अहिंसा को राजनीति में ही नहीं, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में भी प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकता है। अपने उदाहरण से इसे साबित करना गांधी जी की महान उपलब्धि थी -दलाई लामा
महात्मा गांधी के जीवन में दो मूल्यों के प्रति सबसे अधिक आग्रह और निष्ठा के दर्शन होते हैं। ये दो मूल्य हैं सत्य और अहिंसा। कहने के लिए ये दो हैं लेकिन वास्तव में उनके लिए ये एक ही मूल्य के दो पहलू थे। जो व्यक्ति सत्य पर टिका है वह अनिवार्यतः अहिंसक होगा, यह उनका मूल विश्वास था। धैर्य और संतोष इस अहिंसा की बुनियाद हैं। तभी तो अकबर इलाहाबादी ने 1919-1921 के बीच रचित गांधीनामा में लिखा था- “लश्कर-ए-गांधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं, हां मगर बेइंतिहा सब्र-ओ-कनाअत चाहिए” यानी गांधी की सेना को हथियारों की जरूरत नहीं है। उसे जरूरत है तो सिर्फ सब्र और संतोष की। जीवन भर गांधी ने ब्रिटिश शासन के साथ इन्हीं हथियारों के सहारे संघर्ष किया और अंततः उसे परास्त किया।
गांधी आस्तिक थे और ईश्वर की सत्ता में उनकी गहरी आस्था थी। उनके लिए ईश्वर का ही दूसरा नाम सत्य था और अहिंसा सत्य का दूसरा पहलू थी। यानी ईश्वर, सत्य और अहिंसा उनके लिए एकाकार हो गए थे। अहिंसा का अर्थ केवल दूसरों के प्रति हिंसा का प्रयोग न करना ही नहीं था। इसका अर्थ मन और आत्मा को अपने विरोधी के प्रति घृणा और द्वेष से पूरी तरह शुद्ध करना भी था। यदि मन, वचन और कर्म में एकरूपता न हुई और किसी एक में भी द्वेष या घृणा बची रह गई, तो उसे अहिंसा नहीं कहा जा सकता। राजनीति के क्षेत्र में इस अनूठे जीवन-दर्शन का कारगर इस्तेमाल करना और वृहत्तर भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित करके उसे सत्याग्रह के रूप में विदेशी शासन के विरोध का हथियार बनाना, गांधी की ऐसी उपलब्धियां हैं जिन्हें सदियों तक याद रखा जाएगा। यह अकारण नहीं कि चाहे मार्टिन लूथर किंग हों या नेल्सन मंडेला या फिर शेख मुजीबुर्रहमान—सभी ने उनसे प्रेरणा ग्रहण की। बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना का कहना है कि पाकिस्तानी शासन के विरोध के लिए उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने गांधी के जीवन से प्रेरणा ली थी। दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति ने गांधी के जीवन मूल्यों को संयुक्त राष्ट्र की आधारशिला बताया है।
सत्य और अहिंसा के मूल्य महात्मा गांधी की मौलिक खोज नहीं थे। भारतीय चिंतन परम्परा में ये मूल्य चिर काल से प्रतिष्ठित और स्वीकृत रहे हैं। गांधी की महानता इस बात में थी कि इन निजी जीवन-मूल्यों का उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक प्रतिरोध के सार्वजनिक मूल्यों के रूप में पुनराविष्कार किया और अजेय माने जाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेने के लिए उनका उपयोग किया। सत्य और अहिंसा के प्रति उनकी आस्था इतनी गहरी थी कि यदि उनकी कीमत पर देश की आजादी प्राप्त होती हो, तो वे आजादी भी त्यागने के लिए तैयार थे। 1931 में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि अहिंसा की कीमत पर वे देश की आजादी खरीदने को तैयार नहीं हैं। इसके नौ साल बाद द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब उनसे पूछा गया कि यदि उनके जीवनकाल में भारत स्वाधीन हो गया तो उनके कार्यकलाप क्या होंगे, महात्मा गांधी ने कहा, “यदि भारत मेरे जीवनकाल में आजाद हो गया और मेरे भीतर ऊर्जा शेष रही तो मैं सरकार से बाहर रहकर अहिंसा के आधार पर राष्ट्र-निर्माण का काम करूंगा।”
