सरकार ने पिछले साल जुलाई में पेश बजट में एक चौंकाने वाला नीतिगत फैसला किया था कि इलेक्ट्रिक कार खरीदने वाले लोगों को कर छूट दी जाएगी। देखने में इसे पर्यावरण संरक्षण के लिए संवेदनशील फैसला माना जा सकता है। फॉसिल फ्यूल से प्रदूषण होता है और पर्यावरण का नुकसान भी। ऐसे में देश में इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना अच्छी बात है। लेकिन यह छूट अधिक आमदनी वाले लोगों के लिए थी, क्योंकि कोई भी बेहतर इलेक्ट्रिक कार 15 लाख रुपये से 25 लाख रुपये के बीच आती है। जाहिर है, पर्यावरण संरक्षण के लिए कर छूट पाने के उद्देश्य से इस तरह की कार खरीदने वाले का अमीर होना जरूरी है। लेकिन इस साल एक फरवरी को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 के बजट में कर छूट प्रावधानों को समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाने के संकेत दिए। गैर-जरूरी 70 कर छूटों को समाप्त करने का फैसला किया गया। व्यक्तिगत आय कर के मामले में नई व्यवस्था शुरू की गई कि कोई करदाता चाहे तो बिना किसी तरह की कर छूट लिए कम आय कर दरों का विकल्प चुन सकता है। यानी कर छूटों को लेकर सरकार का नीतिगत विचार बदल रहा है।
अब इस बजट के एक दूसरे प्रावधान को देखिए, जो कुछ ऐसा ही है। सरकार ने लाभांश वितरण कर (डीडीटी) को कंपनियों के स्तर पर नहीं लगाने का फैसला किया। अब लाभांश प्राप्त करने वाले की आय के साथ जोड़कर उस पर कर लगेगा। तमाम ऐसे प्रमोटर हैं जिनकी कंपनियों में इक्विटी हिस्सेदारी 70 फीसदी तक है। ये लोग डायरेक्टर या अन्य पदों पर रहते हुए वेतन कम, डिविडेंड ज्यादा लेते हैं। अब इनमें कुछ प्रमोटरों के लिए डिविडेंड पर कर की दर 43 फीसदी के आसपास हो जाएगी। जाहिर है, ये लोग डिविडेंड देने की दर में कटौती करने की रणनीति अपना सकते हैं, क्योंकि कंपनी में तो उनकी हिस्सेदारी बरकरार है और उसका वैल्यूएशन स्टॉक मार्केट में बढ़े या नहीं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन छोटे निवेशकों को मिलने वाला डिविडेंड जरूर कम हो जाएगा और उनके लिए कर की दर भी ऊंची रहेगी।
अर्थव्यवस्था में निवेश और मांग को प्रोत्साहित करने के लिए सकारात्मक माहौल और नीतिगत स्थिरता की काफी अहम भूमिका होती है। कोई भी आंत्रप्रेन्योर बाजार और उत्पादों से लेकर ब्याज दरों तक के जोखिम के लिए तो तैयार रहता है, लेकिन सरकार की नीतिगत अनिश्चितता के लिए वह कतई तैयार नहीं होता है। लेकिन मौजूदा सरकार पिछले चार साल में कई तरह के झटके दे चुकी है। 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी का झटका इतना बड़ा था कि अर्थव्यवस्था अभी तक उससे नहीं उबर सकी है। उसके बाद बिना पूरी तैयारी के वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू कर दिया गया। यह भी अर्थव्यवस्था और कारोबारी जगत के लिए बड़ा झटका साबित हुआ। रियल एस्टेट के रेगुलेशन के लिए रेरा कानून लागू कर दिया गया। नतीजा यह हुआ कि तमाम रेगुलेटरी शर्तों के चलते रियल एस्टेट सेक्टर मंदी के दुश्चक्र में फंस गया। फिर, मोदी सरकार दोबारा सत्ता में आई तो उसने संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को मिली स्वायत्तता समाप्त कर दी और राज्य को दो हिस्सों में बांटकर दोनों को केंद्रशासित प्रदेश बना दिया। अभी इस पर विवाद जारी ही था कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) आ गया। इससे देश भर में आंदोलन शुरू हो गए। कई जगह हिंसक आंदोलन भी हुए और कूटनीतिक हलकों में देश की छवि को नुकसान भी पहुंचा। ऐसा नहीं कि ये मसले अर्थव्यवस्था से जुड़े नहीं हैं, बल्कि कूटनीतिक रिश्ते आर्थिक साझीदारी में अहम भूमिका निभाते हैं। घरेलू मोर्चे पर भी आंदोलन और विवाद कारोबारी माहौल को नुकसान पहुंचाते हैं।
इस माहौल और सरकार के फैसलों से संकेत मिलता है कि आर्थिक मसले सरकार की प्राथमिकता में नहीं हैं। अगर ऐसा होता तो बेरोजगारी, गिरते निर्यात और मैन्यूफैक्चरिंग, कमजोर होती बचत और निवेश की दर के बीच सरकार बजट के जरिए दूरगामी नीति पेश करती, लेकिन बजट में ऐसा नहीं हुआ है। इसे और करीब से समझना है, तो दिल्ली विधानसभा चुनावों में तीखे और कड़वे होते प्रचार को देखना चाहिए। मौजूदा सत्ताधारी आम आदमी पार्टी शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और पानी की बात करती है, तो सत्ता के लिए आतुर भाजपा राष्ट्रवाद और विभाजनकारी एजेंडा पर काम करती दिख रही है। वैसे, अच्छी बात यह है कि इस साल आर्थिक समीक्षा में यह स्वीकार किया गया है कि बाजार में सरकारी दखल कई बार फायदा पहुंचाने के बजाय नुकसान पहुंचाते हैं। यह बात अलग है कि मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रह्मण्यम ने इसमें आवश्यक वस्तु अधिनियम, ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर, खाद्यान्नों की सरकारी खरीद नीति और किसानों की कर्जमाफी जैसे कदमों को ही शामिल किया है। इनके फायदे मौजूदा सरकार भी गिनाती है। लेकिन आर्थिक समीक्षा इन कदमों को बाजार शक्तियों के लिए प्रतिकूल मानती है। जाहिर है, जब मार्केट इकोनॉमी की नीति चल रही है, तो उसमें नीतिगत अनिश्चितता का होना ठीक नहीं होता।
@harvirpanwar