अगर वर्ष 2019 दुनिया भर में कोई एक संदेश दे गया तो वह है धरती के लगभग हर हिस्से में प्रतिरोध में उठी आवाजों का सिलसिला। इस पूरे वर्ष भड़के विशाल विरोध प्रदर्शनों, जो कई बार हिंसक भी हुए, का दौर-दौरा लेबनान और अल्जीरिया से लेकर कैटालोनिया और चिली, हांगकांग से लेकर इक्वाडोर, सूडान और भारत तक में नई तवारीख लिखता नजर आया। सड़कों पर बैनर, नारों के साथ उतरे लाखों के हुजूम का जज्बा और तेवर तो लगभग एक जैसे थे, लेकिन मुद्दे और वजहें अलग-अलग थीं। लेबनान में मुद्दा ह्वाट्सएप के जरिए फोन कॉल पर टैक्स थोपना था, तो चिली में मेट्रो रेल किराए में बढ़ोतरी के खिलाफ गुस्सा भड़का, हांगकांग में एक काला कानून विरोध के शोलों को हवा दे रहा था, तो सूडान में लोग सत्ता में लंबे वक्त से काबिज “भ्रष्ट” हुक्मरानों से खफा थे। अचानक भड़के गुस्से का इजहार यह तो बदस्तूर खुलासा कर गया कि लोग अपने शासकों से कितने नाराज हैं।
दुनिया भर में आबादी की मध्यम औसत उम्र तीसेक वर्ष बताई जाती है और करीब एक-तिहाई आबादी बीसेक साल की है, इसलिए विशेषज्ञ इसे पढ़े-लिखे, बेरोजगार नौजवानों की ताकत का इजहार बता रहे हैं। हालांकि ढेरों बुजुर्ग और मध्य वय के लोग भी आवाज बुलंद करने में पीछे नहीं हैं।
2011 में मिस्र से ही रवायत चल पड़ी कि हुक्मरानों की मनमानियों और दमन के खिलाफ जुटने का औजार सोशल मीडिया मुहैया करा देता है। लेकिन साठ के दशक में 'सड़कों पर संघर्ष' के वर्षों के विपरीत इन नए प्रतिरोध के जलसों की खासियत यह है कि मोटे तौर पर इनमें कोई नेता नहीं। कोई बेहद भड़काऊ सरकारी फैसला सड़कों पर एकजुट होने का मौका मुहैया करा रहा था, तो योजनाएं निहायत व्यक्तिगत स्तर पर तैयार हो रही थीं। ये प्रतिरोध कैसे खत्म होंगे, इसकी कोई एक धारा नहीं है, कुछ थकते दिख रहे हैं, तो कुछ में बंधी मुट्ठियां ठंड में गरमी पैदा कर रही हैं।
इनमें गिरफ्तारियों की दिल दहलाने वाली दास्तान हमें लगातार यह याद दिला रही है कि हम सभी उसी सड़क के हरकारे हैं।
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