राजस्थान में एक महीने से चल रहा सियासी संकट खत्म हो गया है। विधानसभा में 14 अगस्त को अशोक गहलोत सरकार ने ध्वनिमत से विश्वासमत हासिल कर लिया और सरकार पर जारी अनिश्चितता के बादल भी फिलहाल छंट गए हैं। करीब एक महीने से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच जारी खींचतान का पटाक्षेप विश्वास मत के 4 दिन पहले प्रियंका गांधी की अगुआई में हुआ। बाद में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी अपनी रजामंदी की मुहर लगा दी। लिहाजा, पायलट और उनके साथी 18 विधायकों की पार्टी में वापसी में प्रियंका गांधी की भूमिका संकटमोचन जैसी रही। प्रियंका को इस काम में वरिष्ठ नेता अहमद पटेल, के.सी. वेणुगोपाल और जितेंद्र सिंह का भी साथ मिला। हालांकि पायलट की वापसी आसान नही थी, क्योंकि 11 जुलाई को पायलट के बगावती तेवर को देखते हुए कांग्रेस में बहुत कम ही लोग उम्मीद कर रहे थे कि वे अपने तेवर नरम करेंगे लेकिन फिर भी प्रियंका उन्हें मनाने में सफल रहीं।
इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सोनिया गांधी 10 अगस्त को अपने कार्यकाल का एक साल पूरा कर रही थीं, ऐसे में प्रियंका गांधी की रणनीति थी कि वे पायलट की उसी दिन वापसी कराएं। यह भी संदेश देने की कोशिश की गई कि पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष और प्रियंका के भाई राहुल गांधी भी पायलट की वापसी के लिए तैयार हैं और मामले को सुलझाना चाहते हैं। पार्टी के दिल्ली में गुरुद्वारा रकाबगंज स्थित वॉर रूम में पटेल, वेणुगोपाल भी काफी सक्रिय रहे। वहीं पायलट की मुलाकात प्रियंका गांधी से हुई। हालांकि पायलट किन आश्वासनों के बाद समझौते के लिए तैयार हुए, इसका पूरी तरह से खुलासा अभी तक नहीं हुआ है। लेकिन पायलट ने अपने विद्रोही तेवर को लेकर चुप्पी जरूर तोड़ी है। उन्होंने कहा कई गंभीर मुद्दे हैं, जिन्हें जल्द से जल्द सुलझाया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा, “पार्टी उन्हें जो भी काम देगी, वे अपनी पूरी क्षमता के साथ करेंगे”। पायलट के सकारात्मक रुख के बाद राहुल और प्रियंका इस बात पर सहमत हो गए कि बागी नेताओं के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होगी। सभी मुद्दों पर चर्चा के लिए तीन सदस्य समिति भी बनाई गई हैं, जिसमें अहमद पटेल, के.सी. वेणुगोपाल और पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन को शामिल किया गया है। सूत्रों के अनुसार पायलट को इस बात का भी भरोसा दिलाया गया है कि उनके हितों की रक्षा की जाएगी और जब कांग्रेस कार्यकारिणी समिति का पुनर्गठन होगा तो उन्हें अहम भूमिका मिलेगी।
गहलोत भी समझौते के बाद नरम पड़े, जो 11 जुलाई के बाद से सचिन पायलट और बाकी नेताओं पर काफी तीखे हमले कर रहे थे। हालांकि कइयों का मानना है कि गहलोत ने अपने राजनीतिक जीवन के पिछले 46 साल में ऐसा हमला अपने धुर विरोधियों पर भी नहीं किया था। लेकिन 13 अगस्त को जैसलमेर के रिसॉर्ट में अपने विधायकों के साथ उन्होंने 103 विधायकों के समर्थन के दावा के साथ कहा, “पिछली कड़वी बातों को भूल कर अब आगे बढ़ना है।” एक हफ्ते पहले गहलोत जिस पायलट को निकम्मा और नाकारा कह रहे थे उन्हीं के साथ वे गले मिलते हुए दिखाई दिए।
