पहले चरण के मतदान के लिए पर्चा भरने की वेला बीती जा रही थी, लेकिन सत्ता के दावेदार मुख्य गठबंधनों एनडीए और महागठबंधन में शक-शुबहे, साजिश की अटकलों की शारदीय झड़ी लगी हुई थी। एक ओर पार्टी हित लुटा देने के लिए अपने ही किरदारों को कोसा जा रहा था और ‘चिराग नीति’ से कभी छोटा भाई के बड़ा बनने के महाजाल में फंसने के आरोप मुख्य दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे। दूसरी ओर अपने दायरे फैलाने को उद्धत किरदारों की मुंह फुलवल का संकट इतना बड़ा था कि 6 नवंबर को पहले मतदान के लिए पर्चा भरने के आखिरी दिन के कुछ घंटे पहले देर रात को ही फोटो खिंचवाने का मुहुर्त आया। दिखावटी मुजाहिरों के इतर, दोनों तरफ दिलों में फांस बदस्तूर कायम दिखता है, जिसके नजारे ईवीएम मशीनों में भितरघात, दोस्ताना लड़ाइयों और साजिशी योजनाओं के रूप में उतरने की आशंकाएं बढ़ती जा रही हैं। फिर, ‘सर’ वोटर लिस्ट के अक्स भी दिख सकते हैं।

दरअसल 2025 का चुनाव मंडल-कमंडल की पहचान राजनीति के तकरीबन साढ़े तीन दशकों के बाद शायद पहला ऐसा चुनाव होने जा रहा है, जब मुद्दे दिशा बदलने को छटपटाते दिखते हैं और किरदार अपनी जमीन बचाने-फैलाने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं। मुद्दों और किरदारों दोनों की बेचैनी और तुक-तेवर ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ जैसे हैं। यही वजह है कि इस बार तीसरा प्रशांत कोण भी निकल आया है। तो, इस बार एक मायने में सब वजूद की लड़ाई में अकेले खड़े दिखते हैं।
इसकी साफ पृष्ठभूमि तो 2024 के लोकसभा चुनावों ने तैयार की थी, जब मुद्दों के बदलने से नतीजों पर भारी असर दिखा था। लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर कोविड महामारी के बाद जीवन-मरण, रोजी-रोटी के संकट सुरसा के मुंह की तरह विकराल हुए, तो पहचान की राजनीति की सीमाएं खुलने लगीं और रोजगार, खासकर बिहार में पलायन जैसे मुद्दे आईने के आगे खड़े हो गए। बिहार में पिछले 2020 के चुनावों में इसकी तस्वीर दिखी, जब विपक्ष या महागठबंधन की ओर तकरीबन 7-8 प्रतिशत वोट चले गए थे और आखिर में कुछेक सीटों (महज 12) के हेरफेर से सत्तारूढ़ एनडीए की कुर्सी बच पाई थी।

आखिरी वक्त के ऐलानः पटना में महज तीन किमी की अधूरी मेट्रो का उद्घाटन करते नीतीश
यह 2024 के लोकसभा चुनावों में भी कुछ हद तक दिखा, जब एनडीए के खाते में कुल 40 में से 30 सीटें ही आईं, वह भी कई सीटें बेहद छोटे अंतर से। 2020 में तो लगभग एक-चौथाई सीटों का फैसला 5,000 से कम वोटों के अंतर से हुआ था। इसलिए इस बार यह देखना अहम हो सकता है कि उम्मीदवारों का चयन कितनी संजीदगी से किया जाता है और नई वोटर लिस्ट के क्या असर होते हैं? ये दोनों मोर्चे अभी साफ नहीं हैं। एनडीए और महागठबंधन दोनों में फिलहाल यही चलन दिखता है कि कैसे अपना दायरा बढ़ाया जाए या जमीन बचाई जा सके।
एनडीए का जोड़-घटाव
एनडीए में अपने परिजनों को ही टिकट दिलाने की होड़ दिख रही है। उसके छोटे घटकों उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी और जीतनराम मांझी की पार्टी हम का संकट यही है कि उनके पाले में आई 6-6 सीटें परिवार के लिए ही पूरी नहीं पड़ती हैं। दोनों ही नेता असंतोष का इजहार और कुछ दूसरी सीटों पर लड़ने का इरादा जता रहे हैं, जो उनके हिसाब से चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास पासवान) को इफरात में दे दी गई 29 सीटों में जुड़ गई हैं। मांझी ऐसी ही बोधगया और मकदुमपुर सीटों पर अपने लोग खड़ा करने की बात कर चुके हैं। दरअसल, एनडीए में भाजपा छोटा भाई (भले वह 2020 में नीतीश कुमार की जदयू के 43 के मुकाबले 74 सीटें जीत गई हो) के तमगे से पगहा तुड़ाकर इस बार अपने और जदयू को 101 सीटों पर बराबर ले आई है। इससे कथित तौर पर नीतीश की नाराजगी भी अपने सिपहसालारों संजय झा, विजय चौधरी और राजीव रंजन उर्फ लल्लन सिंह को झेलनी पड़ी, जो भाजपा से सीटों के तालमेल और जदयू में टिकट बंटवारे का हिसाब-किताब लिख रहे थे।