सत्य और अहिंसा के इन जुड़वां मूल्यों को वे आत्मशुद्धि के लिए भी प्रयोग में लाते थे और उनका गहरा विश्वास था कि जब तक नागरिकों की आत्मशुद्धि नहीं होगी, लोकतंत्र अपने सही अर्थों में स्थापित नहीं हो सकता। यदि हम आज के भारत पर नजर डालें तो पता चलेगा कि उनकी यह धारणा कितनी सही थी। लोकतांत्रिक मूल्यों और भावना का क्षरण, सामाजिक-राजनीतिक जीवन के हर क्षेत्र में लगातार बढ़ता जा रहा भ्रष्टाचरण और ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ के आधार पर चल रही व्यवस्था का यह परिदृश्य संभवतः इतना विकराल रूप धारण न कर पाता यदि आजादी हासिल होने के बाद सत्य और अहिंसा के मूल्यों को नई स्थिति में अप्रासंगिक न मान लिया जाता, मानों वे केवल ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने के हथियार मात्र ही रहे हों।
आज हमारे देश में भारतीयता और हिंदू धर्म की दुहाई लेने वाले लोग “वसुधैव कुटुंबकम्” का आदर्श वाक्य दुहराते हुए नहीं थकते, लेकिन इसके साथ ही वे अन्य देशों के खिलाफ शत्रुता का भाव उभारने के सतत प्रयत्न में लगे रहते हैं। लेकिन महात्मा गांधी का लक्ष्य विश्व शांति था और इसके लिए वे सच्चे अर्थों में “वसुधैव कुटुंबकम्” के आदर्श का पालन करने के लिए कटिबद्ध थे। 1924 के आरंभ में, जब वे भारतीय राष्ट्रवाद के प्रबल प्रवक्ता के रूप में दुनिया भर में ख्याति प्राप्त कर चुके थे, गांधी ने बेलगांव में संपन्न हुए कांग्रेस अधिवेशन में कहा था कि आज के बेहतर विचारक एक-दूसरे से सदा युद्धरत पूर्णतः संप्रभु राष्ट्र नहीं, बल्कि स्वाधीन और मित्र राष्ट्रों के एक संघ की स्थापना चाहते हैं। 1930 के दशक में जब यूरोप और एशिया में फासिज्म जोर पकड़ रहा था, गांधी ने हमलावर देशों का अहिंसक तरीके से सामना करने का सुझाव दिया। क्योंकि सभी युद्ध दूसरे देशों पर कब्जा जमाकर उनके संसाधनों का शोषण करने के लिए छेड़े जाते हैं और उनके मूल में राष्ट्रों का अनियंत्रित लोभ और लिप्सा होती है, इसलिए गांधी राष्ट्रवाद को मानवता के ऊपर रखने के विरुद्ध थे। उनके विचार में सैन्यवाद की समाप्ति के लिए प्रतिस्पर्धापरक लोभ, भय और घृणा की समाप्ति अनिवार्य थी। क्या पिछले सात दशकों का विश्व इतिहास उनकी धारणा के सही होने की पुष्टि नहीं करता?
आज भारत और पाकिस्तान के राजनेता और हमारे टीवी चैनल परमाणु युद्ध के बारे में इस तरह से बात कर रहे हैं, मानो वह बच्चों का खेल हो। गाय के गोबर के शरीर पर लेप करने से परमाणु विकिरण के निष्प्रभावी होने की हास्यास्पद लेकिन चिंताजनक घोषणाएं सार्वजनिक रूप से की जा रही हैं। लेकिन जापान के लोगों को पता है कि परमाणु हमले का क्या अर्थ होता है? जब महात्मा गांधी को जापान पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम गिराए जाने की खबर मिली, तो उन्होंने कहा कि अहिंसा में उनकी आस्था और भी अधिक मजबूत हो गई है और उन्हें लगता है कि ईश्वर ने उन्हें अहिंसा का रास्ता दिखाने के लिए ही संसार में भेजा है।
सभी तरह की हिंसाओं को झेल रहे भारत के लिए क्या यह रास्ता आज और भी अधिक प्रासंगिक नहीं हो गया है?
