दुनिया के सामने कोलंबो से जो दृश्य आए, उसमें दोहराव है। काबुल में भी ऐसे ही नजारे थे। इससे पहले वॉशिंगटन की कैपिटल बिल्डिंग में लोग घुस गए थे। अफगानिस्तान और अमेरिका में बागी समूहों की पहचान स्पष्ट थी और बगावत के पीछे की राजनीति भी कमोबेश साफ थी। श्रीलंका में जो घटा, वह आंख खुलते ही नाटकीय साक्षात्कार जैसा नहीं है। बीते तीन महीने से वहां चल रही सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया और बीते एक दशक (गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद) से जारी आर्थिक प्रक्रिया का मिला-जुला परिणाम है। इसने राष्ट्रपति गतभया राजपक्षे को देश छोड़ भागने पर मजबूर किया। प्रधानमंत्री रहे उनके भाई महिंदा राजपक्षे का इस्तीाफा पहले हो चुका था। अब रानिल विक्रमसिंघे बागियों के निशाने पर हैं।
आंदोलन की सूरत
श्रीलंका में जनता का मौजूदा आंदोलन एक प्रक्रिया के तहत राष्ट्रपति भवन तक पहुंचा है। इसका अगुआ भले ही कोई एक शख्स या राजनीतिक संगठन न हो लेकिन इसकी चेतना राजनीतिक और स्वरूप रणनीतिक है। महंगाई और खाद्य संकट के खिलाफ जब देश में प्रदर्शनों की शुरुआत हुई थी, तब कोलंबो में कुछ पेशेवर युवाओं ने मिलकर वॉचडॉग नाम का समूह बनाया। इस समूह ने विरोध प्रदर्शनों और हिंसक टकरावों की पल-पल की खबर रखने के लिए एक प्रोटेस्ट ट्रैकर नाम का ऐप्लिकेशन बनाया। हैं।
वॉचडॉग के मुताबिक 30 मार्च से लेकर 19 मई तक पूरे श्रीलंका में कुल 635 विरोध प्रदर्शन और 49 हिंसक टकराव हुए। अप्रैल और मई में जो प्रदर्शन देश के अलग-अलग हिस्सों में हो रहे थे वे जून आते-आते कोलंबो के इर्द-गिर्द सिमटने लगे। लोग ट्रेन पकड़ कर, झंडे लेकर, कोलंबो पहुंचने लगे। फिर उसके आसपास छोटी-मोटी बगावतें मिलकर बड़े विद्रोह में तब्दील हो गईं। पुलिसवाले ड्यूटी छोड़कर वर्दी में ही प्रदर्शनकारियों के साथ जा मिले। फिर दुनिया ने राष्ट्रपति भवन के बाहर 9 जुलाई को जो नजारा देखा वह अभूतपूर्व था। जहां सतह पर ही सही, सिंहली बनाम तमिल, बौद्ध बनाम मुस्लिम, आदि परिचित विभाजन पिघलते दिखे।
श्रीलंका के संकट पर बहसें
अंतरराष्ट्रीय मीडिया कवरेज में मोटे तौर पर सभी ने सरकार के संरक्षणवादी कदमों को इसका जिम्मेदार बताया है। इसमें सबसे अहम उर्वरकों के आयात पर प्रतिबंध है, जिसने कोविड में खाद्य संकट को इतना गहरा दिया कि लोग सड़क पर उतर आए। श्रीलंका के अखबारों में भी यह बहस जारी है कि देश समाजवादी नीतियों के कारण डूबा या नवउदारवादी के कारण।
दि वर्ल्ड बैंक रिसर्च ऑब्जर्वर (फरवरी 2018) में सॉल एस्ट्रिन और एडेलीन पेलेटियर लिखते हैं कि 2000 से 2008 के बीच दक्षिण एशिया में निजीकरण के लिए झोंका गया कुल धन 18 अरब डॉलर के करीब था। इसका 55 प्रतिशत अकेले भारत निगल गया, 43 प्रतिशत पाकिस्तान और बाकी दो प्रतिशत निजीकरण का पैसा अफगानिस्ताशन, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में गया। इन दो प्रतिशत वाले देशों में हमने उसी दौर में नेपाल और अफगानिस्तान में तख्ता पलट और बगावतें देखी हैं। गृहयुद्ध में फंसे रहे श्रीलंका की बारी अब आई है। दरअसल, वैश्विक पूंजी के इस न्यून अनुपात के चलते श्रीलंका के कुछ टिप्पाणीकार मौजूदा संकट को समाजवाद का संकट करार देते हुए आइएमएफ जैसे संस्थानों का स्वागत कर रहे हैं।