असल में जब नीतीश के समता पार्टी के जमाने के कई भरोसेमंद साथियों के टिकट कट गए और वे विरोध तथा धरने पर उतर आए तो जदयू में मनीष वर्मा का खेमा सक्रिय हुआ, जो जदयू के पिछड़ा, अति पिछड़ा आधार के झंडाबरदार माने जाते हैं। इसी मूल आधार और महिलाओं तथा पसमांदा मुसलमानों को मिलाकर नीतीश ने अपना समर्थन तैयार किया है। कहते हैं, उसकी उपेक्षा से नीतीश इस कदर नाराज हुए कि कई सीटों पर अपने ऐसे लोगों को टिकट दे दिया, जिन्हें दूर रखा गया था और कई सीटों पर अपना दावा ठोक दिया, खासकर अपने गृह जिले नालंदा, राजगीर के मामले में। ये भी खबरें उड़ीं कि उनकी लालू प्रसाद से भी बात हुई है। शायद उन्होंने यह भी मांग रख दी है कि उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार फौरन घोषित किया जाए। इसके संकेत 16 तारीख को एक रैली में उनके भाषण में भी मिला। उन्होंने कहा, “अब तक काफी कुछ हुआ है। अगले पांच साल भी मुझे काफी काम करना है।” हालांकि अमित शाह ने पटना में 17 अक्टूबर को कहा कि मुख्यमंत्री तो विधायक ही तय करेंगे। अब शायद जदयू की कोशिश यह है कि उसकी सीटों पर पिछली दफा की तरह चिराग-पेच न फंसे। ये भी अटकले हैं कि खासकर चिराग की पार्टी की सीटों पर तिरछी नजर रह सकती है।

राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे
इन टंटे-टकरावों के बावजूद एनडीए ने लगभग सभी 243 सीटों पर औपचारिक उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। हालांकि सत्तारूढ़ गठजोड़ और खासकर नीतीश को एहसास है कि मुद्दे काफी बदल चुके हैं। इसीलिए ऐसी घोषणाएं की गईं, और ऐसे वादे किए गए, जिससे नीतीश हमेशा परहेज करते रहे हैं और उसके खिलाफ भी बोलते रहे हैं। यह नजारा इससे पहले नहीं ही या शायद ही दिखा है, जो राज्य में आदर्श आचार संहिता लागू होने से पहले बिहार के मुख्यमंत्री ने दिखाया। चुनाव आयोग की बिहार के लिए चुनाव तारीखों की घोषणा से बमुश्किल छह घंटे पहले 6 अक्तूबर की सुबह 10 बजे नीतीश ने 21 लाख महिलाओं के खातों में 10-10 हजार रुपये डाल दिए। उसके पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुख्यमंत्री सहायता की रकम बांट चुके हैं। इस तरह इस महिला रोजगार योजना के लाभार्थियों की कुल संख्या 1.21 करोड़ हो गई। एक घंटे बाद उन्होंने पटना मेट्रो के पहले चरण का उद्घाटन किया और उसमें सवारी भी की। एनडीए ने महिला पेंशन भी बढ़ाई और जीविका दीदीयों का मेहनताना भी दिया और 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त देने का वादा भी किया। एक करोड़ रोजगार देने का भी वादा किया गया है। अब नतीजे ही बता पाएंगे कि क्या नजारा उभरता है।
महागठबंधन की रार और उलझन
लगभग ऐसा ही नजारा सत्ता के प्रबल दावेदार महागठबंधन में भी दिखा, बल्कि उठा-पटक, उलझन और अपना दायरा बढ़ाने की तपिश कुछ ज्यादा ही आंच पैदा कर रही है। इस कदर कि उसके एक छोटे घटक विकासशील इंसान पार्टी वीआइपी के मुकेश सहनी सीटों के लिए ऐसे अड़े कि पहले चरण के पर्चा भरने की आखिरी तारीख के कुछ घंटे पहले देर रात में ही महागठबंधन के नेताओं को हाथ मिलाकर फोटो खिंचवाने की बारी आई। कहते हैं, बात संभाली भाकपा (माले) के नेता दीपांकर भट्टाचार्य ने यह कहकर कि टूटने का असर बुरा होगा। आखिर सहनी फिलहाल 15 सीटों के साथ हैं। इसी गुरेज से सहनी आखिरी वक्त पर 2020 में एनडीए की ओर चले गए थे। सीटों पर गुरेज माले और बाकी दलों में भी है।