पायलट और उनके गुट की घर वापसी के बाद गहलोत सरकार के लिए 200 सदस्यों वाली विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने की कोई जरूरत नहीं रह गई थी। भारतीय जनता पार्टी के भी तेवर ढीले पड़ गए, जो पहले अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात कह रही थी। बावजूद इसके 14 अगस्त को विधानसभा का सत्र हुआ, जहां संसदीय राज्यमंत्री शांति धारीवाल ने विश्वास मत सदन में पेश किया और ध्वनिमत से पारित हो गया। विधानसभा में विश्वास मत पर करीब तीन घंटे सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच बहस भी हुई जिसमें भाजपा का ज्यादा जोर सचिन पायलट के साथ हुए दुर्व्यवहार पर था तो कांग्रेस वसुंधरा राजे सिंधिया को भाजपा में नजरअंदाज किए जाने पर ज्यादा चिंतित नजर आई। विश्वास मत हासिल करने के बाद गहलोत सरकार पर अब अगले 6 महीने तक किसी तरह का कोई संकट नहीं है।
रेगिस्तान में मृग मरीचिका के भ्रम को पायलट और गहलोत दोनों अच्छी तरह से जानते हैं। इस मरीचिका को भाजपा भी अच्छे से समझ रही है। राजनैतिक गलियारों में यह बात सभी लोग समझ रहे हैं कि दोनों नेताओं की सुलह कब तक टिकेगी इसका किसी को अंदाजा नहीं है। जिस तरह से पायलट ने अचानक अपने विरोधी तेवर वापस लिए और गहलोत भी नरम दिखाई दिए, वह किसी के लिए हजम करना आसान नहीं है। खास तौर पर जब गहलोत उन 30 दिनों में यही दावा करते रहे कि डेढ़ साल की सरकार में उनकी उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट से कोई बात ही नहीं होती थी। साफ लगता है कि दोनों नेताओं के बीच सुलह की जगह अभी युद्ध विराम ही हुआ है।
पायलट के साथियों में यह भी सवाल उठ रहा है कि उप-मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष का पद गंवाने के बाद भी उन्होंने क्यों समझौता किया? जहां तक पायलट का भाजपा के साथ जाने का सवाल है तो उन्होंने आधिकारिक रूप से हमेशा यही बात कही कि वे कभी भी भाजपा के साथ नहीं जाएंगे लेकिन उनके करीबी साथियों में से एक नेता ने आउटलुक को बताया “वे पिछले 3 महीने से भाजपा के संपर्क में थे और चाहते थे कि कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद गहलोत की जगह उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया जाए।” इसी बात का दावा कांग्रेसी नेता पायलट के बागी तेवर सामने आने के बाद लगातार कर रहे थे।
हालांकि पायलट की घर वापसी के बाद गहलोत की ताकत में कोई कमी नहीं आई है बल्कि वे कहीं ज्यादा मजबूत होकर उभरे हैं जबकि इसके उलट मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने अपनी सत्ता गंवाकर अपनी कमजोरी जाहिर कर दी थी। पायलट की जगह प्रदेश अध्यक्ष की कमान संभालने वाले गोविंद सिंह डोटासरा ने आउटलुक को बताया, “अशोक गहलोत ही सरकार के बाकी बचे समय के लिए मुख्यमंत्री रहेंगे, बीच में नेतृत्व परिवर्तन करने का सवाल ही नहीं उठता है।” ऐसे में फिर क्या बदला?
कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि अशोक गहलोत से लगातार अपमानित होने के बावजूद पायलट की घर वापसी की दो प्रमुख वजहें हैं। पहली बात तो यह कि पायलट जितने विधायकों के समर्थन की उम्मीद कर रहे थे वे उनके साथ नहीं आए, इस वजह से वे गहलोत सरकार को गिराने में भाजपा की मदद नहीं कर पाए। दूसरी प्रमुख वजह वसुंधरा का रवैया था जो इस पूरे घटनाक्रम पर चुप्पी साधे हुई थीं। राजनैतिक हलकों में यह भी बात सामने आई कि वसुंधरा सरकार गिराने में भाजपा की कवायद का समर्थन नहीं कर रही हैं। पूरे घटनाक्रम में वसुंधरा की कवायद अपने समर्थक विधायकों को अपने साथ जोड़े रखने की थी। माना जाता है कि राज्य में भाजपा के 72 विधायकों में से कम से कम 40 विधायक उनके समर्थक हैं। इसीलिए भाजपा ने जब अपने 18 विधायकों को रिसॉर्ट में शिफ्ट किया तो पायलट की रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गई। साथ ही उन्हें एहसास हो गया कि अब भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने की उनकी कोई संभावना नहीं है, जिसके बाद पायलट ने अपने तेवर नरम कर दिए।
विश्वास मत के दौरान हुई बहस में भी वसुंधरा के रवैये ने लोगों को काफी अचरज में डाला। पूरी बहस के दौरान गहलोत और उनके साथी लगातार वसुंधरा राजे पर हमला कर रहे थे और यह दावा कर रहे थे कि भाजपा ने वसुंधरा को दरकिनार कर दिया है। लेकिन आश्चर्य की बात यह रही कि इतने हमले होने के बावजूद वसुंधरा पूरी तरह से चुप्पी साधे रहीं। विधानसभा की पूरी कार्रवाई में विपक्ष के नेता गुलाब चंद कटारिया, उनके साथी राजेंद्र राठौर, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया और विधायक किरण माहेश्वरी के जरिए पार्टी गहलोत सरकार पर हमले करती रही। राजस्थान में पूरे एक महीने तक चले सियासी संकट में वसुंधरा पूरी तरह से निष्क्रिय दिखाई दीं। वे पूरे समय धौलपुर में ही रहीं। इस बीच वसुंधरा की दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा से अचानक हुई मुलाकात से भी कई सारी सुगबुगाहट शुरू हो गई थी लेकिन वसुंधरा बिना किसी शोर- शराबे के वापस भी लौट गईं।
एक समय पायलट और गहलोत के बीच असंभव दिखने वाली सुलह फिलहाल तो हो गई है लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व की चिंता यही है कि यह लंबे समय तक कैसे बनी रहे। इसीलिए 16 अगस्त को पार्टी ने अजय माकन को न केवल पर्यवेक्षक के रूप में जयपुर भेजा बल्कि उन्हें अविनाश पांडे की जगह राज्य का प्रभार भी सौंप दिया। पिछले डेढ़ साल से पायलट लगातार केंद्रीय नेतृत्व से अविनाश पांडे के खिलाफ शिकायत करते रहे थे। उनकी शिकायत थी पांडे का रवैया गहलोत के प्रति झुका है।
कांग्रेस सूत्रों का कहना है आने वाले समय में यह समझौता किस ओर रुख लेगा, यह बहुत हद तक गहलोत पर निर्भर है। देखना यह है कि गहलोत, पायलट और उनके साथियों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं। जहां तक उप-मुख्यमंत्री पद की बात है तो उस पर पायलट ने साफ कर दिया है कि वे दोबारा इस पद को नहीं लेंगे। उनके करीबियों का कहना है कि प्रियंका ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि कि मंत्रिमंडल में होने वाले फेरबदल में उनके करीबियों को महत्व दिया जाएगा।
ऐसी स्थिति में गहलोत की भी अग्निपरीक्षा होने वाली है क्योंकि संकट के समय उनके साथ खड़े विधायक भी अब मंत्रिमंडल फेरबदल में पुरस्कार की उम्मीद करेंगे। राज्य में निकाय चुनाव भी जल्दी होने वाले हैं। ऐसे में किस के करीबी को टिकट मिलेगा, इस पर भी गहलोत और सचिन पायलट में आने वाले समय में प्रतिद्वंद्विता दिख सकती है। इसी तरह का गतिरोध राज्य में पार्टी के विभिन्न पदों पर हुई नियुक्तियों को लेकर भी उठेगा क्योंकि विद्रोह के बाद पायलट गुट के लोगों को पार्टी के विभिन्न पदों से हटा दिया गया था। इस बीच भाजपा भी वसुंधरा राजे की चुप्पी के बावजूद शांत नहीं बैठने वाली है। ऐसे में आने वाले समय में राज्य की राजनीति किस करवट बैठेगी, यह मृग-मरीचिका जैसा ही है।