इस संदर्भ में कोलंबो टेलिग्राफ में सी.जे. अमरतुंगे का लेख (दिस इज ए क्राइसिस ऑफ सोशलिज्म, नॉट कैपिटलिज्म, 23 जनवरी 2022) और उस पर आया प्रतिवाद पढ़ा जाना चाहिए, जिसे लियोनेल बोपागे और माइकेल कोलिन कुक ने दर्ज कराया है (बाइनरी नॉनसेन्स, 30 जनवरी 2022)। विशेष रूप से इसलिए क्योंकि 2019 के बाद विश्व बैंक ने जिस तरीके से श्रीलंका को निम्नमध्य आय वर्ग वाले देश से निकाल कर उच्च मध्य आय वाले देशों की श्रेणी में डाला इससे खरीद शक्ति के अनुपात में श्रीलंका का सकल घरेलू उत्पाद प्रति व्यक्ति भारत से दोगुना हो गया, इसने जमीनी हालात के बरअक्स विरोधाभास पैदा कर दिया।
इस विरोधाभास को समझने की कोशिश चल ही रही थीं कि मुद्रास्फीति ने उछाल मारी, कोविड आया और रूस-उक्रेन की जंग शुरू हो गई। श्रीलंका के पर्यटन का सबसे बड़ा ग्राहक रूस और उसके बाद यूक्रेन है। दूसरे, श्रीलंका की चाय का बड़ा खरीददार भी रूस है। श्रीलंका में पूंजीवाद समाज विकास की प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत नहीं बल्कि उसके मददगारों की जरूरत के मुताबिक सामंती कृषि अर्थव्यवस्था पर बाहर से थोपा गया था। लिहाजा जब तक निर्यात की कीमतें अच्छी रहीं वहां का मौसम गुलाबी रहा। कीमतें गिरना शुरू हुईं तो आंतरिक स्थिति बिगड़ने लगीं। प्रतिक्रिया में जो संरक्षणवादी कदम उठाए गए (कुछ इसे समाजवाद का नाम देते हैं), वे नाकाम हो गए क्योंकि देश का ढांचा अविकसित पूंजीवाद का था और रोपण अर्थव्यस्था अब भी देश की रीढ़ बनी हुई थी।
श्रीलंका ने 1980 के दशक से ही नवउदारवादी नीतियों को अपना लिया था। केवल पर्यटन, कपड़ा उद्योग और विदेशी रेमिटेंस के बल पर न तो रोजगार स्थापित किए जा सके न ही घरेलू कर्ज को थामा जा सका। ऐसी स्थिति में शीर्ष 20 प्रतिशत आबादी के पास यहां की 42 प्रतिशत धन-दौलत इकट्ठा हो गई जबकि नीचे की 40 प्रतिशत आबादी महज 18 प्रतिशत हिस्से से काम चलाती रही। स्वास्थ्य और शिक्षा पर व्यय कम किया गया। रोजगारों की अनौपचारिक प्रकृति के चलते कर वसूली का दायरा बहुत कम रहा। जिन दक्षिण एशियाई देशों ने श्रीलंका के बाद अपनी अर्थव्यवस्था खोली उन्हें तो वैश्वीकरण का लाभ मिला पर ‘श्रीलंका को भुगतान संतुलन के रूप में इसका फायदा नहीं मिला और उसे कर्ज दर कर्ज लेते रहना पड़ा।’ (देवका गुणावर्धने, सोशलिस्ट प्रोजेक्ट।)
‘राष्ट्रीय सरकार’ खुद एक समस्या है
श्रीलंका के मौजूदा संकट में केवल एक राजनीतिक पार्टी एसईपी है (सोशलिस्ट इक्वलिटी पार्टी) जो सर्वसहमति से राष्ट्रीय सरकार बनाए जाने के खिलाफ है। एसईपी जोर देकर कहती है कि ‘इन आवश्यक लोकतांत्रिक सियासी बदलावों का उद्देश्य समाजवादी लाइन पर अर्थव्यवस्था का बुनियादी पुनर्गठन करना है और यह मजदूर वर्ग, ग्रामीण गरीबों और युवाओं के संकल्पित संघर्ष के माध्यम से ही हासिल हो सकेगा।’ एसईपी इकलौती पार्टी है जिसका मानना है कि श्रमिकों और ग्रामीण जनता के वर्गहित आइएमएफ के कम खर्च वाले उस एजेंडे के एकदम खिलाफ है, जिसे अंतरिम सरकार सख्ती से लागू करेगी। इस संदर्भ में पार्टी मिस्र में 2011 के घटनाक्रम की याद दिलाती है जब होस्नी मुबारक को कामगारों की बगावत ने सत्ताच्युत कर दिया था लेकिन बाद में रिवॉल्युशनरी सोशलिस्ट (आरएस) ने विपक्ष की बागडोर इस्लामिक ब्रदरहुड के हाथ में दे दी। मुस्लिम ब्रदरहुड संकट हल कर पाने में नाकाम रहा।
श्रीलंका का संकट और भारत