राघोपुर में पर्चा भरने के दौरान तेजस्वी के साथ लालू यादव
सबसे ज्यादा उलझन कांग्रेस में है। उसमें मतदाता अधिकार यात्रा और राहुल गांधी की वोट चोरी मुहिम से उत्साह है। हालांकि वह 2020 में 70 में सिर्फ 19 सीटें ही जीत पाई थी। इसके अलावा वह 33 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। इसी हिसाब से राजद उसे 52 सीटें ही देने को तैयार था। अब शायद कुछ ज्यादा सीटें उसके पाले में आई हैं। अभी तक वह 48 पर अपने उम्मीदवार का ऐलान कर पाई है। कांग्रेस की कोशिश कम लेकिन रणनीतिक रूप से चुनिंदा सीटों पर चुनाव लड़ने की दिख रही है। इसलिए सुपौल जैसी कुछ सीटों पर पेच फंसा हुआ है। पार्टी की उम्मीद अति पिछड़ाें और दलितों में पैठ बनाने की है। उसने कई अति पिछड़ा सम्मेलन भी आयोजित किया। फिर, उसके नए प्रदेश अध्यक्ष राजेश कुमार हैं, जो संख्या के लिहाज से महत्वपूर्ण रविदास (एससी) समुदाय से हैं, जिसकी आबादी बिहार के मतदाताओं का लगभग पांचवे हिस्से के बराबर है। कहते हैं, कांग्रेस के कुछ नेता अकेले मैदान में उतरने के भी हिमायती थे।
यह उलझन इस कदर तारी है कि महागठबंधन में अभी भी पूरी तरह सीटों का तालमेल और उम्मीदवारों का ऐलान नहीं हो पाया है। हालांकि उसे उम्मीद है कि नई हवा उसके पक्ष में है। पिछली बार 2020 में राजद अध्यक्ष की गद्दी पर नए-नए बैठाए गए तेजस्वी ने लगभग असंभव को संभव कर दिखाया था। तब उन्होंने दस लाख सरकारी नौकरियों के साहसिक वादे से फिजा बदल दी थी। इस बार भी वे नया वादा ‘हर घर में एक सरकारी नौकरी’ ढूंढ लाए हैं। भाजपा और उनके विरोधी पिछली बार की ही तरह कह रहे हैं कि कहां से इतनी नौकरियां लाएंगे। लेकिन तेजस्वी की दलील है कि 2022 में नीतीश की सरकार में उप-मुख्यमंत्री रहते उन्होंने पांच लाख नौकरियां देने का वादा पूरा किया था, यह वादा भी पूरा गणित जोड़कर किया गया है।

फिर भी, इस बार 35 वर्षीय तेजस्वी को उससे भी आगे की बुलंदी छूनी है और अपनी पार्टी तथा महागठबंधन दोनों को सरकार बनाने तक पहुंचाना है। उनके लिए असली चुनौती राजद के समर्थन आधार को पारंपरिक मुस्लिम-यादव वोट बैंक से आगे ले जाने की है, जो उन्हें 30 फीसदी वोटों की बढ़त तो दे देता है, लेकिन विधानसभा में साधारण बहुमत के लिए पर्याप्त सीटें नहीं दिला पाता। इसलिए, वे न सिर्फ दलित और महादलितों की ओर पेंग बढ़ा रहे हैं, बल्कि नीतीश के ईबीसी (अति पिछड़ा) वोटों में भी सेंध लगाने की कोशश कर रहे हैं। पिछले महीने कांग्रेस की अगुआई में महागठबंधन ने अति पिछड़ा न्याय संकल्प की घोषणा की, जिसमें ईबीसी अत्याचार निवारण कानून, स्थानीय निकायों में ईबीसी आरक्षण को 20 फीसद से बढ़ाकर 30 फीसद करने और भूमिहीन ईबीसी, एससी, एसटी और ओबीसी परिवारों को आवासीय भूमि देने का वादा है। महागठबंधन बेरोजगारी और पलायन के मुद्दे पर युवाओं के मोहभंग का फायदा उठाने और महिलाओं को 2,500 रुपये देने के वादे के जरिए लुभाने की भी कोशिश कर रहा है। तेजस्वी कहते हैं, “उनकी सरकार नौकरी, दवाई, पढ़ाई, कार्रवाई की होगी।”

