसने 2019 में 15 सीटों पर लड़ कर सात सीटों पर जीत दर्ज की थी और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। जीतने वाले नेताओं में ज्यादातर भाजपा के थे। बाद में सात में से छह विधायक वापस भाजपा में चले गए थे।

भाजपा के उत्तर-पूर्व प्रभारी भूपेंद्र यादव का कहना है कि पार्टी यहां अलग तरह का घोषणा पत्र बना रही है। कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में हर साल 50 हजार नौकरियां सृजित करने और सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) आम लोगों के लिए बड़ा मुद्दा है, सो पार्टी ने उसे हटाने के लिए मांग उठाने की बात कही है।

बीरेन सिंह को मैदान और पहाड़ के बीच तनाव कम करने का श्रेय तो जाता है, लेकिन विरोधियों पर यूएपीए लगाने के आरोप भी हैं। अपने पास ज्यादा अधिकार रखने के कारण असंतोष भी बढ़ा है। 2020 में तो भाजपा के तीन विधायकों और एनपीपी ने कांग्रेस को समर्थन की घोषणा कर दी था। तब केंद्रीय नेतृत्व के हस्तक्षेप से किसी तरह सरकार बची थी। अस्थिरता के इस माहौल में यह कहना मुश्किल होगा कि किसकी संभावना ज्यादा है।

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