करीब दो दशक पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का यह बयान ‘इट्स द इकोनॉमी, स्टुपिड’ खूब उद्धृत किया जाता रहा है। इसका आशय है कि बाकी सब तो गौण है, आर्थिक मसले ही राजनीति की दिशा तय करते हैं। बेशक, यह अमेरिका और विकसित देशों के संदर्भ में सटीक बैठता हो, लेकिन भारत के मौजूदा राजनैतिक माहौल में यह सही साबित नहीं होता है। इस समय देश के दो राज्यों, महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। अभी तक के आकलन बता रहे हैं कि हरियाणा में सत्तारूढ़ भाजपा और महाराष्ट्र में भाजपा और उसकी सहयोगी शिवसेना को विपक्ष बहुत कड़ी टक्कर नहीं दे पा रहा है। यह स्थिति तब है जब सरकारी एजेंसियों से लेकर वैश्विक संगठन तक, सभी कह रहे हैं कि भारत में अर्थव्यवस्था काफी बुरे दौर से गुजर रही है। आर्थिक विकास दर के अनुमान लगातार नीचे की ओर ही जा रहे हैं। किसानों की हालत भी अच्छी नहीं है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि और सहयोगी क्षेत्र की हिस्सेदारी घटने के साथ इसकी विकास दर भी लगभग न के बराबर है। किसानों की आय बढ़ने के बजाय घट गई है। दोनों राज्य आर्थिक रूप से मजबूत माने जाते हैं। हरियाणा कृषि क्षेत्र में आगे रहा है, तो महाराष्ट्र का औद्योगिक विकास बाकी राज्यों से बेहतर रहा है। लेकिन अब दोनों मोर्चों पर संकट है। औद्योगिक इकाइयां कमजोर मांग के चलते बंद हो रही हैं, तो किसानों की हालत खराब ही है।
हाल ही में विश्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए भारत की जीडीपी की विकास दर का अनुमान घटाकर छह फीसदी कर दिया। 15 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने भी इसे सात फीसदी के अपने पुराने अनुमान से घटाकर 6.1 फीसदी कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज ने जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान 5.8 फीसदी कर दिया है। भारतीय रिजर्व बैंक भी जीडीपी की वृद्धि दर के अनुमान को 6.9 फीसदी से घटाकर 6.1 फीसदी कर चुका है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि अगस्त में मैन्युफैक्चरिंग बढ़ने के बजाय 1.1 फीसदी सिकुड़ गई। सितंबर में निर्यात सात फीसदी और आयात 14 फीसदी घट गया है। आयात ज्यादा घटने से व्यापार घाटा भले कम हुआ है, लेकिन इसमें कमी की बड़ी वजह देश में मांग का गिरना भी है, क्योंकि आयात का कोई बड़ा विकल्प हमने खोज लिया हो, ऐसा नहीं है। त्योहारी सीजन होने के बावजूद बाजारों से रौनक गायब है और बिक्री नहीं बढ़ रही है। कमर्शियल सेक्टर के कर्ज में भारी गिरावट आई है।
इन सबके बीच बेरोजगारी के आंकड़े चिंताजनक तसवीर पेश करते हैं। पिछले दशक में देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में गिरावट का दौर अब उल्टी दिशा में चल चुका है। इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी भी कह रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था बहुत खराब दौर से गुजर रही है। लेकिन इन सबके बीच हमारी सरकार के मंत्री अर्थव्यवस्था को मजबूत दिखाने के अपने फॉर्मूले निकाल रहे हैं। फिल्मों की भारी कमाई का नया फॉर्मूला इसमें सबसे नया है, जो देश के लिए अहम मसलों पर मंत्रियों की गंभीरता के स्तर को दर्शाता है।
इस सबके बावजूद, लगता है, चुनावी राजनीति में ऊपर कही बातों के ज्यादा मायने नहीं रह गए हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की रैलियों के मुद्दे यही साबित करते हैं। जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करना और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनआरसी) सत्तारूढ़ भाजपा के चुनाव प्रचार के केंद्रीय मुद्दे हैं। पार्टी की चुनावी रैलियों में पाकिस्तान का जिक्र भी गाहे-बगाहे आ जाता है। लेकिन विपक्ष भी लोगों के जीवन को बेहतर करने वाले मुद्दों को बहुत मजबूती से नहीं उठा पा रहा है।
लगता है, विपक्ष लोकसभा चुनावों में अपनी हार के सदमें से उबरा नहीं है। हालांकि मुद्दों की कमी नहीं है, लेकिन वह उतना मुखर और व्यवस्थित नहीं हुआ है, जितना होना चाहिए। ऐसे में, आर्थिक मोर्चे पर लगातार नाकाम होती सत्तारूढ़ भाजपा को बहुत ज्यादा चिंता नहीं है। वह भावनात्मक मुद्दों को केंद्र में रखकर चुनावी जीत की रणनीति को आगे बढ़ा रही है।
यह चुनाव विपक्ष के लिए ऐसा मौका है जब वह सरकार की नाकामियों को जनता के बीच ले जाकर अपनी राजनैतिक उपस्थिति का एहसास करा सकता है। लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है और इन दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के जरिए वह अपनी ताकत को बटोरने की कोशिश कर सकता है। इसके बाद 2020 में होने वाले दिल्ली और बिहार के चुनावों में ही भाजपा को चुनौती मिल सकेगी। हालांकि बीच में झारखंड विधानसभा चुनाव भी होने हैं, लेकिन यह छोटा राज्य राष्ट्रीय राजनीति में फर्क पैदा करने की क्षमता नहीं रखता है। पर, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश का मतदाता कई बार चौंकाने वाले नतीजे देता है और अगर वह समझता है कि उसके जीवन को बेहतर करने के मोर्चे पर सरकारें बहुत कारगर नहीं हैं, तो अप्रत्याशित नतीजे भी आ सकते हैं। इसलिए बिल क्लिंटन के बयान को पूरी तरह से नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है।