पिछली सदी के भारतीय कार्टूनिस्टों में शंकर पिल्लै शीर्षस्थ माने जाते थे। उन्होंने 1948 में कार्टून पत्रिका शंकर्स वीकली निकाली थी। नई दिल्ली का मशहूर डॉल्स म्यूजियम और बच्चों के लिए पत्रिकाएं एवं पुस्तकें प्रकाशित करने वाला चिल्ड्रेंस बुक ट्रस्ट उन्हीं ने स्थापित किया था। शंकर की जवाहरलाल नेहरू के साथ घनिष्ठ मित्रता थी। उन्हीं दिनों देश आजाद हुआ और भारत एक स्वाधीन लोकतांत्रिक गणराज्य बना। महात्मा गांधी के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय नेता माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू उसके प्रधानमंत्री बने। शंकर से बातचीत के दौरान नेहरू ने उन्हें हिदायत देते हुए कहा था, “शंकर, तुम मुझे भी कभी मत छोड़ना।” यानी मेरे प्रति भी कभी नरमी मत बरतना। इन्हीं नेहरू ने लिखा था, “कार्टूनिस्ट का काम केवल हल्का-फुल्का व्यंग्य करना नहीं, बल्कि किसी घटना का आंतरिक तत्व पहचान कर उसे दूसरों तक पहुंचाना भी है। शंकर में यह दुर्लभ गुण है कि वह बिना किसी दुर्भावना के उन लोगों की कमजोरियों और अवगुणों को चंद रेखाओं के जरिए उद्घाटित कर देते हैं जो उनका प्रदर्शन सार्वजनिक मंचों पर करते हैं।” नेहरू ने यह भी लिखा कि “यह बहुत अच्छा है कि समय-समय पर हम लोगों के दंभ के नकाब को तार-तार किया जाता रहे।” यह भी इतिहास का तथ्य है कि इन्हीं नेहरू की पुत्री इंदिरा गांधी ने जब जून, 1975 में देश पर इमरजेंसी थोपी, तो दिसंबर, 1975 में शंकर ने अपनी पत्रिका बंद कर दी। यह दीगर बात है कि इंदिरा गांधी ने उन्हें पत्र लिखकर इस निर्णय पर अफसोस जताया था।
यहां याद रखने लायक बात यह है कि प्रधानमंत्री नेहरू के नजदीकी मित्र होने के बावजूद शंकर ने अपनी पत्रिका के बारे में पूछे गए एक सवाल का जवाब देते हुए पत्रिका के चरित्र को “मूलतः प्रतिष्ठान-विरोधी” अर्थात सत्ता-विरोधी बताया था। लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका के लिए उसी “चौकीदार” शब्द का इस्तेमाल किया जाता है जिस शब्द का इन दिनों चारों तरफ बोलबाला है। यह अलग बात है कि इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके भक्त इस शब्द का प्रयोग अपने लिए कर रहे हैं, भले ही उनके कारनामे इसके अर्थ के ठीक उलट ही क्यों न हों। मीडिया का दायित्व इस बात पर नजर रखना है कि सरकारें लोकतांत्रिक ढंग से जनता के हित में काम कर रही हैं या नहीं, लोकतंत्र के विभिन्न अंग अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हैं या नहीं और सरकार से जुड़े लोग हों या गैर-सरकारी लोग, वे कहीं भ्रष्टाचार में लिप्त तो नहीं हैं। लोकतंत्र के प्रहरी का यही काम है और लंबे समय तक भारतीय मीडिया ने अपनी अनेक खामियों के बावजूद इस काम को बहुत मुस्तैदी के साथ अंजाम दिया है। लेकिन आजकल स्थिति क्या है? इन दिनों स्थिति यह है कि देश का प्रधानमंत्री एक टीवी चैनल के संचालक से उसके यहां काम करने वाले मीडिया कर्मियों की शिकायत करता है। व्यापक रूप से प्रचारित एक वीडियो में यह देखा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी एक टीवी चैनल के सीईओ से कह रहे हैं, “आपने अपने चैनल में ऐसे लोग भर रखे हैं जिनके डीएनए में मुझे गाली देना है।” क्या किसी सच्चे लोकतंत्र में यह कल्पना की जा सकती है कि प्रधानमंत्री खुलेआम किसी टीवी चैनल पर दबाव डाले और उसके मीडिया कर्मियों के बारे में शिकायत करे?
सभी सरकारें चाहती हैं कि उसके कामकाज के बारे में अच्छी खबरें ही प्रचारित हों। अपने पक्ष में प्रचार के लिए केंद्र सरकार के पास आकाशवाणी और दूरदर्शन के अलावा पत्र सूचना कार्यालय (पीआइबी) और दृश्य-श्रव्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) जैसी एजेंसियां हैं। राज्य सरकारों के भी सूचना विभाग होते हैं, जो यही काम करते हैं। सरकारी विज्ञापनों के जरिए सरकारें मीडिया को प्रभावित करने की कोशिश पहले भी करती रही हैं। हर दौर में कुछ पत्रकार भी खुल्लम-खुल्ला सरकार के पक्ष में लिखते रहे हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन आया है और आज के हालात की पहले की किसी स्थिति से तुलना नहीं की जा सकती। यह अभूतपूर्व है।
मीडिया का बहुत थोड़ा-सा हिस्सा लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा है और उसके खिलाफ मोदी सरकार हर तरह की कार्रवाई कर रही है। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता और नेता अक्सर मीडिया के खिलाफ अदालत में जाते हैं और मानहानि के मुकदमे दायर करते हैं। द वायर, केरेवान और कुछ अन्य मीडिया मंचों के खिलाफ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के पुत्र जय शाह, भाजपा सांसद राजीव चंद्रशेखर आदि ने मानहानि के मुकदमे दायर कर रखे हैं। अभी ताजा खबर है कि बेंगलूरू से लोकसभा के लिए भाजपा के उम्मीदवार तेजस्वी सूर्य ने 49 मीडिया मंचों और फेसबुक तथा ट्विटर आदि सोशल मीडिया मंचों पर निचली अदालत से अपने खिलाफ कुछ भी न छपने देने का अंतरिम आदेश प्राप्त कर लिया है। उनके खिलाफ #मी टू आंदोलन में यौन-उत्पीड़न के आरोप लगे थे। छपने पर अंकुश लगाने की प्रवृत्ति काफी जोर पकड़ चुकी है।
दरअसल, हिंदुत्व की शक्तियां प्रचार पर बहुत अधिक जोर देती हैं और उनका प्रचार अक्सर शुद्ध झूठ या अर्ध-सत्य पर आधारित होता है। गोएबल्स का प्रसिद्ध कथन है, “सौ बार दोहराने से झूठ भी सच बन जाता है।” मोदी सरकार का जोर भी अपने पूरे कार्यकाल में प्रचार पर अधिक, काम करने पर कम रहा है। पिछले पांच साल के दौरान मीडिया की स्वतंत्रता का लगातार क्षरण हुआ है और इसमें बड़े पूंजीपतियों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बिना सजग, सचेत और आलोचनात्मक मीडिया के स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में इस स्थिति में सुधार होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)