महागठबंधन के वामपंथी सहयोगियों में भाकपा और माकपा प्रतिबद्ध काडर वोट जोड़ते हैं और भाकपा (माले) दक्षिण और मध्य बिहार में अपने मजबूत के साथ लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रही है। लेकिन इन सभी का दायरा सीमित है। ऐसे में तेजस्वी और राहुल गांधा पर विपक्षी एकता की उम्मीदों और बोझ दोनों को उठाने की जिम्मेदारी है।
सत्ता विरोधी लहर पर फोकस
महागठबंधन का अभियान सत्ता विरोधी लहर और नीतीश के लंबे कार्यकाल से उपजी निराशा के इर्द-गिर्द घूम रहा है। तेजस्वी ‘नई सोच’ का चेहरा हैं, जबकि राजद में जातिगत संतुलन भी बैठाया गया हुआ है और गैर-यादव महत्वपूर्ण पदों पर लाए गए हैं। इस बार अति पिछड़ाें और दलितों को ज्यादा उम्मीदवार बनाने और यादवों को अपेक्षाकृत कम सीटें देकर माहौल बदलने की भी कोशिश के संकेत है। विपक्ष के नैरेटिव में “न्याय और सम्मान” की भावनात्मक अपील को रोजगार की गारंटी, आरक्षण का विस्तार, महिलाओं के लिए आर्थिक मदद और आवास सब्सिडी जैसे वादों के साथ जोड़ा गया है।
परदे के पीछे तेजस्वी की टीम ने सोशल मीडिया की सक्रियता और डेटा एनालिटिक्स का इस्तेमाल कर राजद की प्रचार मशीनरी को पेशेवर बना दिया है। फिर भी, यह तय नहीं है कि क्या ये कदम राजद के प्रति अतीत की गहरी धारणाएं तोड़ पाएंगे।

कुशवाहा नाराज थे, मगर आगे कुछ देने के वादे से मना लिए गए, फिर भी एनडीए में कई पेच उभर आए हैं, जिनका असर दिख सकता है
महागठबंधन के बड़े मुद्दे बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और भ्रष्टाचार है। विपक्ष भाजपा के दबदबे को केंद्रीकरण के रूप में भी पेश करता है। उसकी दलील है कि ‘डबल इंजन’ की आड़ में बिहार की अपनी स्वायत्त स्थिति खत्म की जा रही है। जहां तक ‘जंगल राज’ के आरोपों की बात है, तो तेजस्वी ने ऐलान किया है, ‘‘तेजस्वी की परछाई भी अगर गलत काम करे, तो उसकी भी जांच होगी।’’ उन्होंने चुनाव घोषणा के बाद कहा, ‘‘14 नवंबर को मतगणना के दिन हम बिहार के पतन के अंत की शुरुआत देखेंगे। बिहार के लोगों का कर्तव्य है कि वे जाति-धर्म, मंदिर-मस्जिद और अन्य तुच्छ मुद्दों को एक तरफ रखकर राज्य से रोजगार के लिए पलायन रोकने और अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिए मतदान करें।’’ राजद के लिए सिरदर्द परिवार में कलह भी हो सकती है। लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप अलग पार्टी बनाकर कई उम्मीदवार खड़े कर रहे हैं।
तीसरा प्रशांत कोण
इस बार राजनैतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर या पीके तीसरा कोण बना रहे हैं, जो कभी दूसरों 2014 में मोदी, 2015 में नीतीश-लालू, 2021 में ममता बनर्जी की जीत में मदद कर चुके हैं। उनकी जन सुराज पार्टी बमुश्किल साल भर पुरानी है, लेकिन जोश जबरदस्त है। हालांकि प्रशांत के राघोपुर से तेजस्वी के खिलाफ खड़े होने के ऐलान के बाद उससे पीछे हट जाने से कई सवाल उठे हैं। वैसे, पीके का अभियान साहसिक है और राजनैतिक नजरिए से सही-गलत की ज्यादा परवाह नहीं करते हैं। उन्होंने जाति के बदले योग्यता, अंधविश्वास के बदले आंकड़ों पर जोर देने का वादा किया है। शराबबंदी हटाना, हर प्रखंड में नेतरहाट शैली का सुपरअचीवर स्कूल बनाना और गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में जाने में सक्षम बनाना, रोजगार के लिए पलायन को रोकने के लिए ठोस कदम उठाना...जैसे वादों का पीके अपनी हर रैली में जिक्र करते हैं, और सरकार तथा बिहार की छवि को नया बनाने का वादा करते हैं। उनकी चुनावी रणनीति में आनुपातिक सामाजिक प्रतिनिधित्व और हर सीट पर आबादी के अनुरूप उम्मीदवारों का चयन भी शामिल है।