जब से श्रीलंका में जनता सड़कों पर उतरी है, भारत में धारणाओं और विचारों का बाजार गरम है। केंद्र की भाजपा सरकार से नाराज लोग श्रीलंका के संकट में भारत का अक्स देख रहे हैं। पिछले दिनों कांग्रेस के नेता राहुल गांधी और शिव सेना के नेता संजय राउत का ऐसा ही एक बयान आया है, कि भारत भी श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट की राह पर है। आर्थिक सूचकांकों को देखें तो इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। श्रीलंका महज 51 अरब डॉलर के कर्ज में है पर भारत पर इसका छह गुना विदेशी कर्ज है। राहुल गांधी ने 18 मई को ही बेरोजगारी, पेट्रोल की कीमत और सांप्रदायिक हिंसा के मानकों पर श्रीलंका-भारत की तुलना करते हुए ट्विटर पर तीन ग्राफ डाले थे।
यह सच है कि रूस और यूक्रेन की जंग का भूराजनीतिक असर कमोबेश सभी देशों पर पड़ा है। यह संकट ऐसे समय आया है जब कोविड के कारण पैदा गतिरोध के बाद वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला, उत्पादन और वाणिज्य दोबारा पटरी पर आया था। चूंकि यूक्रेन और रूस दोनों ही वैश्विक खाद्य तंत्र में बड़ी भूमिका निभाते हैं, इसिलए सब पर असर पड़ना लाजिमी है। महंगाई हर जगह बढ़ी है। कुछ देशों पर ज्यादा असर हुआ है, कुछ में कम।
जहां तक भारत की बात है, यहां के आकार और विविधता का इसे वैश्विक संकटों से बचा ले जाने में बड़ा हाथ रहा है। पिछली वैश्विक आर्थिक मंदी में भी भारत अपनी परंपरागत बचत प्रणालियों और सामाजिक सहकारिता के चलते बाल-बाल बच गया था। यह संयोग नहीं है कि संकटग्रस्त श्रीलंका को भारत ने 200 मिलियन डॉलर की क्रेडिट लाइन उपलब्ध कराई है। यह तथ्य अपने आप में आश्वस्तकारी है।
इसके बावजूद श्रीलंका के संकट का लाभ यहां बची-खुची कल्याणकारी योजनाओं और सब्सिडी को खत्म करने में किया जा सकता है। नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद का हालिया बयान इस मामले में सरकार के भीतर चल रहे विचारों को सामने लाता है और आशंका पैदा करता है। उनका कहना है कि अगर ‘मुफ्तखोरी’ की संस्कृति कायम रहेगी तो श्रीलंका जैसा संकट आ सकता है। इसका अर्थ है कि जिन वजहों से संकट टला हुआ है, उन्हीं को आसन्न संकट का कारण बताकर समाप्त करने की कोशिश की जा सकती है और आर्थिक संकट को बेवजह उभारा जा सकता है। यह सोच खतरनाक है और कल्याीणकारी राज्य की अवधारणाओं के विपरीत है।
आइएमएफ की घात
बीते 50 वर्षों में श्रीलंका को 16 बार कर्ज देने वाला अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) एक बार फिर यहां कर्ज देने की राह बना रहा है। फिलहाल श्रीलंका कुल 51 अरब डॉलर से ज्यादा के विदेशी कर्ज में डूबा हुआ है और ब्याज तक चुका पाने की स्थिति में नहीं है। इस कर्ज में सबसे बड़ा हिस्सा (47 प्रतिशत) उधारी का है। उसके बाद विश्व बैंक (13 प्रतिशत) और चीन और जापान (10 प्रतिशत प्रत्येक) का क्रम आता है। भारत ने भी श्रीलंका को कर्ज दिया है।
मौजूदा वैश्विक अर्थतंत्र में किसी देश को संकट से उबारने का अर्थ होता है, कीचड़ से कीचड़ को धोना। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी आइएमएफ के माध्यम से यही चाह रही है। आइएमएफ के बेलआउट विरोध के चलते ही श्रीलंका के सेंट्रल बैंक के गवर्नर अजित कबराल ने अप्रैल की शुरुआत में अपना इस्तीफा दिया था। उसके बाद गवर्नर बने पी. नंदलाल वीरासिंघे आइएमएफ के प्रति नरम हैं। राजनीतिक स्थिरता के लिए सहमति से एक राष्ट्रीय सरकार बनाने की बात हो रही है लेकिन श्रीलंका की जनता इसके खिलाफ है।
