फागुन (मार्च) में जेठ (जून) सी झुलसाती तपिश ने इस बार फसलों से लेकर जीव-जंतुओं समेत पूरे वातावरण की गुलाबी रंगत छीन ली। समय से पहले चलने वाली गर्म हवाओं ने किसानों को बहुत नुकसान पहुंचाया। इतना कि इस बार एमएसपी से अधिक मिले गेहूं के दाम भी उनके चेहरे की रंगत नहीं लौटा पाए। अकेले पंजाब में पिछले रबी सीजन की तुलना में गेहूं का उत्पादन करीब 33 लाख टन घटने से किसानों को 7000 करोड़ रुपये के नुकसान की आशंका है। 2021 के रबी सीजन में 134 लाख टन गेहूं उत्पादन के बजाए इस वर्ष उत्पादन घटकर 101 लाख टन रह गया है। मध्य प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, यूपी जैसे बड़े गेहूं उत्पादक राज्यों में भी गेहूं उत्पादन में 20 से 25 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। इस बार मार्च में 122 बरस की सबसे गर्म हवाओं की चपेट में आई सरसों और चने जैसी अन्य रबी फसलों की 25 फीसदी तक घटी उपज ने अन्नदाता की उम्मीदों पर पानी फेरा और खाद्य संकट का भी संकेत दिया। पिछले 120-22 वर्षों में यह मार्च और अप्रैल सबसे गर्म था। मौसम विज्ञानियों ने मई में भी पारा आसमान पर रहने की आशंका जताई है। देश के उत्तरी और मध्य राज्यों में 45 डिग्री सेल्सियस और उसके पार पहुंचे पारे ने दलहन, धान जैसी खरीफ फसलों की बुआई करने वाले किसानों की चिंता बढ़ा दी है। कृषि पर जलवायु संकट का असर उदयपुर में 14 मई से हो रहे कांग्रेस के तीन दिन के चिंतिन शिविर में भी दिखेगा। कांग्रेस खेती को उबारने के लिए अपना दृष्टिकोण पत्र जारी कर सकती है।
कार्बन और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन से बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग को लेकर कृषि पर संसदीय स्थायी समिति ने अगस्त 2017 में एक रिपोर्ट में चेताया था, “जलवायु परिवर्तन से 2022 तक चावल उत्पादन में 6 से 8 प्रतिशत घटने की आशंका है।” कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछले 100 वर्षों के दौरान तापमान में औसत वृद्धि 0.75 डिग्री सेल्सियस थी, जो अगले 100 वर्षों में 1.5 से 4.5 डिग्री सेल्सियस होने से फसलों, मानव और पशुधन के साथ पूरी इकोलॉजी पर प्रभाव डालेगी।
कृषि को भी जलवायु संकट का बड़ा कारण मानते हुए पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. सरदारा सिंह जोहल ने आउटलुक से कहा, “खेती में भूजल के अत्यधिक दोहन और उवर्रकों एवं कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग ने ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) का उत्सर्जन बढ़ाकर 30 फीसदी तक कर दिया है, जो तीन दशक पहले तक 5 से 7 फीसदी था। किसानों में जागरूकता की कमी और स्थायी विकल्पों के अभाव में ग्रीनहाउस उत्सर्जन कम करने के लिए फसलों के विविधीकरण जैसे उपाय गंभीरता से नहीं किए गए।” बगैर प्रोसेसिंग के एक तिहाई खाद्यान्न, फल-सब्जियां सड़ने से हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ा दबाव भी वातावरण के लिए घातक साबित हो रहा है।
साढ़े पांच दशक पहले पंजाब और हरियाणा ने प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर देश की पहली हरित क्रांति का सूत्रपात किया था। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा इसे मिट्टी, भूजल और जैव विविधता के लिए खतरा मानते हैं। कांग्रेस के आगामी चिंतिन शिविर में कृषि कमेटी के चेयरमैन हुड्डा ने आउटलुक से कहा, “देश के लाखों लोगों को भूख के संकट से बचाने वाले हरियाणा और पंजाब के किसानों को जलवायु परिवर्तन के संकट से निकालने की कोई टिकाऊ नीति केंद्र और राज्यों के स्तर पर लागू नहीं हुई है। गेहूं और धान पर निर्भरता से किसानों की लागत और आय में अंतर बढ़ा तो पोषण और जलवायु पर संकट भी गहराया। पिछले पांच दशक में हरियाणा और पंजाब से मक्का, जौ, चना, दाल और मोटे अनाज की काफी खेती गायब हो गई है।”
1966 में गेहूं और चावल के लिए लाई गई हरित क्रांति से पहले हरियाणा-पंजाब में 60 के दशक तक 21 फसलें उगाई जाती थीं, जो अब घटकर 9 रह गई हैं। इन दोनों राज्यों के औसत कृषि सकल घरेलू उत्पाद में लगभग दो प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यदि किसान गेहूं और धान की फसलों की एमएसपी के मोह में पड़ कर विविध फसलों की खेती करना नहीं छोड़ते तो सालाना पांच प्रतिशत से अधिक वृद्धि हो सकती थी। 2005-06 और 2020-21 के बीच देश के कृषि क्षेत्र की औसत वृद्धि दर 3.9 प्रतिशत रही जबकि पंजाब और हरियाणा में 1.61 प्रतिशत पर अटकी है।