गांधी और रचनाशीलता
महात्मा गांधी ने अपने समय के वैज्ञानिकों, विचारकों, लेखकों, चित्रकारों और संगीतकारों की रचनाशीलता को बहुत गहराई से प्रभावित किया था। आइजक न्यूटन के बाद वैज्ञानिक चिंतन को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले अल्बर्ट आइंस्टाइन ने उनके बारे में कहा था कि आने वाली पीढ़ियां कठिनाई से ही विश्वास कर पाएंगी कि इस पृथ्वी पर हाड़-मांस का कोई ऐसा आदमी भी चलता-फिरता था।
उर्दू के प्रसिद्ध शायर अकबर इलाहाबादी तो अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गांधी के बहुत बड़े प्रशंसक बन गए थे। 1846 में जन्मे इस शायर ने 1921 में इस संसार से विदा ली और 1919-21 के बीच के समय में गांधीनामा लिखा। यह वह दौर था जब भारतीय राजनीति के क्षितिज पर महात्मा गांधी का उदय होना शुरू ही हुआ था। जीवन भर ब्रिटिश सरकार की नौकरी करने वाले अकबर इलाहाबादी ने उनके बारे में लिखा- “मदखूला-ए-गवर्नमेंट अकबर अगर न होता, इसको भी आप पाते गांधी की गोपियों में”।
न केवल गांधी के जीवन ने बल्कि उनकी मृत्यु ने भी अनेक भारतीयों और विदेशियों की रचनाशीलता को गहरे से प्रभावित किया। हंगरी के शीर्षस्थ लेखक नेमेथ लास्लो ने 1963 में गांधी की मृत्यु नाटक लिखा। हाल ही में हिंदी के जाने-माने कवि गिरधर राठी और हंगेरियन विदुषी मारगित कोवेश ने मूल हंगरी भाषा से इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है। इसी वर्ष कला, नाट्य और फिल्म समीक्षक रवीन्द्र त्रिपाठी ने महात्मा गांधी के जीवन पर प्रथम सत्याग्रही नामक नाटक लिखा जिसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दो बार खेला जा चुका है और सुधी नाट्यप्रेमियों द्वारा सराहा गया है।
हिंदुत्व की विचारधारा के पैरोकार नाथूराम गोडसे ने वृद्ध और निहत्थे महात्मा गांधी की जिस निर्मम ढंग से हत्या की, उसने पूरे विश्व की अंतरात्मा को झकझोर दिया। इस हत्या के कुछ ही दिन बाद बंबई (अब मुंबई) के एक स्टूडियो में एक रेडियो कार्यक्रम के निर्माता ने रिकॉर्डिंग शुरू होने से कुछ ही मिनट पहले अचानक युवा सितारवादक रविशंकर से कहा कि क्या वे महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि स्वरूप कुछ बजा सकते हैं। अप्रतिम रचनाशील सर्जक रविशंकर ने थोड़ी-सी देर सोचकर तत्काल एक नया राग रच डाला। महात्मा का पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था, उन्होंने इस राग को ‘मोहनकौंस’ का नाम दिया। रिचर्ड एटेनबरो की महाकाव्यात्मक फिल्म गांधी तो अब इतिहास में दर्ज हो ही चुकी है। इसे ग्यारह ऑस्कर पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया जिसमें से आठ इसे मिले। रविशंकर ने जॉर्ज फेंटॉन के साथ मिलकर इस फिल्म के लिए संगीत रचना की थी।
अनूठी प्रतिभा के धनी शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व ने भी महात्मा गांधी को अपनी श्रद्धांजलि एक नया राग ‘गांधी मल्हार’ रच कर दी। यह राग जीवनपर्यन्त उनके पसंदीदा रागों में शामिल रहा।
(वरिष्ठ पत्रकार, राजनीति और कला-संस्कृति पर प्रखर टिप्पणीकार)