पिछली आठ अप्रैल को राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव और पूर्व राज्यसभा सदस्य देवीप्रसाद त्रिपाठी ने एक प्रयोग किया। उन्होंने कुछ लेखकों-बुद्धिजीवियों तथा राजनेताओं को अनौपचारिक संवाद के लिए आमंत्रित किया। अधिकांश राजनेता लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार में व्यस्त हैं, फिर भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी, कांग्रेस नेता अहमद पटेल, राष्ट्रीय जनता दल के उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी और समाजवादी पार्टी के जावेद अली खान इस अनौपचारिक आयोजन में शामिल हुए। इस आयोजन का कोई उल्लेखनीय नतीजा नहीं निकला, लेकिन यह उसका उद्देश्य भी नहीं था। पर इसके माध्यम से एक महत्वपूर्ण और सार्थक पहल अवश्य की गई। इसके मूल में यह तथ्य भी है कि देवीप्रसाद त्रिपाठी मूलतः हिंदी के कवि हैं, हमेशा बौद्धिक क्रियाकलापों में सक्रिय रहे हैं और पिछले एक दशक से अधिक समय से अंग्रेजी पत्रिका ‘थिंक इंडिया’ का संपादन कर रहे हैं।
हमारे समय, समाज और राजनीति पर यह आयोजन महत्वपूर्ण टिप्पणी भी करता है। हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब राजनेताओं और साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों को एक जगह इकट्ठा करने के लिए विशेष प्रयास करना पड़ता है। वरना एक समय वह था जब अधिकांश राजनेता स्वयं बुद्धिजीवी और लेखक हुआ करते थे, पत्र-पत्रिकाओं का संपादन करते थे और लेख या पुस्तकें लिखते थे। स्वाभाविक रूप से वे अपने समकालीन साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के साथ निकट संपर्क में रहते थे और कई लोगों के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता भी हुआ करती थी। जवाहरलाल नेहरू की फिराक गोरखपुरी और जोश मलीहाबादी के साथ मित्रता प्रसिद्ध है। ‘निराला’ का महत्व भी वे पहचानते थे। ‘निराला’ के लिए सरकार की ओर से धनराशि आवंटित कराने के बाद उसे संभालने की जिम्मेदारी नेहरू ने महादेवी वर्मा को सौंपी थी, क्योंकि वे ‘निराला’ के फक्कड़ स्वभाव से बखूबी परिचित थे। नेहरू के प्रधानमंत्री निवास तीन मूर्ति भवन में अक्सर हिंदी-उर्दू कवियों की गोष्ठियां हुआ करती थीं। नेहरू द्वारा लिखी पुस्तकें आज भी चाव से पढ़ी जाती हैं। दुनिया उनकी साहित्यिक भाषा-शैली की कायल है, भले ही उन्होंने कविता-कहानी-उपन्यास न लिखे हों। इंदिरा गांधी भी फिराक गोरखपुरी और महादेवी वर्मा आदि के साथ संपर्क बनाए रखती थीं। उनके साथ श्रीकांत वर्मा की निकटता से पता चलता है कि शायद उनके पिता और शांति निकेतन का सम्मिलित प्रभाव उन्हें साहित्य और साहित्यकारों के संपर्क में बनाए रखता था।
राष्ट्रीय आंदोलन के दौर के लगभग सभी नेता- चौधरी चरण सिंह समेत बाकायदा लेखक थे। कुछ तो बाकायदा साहित्यकार थे मसलन, संपूर्णानंद, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सेठ गोविंद दास, कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी और द्वारिका प्रसाद मिश्र। कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद को तो उनकी आत्मकथा के लिए केरल साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने भी कई पुस्तकें लिखी थीं, जिनमें रामायण और महाभारत पर आधारित पुस्तकें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। राजेंद्र प्रसाद की आत्मकथा भी उल्लेखनीय है। मुजफ्फर अहमद, ए.के. गोपालन, मोहित सेन आदि कई कम्युनिस्ट नेताओं ने भी आत्मकथाएं लिखीं। हिंदूवादियों में एम.एस. गोलवलकर से लेकर बलराज मधोक और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर लालकृष्ण आडवाणी तक ने पुस्तकें लिखीं।
उर्दू के जाने-माने कवि मख्दूम प्रसिद्ध ट्रेड यूनियन नेता थे। देश के सामने खड़ी समस्याओं पर सभी नेता लेख और पुस्तकें लिखते थे। 1950 और 1960 के दशक की दिल्ली के जो साक्षी अभी भी हमारे बीच हैं, वे बताते हैं कि राममनोहर लोहिया और फीरोज गांधी जैसे नेता किस तरह रोजाना टी हाउस और कॉफी हाउस में बैठते थे और लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों और चित्रकारों के घनिष्ठ संपर्क में रहते थे। यह अकारण नहीं था कि रघुवीर सहाय, कमलेश और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जैसे अनेक हिंदी के साहित्यकार ही नहीं, यूआर अनंतमूर्ति सरीखे कन्नड़ के साहित्यकार भी लोहिया से प्रेरणा ग्रहण करते थे। आजादी के बाद के साहित्यकारों पर जितना प्रभाव लोहिया का था, उतना शायद ही किसी दूसरे राजनेता का रहा हो।
आचार्य नरेंद्र देव ने तो बौद्ध दर्शन पर ऐसा अनूठा ग्रंथ लिखा है जिसे हिंदी वांग्मय की अमूल्य निधि माना जा सकता है। लोहिया के लेख, पुस्तिकाएं और ‘इतिहास चक्र’ तथा ‘मार्क्स, गांधी, समाजवाद’ जैसी पुस्तकें भारतीय राजनीतिक साहित्य के महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। अशोक मेहता जाने-माने अर्थशास्त्री और अनेक पुस्तकों के लेखक थे। चौधरी चरण सिंह ने भी ‘इकोनॉमिक नाइटमेयर ऑफ इंडिया: इट कॉज एंड क्योर’ जैसी पुस्तक लिख कर कृषि क्षेत्र की समस्याओं की अनदेखी किए जाने के प्रति ध्यान आकृष्ट किया था।
लेकिन पिछले कुछ समय से राजनीति और साहित्य एवं बौद्धिक जगत का यह संबंध टूट-सा गया है। अब केवल शशि थरूर जैसे कुछ इक्के-दुक्के नेता ही किताबें लिखते नजर आते हैं और वे भी मुख्यधारा के नेता नहीं हैं। बड़े नेताओं में केवल शरद पवार की आत्मकथा पिछले साल देखने में आई थी। आज के राजनीतिक परिदृश्य में अधिकांश नेताओं की साहित्य या अन्य किसी किस्म के लेखन में रुचि नहीं है न वे स्वयं लिखते-पढ़ते हैं। जहां प्रधानमंत्री स्वयं, ‘हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क’ का विवाद खड़ा करके पढ़ने-लिखने का मखौल उड़ाते हों, वहां दूसरों से भला क्या उम्मीद की जा सकती है? यदि देश की राजनीति को विचारों से समृद्ध बनाना लक्ष्य हो, तो उसे राजनेताओं और लेखकों-बुद्धिजीवियों के बीच निकट संपर्क स्थापित करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)