भविष्य की तस्वीर
गतभया राजपक्षे ने 14 जुलाई की रात सिंगापुर से ईमेल के माध्यम से स्पीकर को अपना इस्तीफा भेजा। इस बीच कोलंबो में चौबीस घंटे का कर्फ्यू लगा दिया गया। आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है। श्रीलंका में स्थिरता और भविष्य सब कुछ जनता के आंदोलन के ऊपर टिका है। आंदोलन को नेताओं और सरकारी ढांचे पर अब भरोसा नहीं रहा है। आंदोलन की राजनीतिक दिशा भी बहुत स्पेष्ट नहीं है। ऐसे में अमेरिका, भारत और अन्य देश धूल बैठ जाने का इंतजार कर रहे हैं और वित्तीय संस्थाओं व पूंजी के दम पर मामला पटरी पर लाने में लगे हुए हैं। भविष्य में यदि यहां इसी व्यवस्था के भीतर अंतरराष्ट्रीय पूंजी के हितों को देखते हुए कोई सरकार बनती भी है, तो वह केवल संकट के दोहराव का ही नुस्खा होगी।
इस मामले में राजनीतिक दल एसईपी की प्रस्थापनाओं और विश्लेषणों से जो सबक निकलते हैं, वे श्रीलंका की भविष्य की आशंकाओं को समझने के लिए बेहतर हैं।
संकट के अहम पड़ाव
1 अप्रैल 2022ः सिलसिलेवार विरोध प्रदर्शनों के बाद राष्ट्रपति गतभय राजपक्षे ने अंतरिम इमरजेंसी की घोषणा की।
3 अप्रैलः समूचे मंत्रिमंडल ने इस्तीफा दे दिया। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा बेलआउट दिए जाने के विरोधी रहे केंद्रीय बैंक के गवर्नर ने भी एक दिन बाद अपना इस्तीफा दे दिया।
5 अप्रैलः नियुक्ति के ठीक एक दिन बाद वित्त मंत्री अली साबरी के इस्तीफे से राष्ट्रपति राजपक्षे का संकट गहराया। संसद में बहुमत खत्म होता देख राष्ट्रपति ने इमरजेंसी हटा ली।
10 अप्रैलः चिकित्सकों ने बताया कि जीवनरक्षक दवाएं खत्म हो चुकी हैं, जिससे कोरोना दौर से कहीं ज्यादा मौतें हो सकती हैं।
12 अप्रैलः सरकार ने घोषणा की कि विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो चुका है और देश के ऊपर 51 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है।
19 अप्रैलः हफ्तों से चल आ रहे विरोध प्रदर्शनों में पहली मौत। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने श्रीलंका को राहत पैकेज देने के लिए विदेशी कर्ज के पुर्नसंयोजन की शर्त रखी।
9 मईः कोलंबो में प्रदर्शनकारियों और सरकार-समर्थकों के बीच झड़प में नौ लोगों की मौत और सैकड़ों घायल। महिंदा राजपक्षे का इस्तीफा। रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बने।
10 मईः देखते ही गोली मारने के आदेश। प्रदर्शनकारियों ने कर्फ्यू तोड़ा।
10 जूनः संयुक्त राष्ट्र ने बताया कि भोजन की कमी के चलते तीन-चौथाई से ज्यादा आबादी को खुराक में कटौती करनी पड़ रही है।
27 जूनः देश में ईंधन संकट। अनिवार्य सेवाओं के अतिरिक्त पेट्रोल की बिक्री रोक
1 जुलाईः मुद्रास्फीति लगातार नौवें महीने में अपने रिकॉर्ड स्तर पर है।
9 जुलाईः प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति के आवास को पर धावा बोला। राजपक्षे को सेना की मदद से अज्ञात स्थान पर भागना पड़ा।
13 जुलाईः राष्ट्रपति राजपक्षे पत्नी और दो अंगरक्षकों के साथ सेना के एक जहाज से मालदीव रवाना।
15 जुलाईः सिंगापुर से राजपक्षे के इस्तीफे के बाद रानिल विक्रमसिंघे कार्यवाहक राष्ट्रपति नियुक्त किया गया। 20 जुलाई को नए राष्ट्रपति के चुनाव के पहले इमरजेंसी का ऐलान