हाल में व्हॉट्सऐप के अपनी निजता संबंधी नीति बदलने के निर्णय को लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया है। फेसबुक के स्वामित्व वाली इस सोशल मैसेजिंग ऐप ने अपने सभी उपभोक्ताओं को इस नीति को 8 फरवरी तक अनिवार्य रूप से स्वीकार करने को कहा था, लेकिन बढ़ते विरोध के कारण फिलहाल इसे टाल दिया गया है। मामला जब अदालत में पहुंचा तो दिल्ली हाइकोर्ट ने निजता के उल्लंघन की शिकायत लेकर पहुंचे याचिकाकर्ता को सुनवाई के दौरान एक समाधान सुझाया: अगर आपकी निजता प्रभावित हो रही है, तो आप इस ऐप को डिलीट कर दीजिए।
सरल और प्रभावी। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। लेकिन क्या उन लाखों उपभोक्ताओं के लिए यह मुमकिन है, जिनके सुबह की शुरुआत और शाम का अंत व्हॉट्सऐप के संदेशों को पढ़ने, उन्हें इष्ट-मित्रों की ओर बढ़ाने, चुटकुले-मीम बनाने और झूठी-सच्ची खबरों को बिना सत्यापित किए सैकड़ों समूहों में प्रसारित करने से होता है? फिर, उन शुभचिंतकों का क्या जो बिना ‘सुप्रभात’ और ‘शुभ रात्रि’ का संदेश भेजे एक निवाला नहीं लेते? क्या उन्हें एक झटके में इस लत से निजात मिल सकती है? खुदा खैर करे, अगर इसके ‘विथड्रावल सिम्पटम्स’ आते हैं, तो उसका शर्तिया इलाज कौन करेगा?
दरअसल, आज के दौर में रोटी, कपड़ा और मकान के साथ हमें सोशल मीडिया भी चाहिए, वरना जीवन नीरस हो जाएगा। इसके बगैर हम गेहूं के ढेर पर पड़े तो रहेंगे, लेकिन गुलाब की खुशबू से महरूम हो जाएंगे। दो दशक पूर्व क्या हमने कल्पना की थी कि एक अदना-सा स्मार्ट फोन एक दिन ऐसी धुरी बन जाएगा, जिसके इर्द-गिर्द हमारी जिंदगी लट्टू की तरह घूमेगी? पिछली सदी का अंत आते-आते मोबाइल फोन के प्रति लोगों की दीवानगी ऐसे बढ़ने लगी कि देश के एक ख्यात पत्रकार हैरत में पड़ गए थे। “आखिर कौन है, जो मेरे घर से निकलने के बाद मेरे दफ्तर पहुंचने तक का इंतजार नहीं कर सकता? मुझसे रास्ते में बात करने की कौन-सी आफत आन पड़ी है?” यह कहकर उन्होंने मोबाइल फोन से महीनों तक दूरी बनाए रखी। तब तक इंटरनेट क्रांति का आगाज हो चुका था, दैनिक अखबार रंगीन हो रहे थे, लेकिन वक्त की नब्ज टटोलने में संभवतः वे चूक गए थे। हालांकि बाद में स्मार्ट फोन के बगैर उनके लिए कोई काम निपटाना सहज न था। परिवर्तन की हवा भांपने में लोग अक्सर चूक जाते हैं। अस्सी के दशक में जब पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने दफ्तरों में कंप्यूटर का प्रयोग बढ़ाने पर बल दिया, तो उसका विरोध हुआ था।
आज हम उस दौर में हैं जब सोशल मीडिया समाज का अभिन्न अंग बन चुका है। बड़ी से बड़ी हस्ती से लेकर आम आदमी तक, अरबों लोग ह्वाट्सऐप के अलावा फेसबुक, ट्वीटर, यू-टयूब, इंस्टाग्राम से जुड़े हैं। ऐसे सोशल मीडिया ऐप लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का सबसे माकूल माध्यम बनकर उभरे हैं। आज वे समाचारपत्र या टेलीविजन जैसे पारंपरिक मीडिया के साधनों का इंतजार नहीं करते। सोशल मीडिया का फलक ऐसे जनतंत्र की तरह उभरा है, जहां किसी भी तरह के अंकुश निष्प्रभावी लगते हैं। यह सामाजिक मीडिया की व्यापक पहुंच का कमाल है कि किसी सुदूर गांव में छिपी गुमनाम प्रतिभाएं रातोरात बेखबर दुनिया से अपना लोहा मनवाकर प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचती हैं। भारत में हो रहे किसान आंदोलन से लेकर म्यांमार में तख्तापलट की खबरें एक क्षण में अटलांटिक महासागर के दोनों ओर पहुंच जाती हैं।
लेकिन, हर अच्छी शै की तरह इसमें भी खामियां हैं। आज सोशल मीडिया से सबसे बड़ा खतरा झूठी, मनगढ़ंत और बेबुनियाद बातों का व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार होना है। अफवाह के कदम सच से हमेशा तेज रहे हैं, लेकिन आज मानो उसमें पंख लग गए हैं। इस कारण घृणा, वैमनस्यता और सांप्रदायिकता फैलने का डर बढ़ता जा रहा है। जिसे कभी दिलों को जोड़ने का माध्यम समझा गया आज वह सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने के औजार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। इसका कारण विचारधारा पर आधारित ध्रुवीकरण का बढ़ना और लोगों की सहनशीलता का दिनोंदिन घटना है। आज सोशल मीडिया पर निष्पक्षता या तटस्थता को अवगुण समझा जाता है। ऐसी परिस्थिति में सोशल मीडिया पर फूंक-फूंक कर कदम रखने की जरूरत है।
यह भी कटु सत्य है कि हमने जिस दिन स्मार्ट फोन को गले लगाया, उसी दिन हमने अपनी निजता को गिरवी पर रख दिया। हम कहां जाते हैं, क्या खाते हैं, किससे मिलते हैं, क्या हम ऋण लेना चाहते हैं, हमारी जिंदगी से जुड़े हर पहलू को जानने के लिए दुनिया भर के ऐप हम पर पैनी नजर रखते हैं। दीवारों के तो सिर्फ कान होते थे, सोशल मीडिया के ऐप की तो अदृश्य आंखें भी होती हैं, जो हमेशा साये की तरह हमारा पीछा करती हैं। निजता हमारा मूलभूत अधिकार भले हो, हमें आज पता भी नहीं चलता है कि उसका किस व्यापक स्तर पर उल्लंघन हो रहा है। सोशल मीडिया के आभासी समंदर में हम आकंठ डूब तो गए, लेकिन हमें पता ही नहीं चल रहा है कि यह आखिर हमारे लिए एलेक्सा है या भस्मासुर?