खेती को इस संकट से निकालने का टिकाऊ समाधान कृषि वैज्ञानिकों की नजर में ‘क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर’ है। इसमें गेहूं और धान के फसली चक्र के बदले वैश्विक बाजार में मांग वाली ऊंचे दाम की फसलों से किसानों की आय में बढ़ोतरी हो सकती है। वहीं खेती के आधुनिक साधन से किसान ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को भी कम कर सकते हैं।
हरित क्रांति अभियान के बाद हरियाणा में वन क्षेत्र की स्थिति को चिंताजनक बताते हुए मुख्य वन सरंक्षक डॉ. गुरनाम सिंह ने कहा, “जलवायु संतुलन बनाए रखने के लिए वन कुल क्षेत्रफल का एक तिहाई होना चाहिए जबकि हरियाणा में खासकर एनसीआर में पड़ते 12 जिलों में यह मात्र 3.5 फीसदी रह गया है।”
कृषि में विविधीकरण और कृषि-प्रसंस्करण उद्यम अपनाने के साथ मिट्टी और जल प्रबंधन पर जोर देते हुए कृषि विज्ञानी सुच्चा सिंह गिल कहते हैं, “हमारे किसान एक किलो चावल उगाने के लिए लगभग 5400 लीटर पानी की खपत कर रहे हैं जबकि चीन में इतने ही चावल की खेती में 1000 लीटर पानी की खपत होती है। धान की खेती पर जोर देने वाले राज्यों के तेजी से गिरते भूजल स्तर की वजह से जल और जलवायु संकट बढ़ रहा है। पंजाब के 148 ब्लॉक में से 131 अत्यधिक भूजल दोहन के चलते ‘डार्क जोन’ में हैं। पंजाब कभी फसल विविधीकरण लागू करने में गंभीर नहीं रहा है।” गिल के मुताबिक गिरते जलस्तर की वजह से पंजाब के 14 लाख नलकूपों में से 70 फीसदी की हर साल खुदाई धान की बुआई से पहले और गहरी करनी पड़ रही है। यहां के उत्तरी और मध्य जिलों में पानी की भारी कमी है, जबकि दक्षिण-पश्चिमी जिलों में जलभराव और मिट्टी में मौजूद लवण खेती पर भारी पड़ रहा है। मालवा क्षेत्र के मुक्तसर, फाजिल्का, बठिंडा और फरीदकोट जिलों को लेकर केंद्रीय भूजल बोर्ड ने एक सख्त चेतावनी दी है कि यदि इसी रफ्तार से भूजल का दोहन होता रहा तो पंजाब रेगिस्तान में बदल जाएगा।
कृषि वैज्ञनिकों की मानें तो सिंचित क्षेत्रों में, एक सामान्य किसान अब 70 के दशक की तुलना में साढ़े तीन गुना अधिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग कर रहा है। पंजाब देश में खपने वाले कुल कीटनाशकों का लगभग 23 फीसदी उपयोग करता है जबकि यहां का भू-भाग देश के कुल भू-भाग का मात्र 1.5 फीसदी है। पंजाब की कॉटन बेल्ट मालवा इलाके के दक्षिण-पश्चिमी जिले में ही राज्य की 75 फीसदी कीटनाशकों की खपत हो रही है। खाद्यान्न, दूध, फलों और सब्जियों में कीटनाशकों के अवशेष रहने से जलवायु संकट के साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी बढ़ी हैं। विडंबना यह है कि 78 प्रतिशत कीटनाशक और उर्वरक पर्यावरण में घुलने से मिट्टी, वायु और जल प्रदूषण बढ़ रहा है। सूक्ष्म पोषक तत्वों में गिरावट से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 में कहा गया है, “मालवा क्षेत्र में 57 प्रतिशत महिलाएं और पांच साल से कम उम्र के 36 प्रतिशत बच्चे एनीमिया के शिकार हैं।”
किसानों को जलवायु संकट समेत अन्य संकट से उबारने के लिए अच्छी आय की जरूरत पर बल देते हुए सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल ऐंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के नेहरू सेल के चेयरपर्सन डॉ.आर.एस घुम्मन ने कहा, “ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) ने 16 टिकाऊ तरीके की पहचान की है जो आर्थिक रूप से लाभकारी, सामाजिक रूप से समावेशी और पर्यावरण के अनुकूल हो सकते हैं। इनमें जैविक खेती, एकीकृत कृषि प्रणाली, कृषि-वानिकी प्रमुख हैं।” हालांकि टिकाऊ कृषि हाशिये पर बनी हुई है। सरकारी मदद सीमित है। सतत कृषि पर भारत के राष्ट्रीय मिशन को वित्त वर्ष 2022-23 के 1.24 लाख करोड़ रुपये के कृषि बजट में से मात्र 0.8 फीसदी दिया गया है। इसके बावजूद 100 फीसदी जैविक राज्य के रूप में सिक्किम की पहल के बाद आंध्र प्रदेश का लक्ष्य भी 2027 तक 100 फीसदी प्राकृतिक खेती करना है। वहां 2016-17 की तुलना में 2020-21 में कीटनाशकों का इस्तेमाल 23 फीसदी घटा है। कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो ‘क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर’ फसलों, पशुधन और वनों के प्रबंधन के लिए एकीकृत दृष्टिकोण है जो खाद्य सुरक्षा एवं जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों का सार्थक समाधान हो सकता है।