नया किरदारः प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी की भूमिका भी अहम
जन सुराज पार्टी का लक्ष्य उन 25 फीसद मतदाताओं में पैठ बनाना है, जिनके वोट किसी को नहीं मिले हैं। मसलन, जिन मतदाताओं ने 2020 में या तो वोट नहीं दिया था या दोनों प्रमुख गठबंधनों में किसी के पक्ष में नहीं थे। अगर ऐसे मतदाताओं में एक-चौथाई भी जन सुराज को वोट देने को राजी हो जाते हैं, तो उन सीटों के नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं, जहां मुकाबला बहुकोणीय हो। इसके साथ ही पीके भाजपा के कुछ अगड़ी जातियों के वोटों को भी अपनी ओर खींचने की उम्मीद कर रहे हैं। पीके का दूसरा दांव कई मौजूदा मंत्रियों सहित एनडीए के कई नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना है, जिससे बिहार में अपेक्षाकृत साफ-सुथरी सरकार चलाने के एनडीए के दावे को दागदार करना है। उन्होंने महागठबंधन को भी नहीं बख्शा है, योग्यता पर जोर न देने की निंदा की है और तेजस्वी को वंशवाद का प्रतीक बताया है। इसका असर यह है कि पीके के प्रति खासकर शहरी युवाओं में आकर्षण है। लेकिन देखना यह होगा कि कितना फर्क डाल पाते हैं।
दांव पर बड़ी सियासत
जदयू के दिग्गज नीतीश के लिए यह चुनाव उनके दो दशकों के नेतृत्व पर जनमत संग्रह जैसा भी होगा। और राजद के उत्तराधिकारी तेजस्वी के लिए यह लड़ाई उनके नेतृत्व पर मुहर जैसी होगी। राज्य में विधानसभा चुनाव लंबे समय से राजद-कांग्रेस-वामपंथी धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के बीच चिर-परिचित दोतरफा मुकाबला होते रहे हैं, जहां जदयू कभी इधर, कभी उधर और छोटे सहयोगी दोनों गठबंधनों में आते-जाते रहे हैं। लेकिन 2025 का चुनाव तितरफा मुकाबले की संभावना को जन्म दे रहा है। तीसरा कोण प्रशांत किशोर बना रहे हैं, जिनकी जन सुराज पार्टी बिहार के चुनावी व्याकरण को नए सिरे से लिखने की कोशिश में है।

हम पार्टी के जीतनराम मांझी
इस बार दांव दूसरी वजहों से भी ऊंचे हैं। 2024 के लोकसभा चुनावों से पैदा हुए राजनैतिक माहौल में महाराष्ट्र के बाद बिहार अगली निर्णायक लड़ाई है। लोकसभा चुनावों में भाजपा को अपने दम पर साधारण बहुमत भी हासिल नहीं हो पाया था और उसे नीतीश की जदयू और आंध्र प्रदेश के चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों की बैसाखी का सहारा लेना पड़ा था। इसलिए बिहार चुनाव में ठीकठाक जीत भाजपा के लिए अगले साल पश्चिम बंगाल में अगली बड़ी लड़ाई का भी मंच तैयार करेगी। पार्टी की मंशा है कि बिहार पूरब का प्रवेश द्वार होने के साथ-साथ उसकी राष्ट्रीय रणनीति का आधार भी बने, खासकर जब आम चुनाव में सबसे अधिक सीटों वाले उत्तर प्रदेश में पार्टी को चुनावी नुकसान हुआ है।
बेचैन मुद्दे
राजनैतिक पार्टियों के तमाम राजनैतिक गुणा-भाग और जोड़-तोड़ अलग हैं, लेकिन बिहार की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के मुद्दे कुछ और ही तस्वीर पेश कर रहे हैं। यकीनन ये मुद्दे नई राजनैतिक दिशा और नीतियों की मांग कर रहे हैं, जो उसे संगीन हालात से निकाल सके। बिहार सबसे पिछड़े राज्यों की कतार में खड़ा है। उसकी प्रति व्यक्ति आमदनी 2024 में 66,828 रुपये सालाना है, जो देश की प्रति व्यक्ति आय 2,05,324 रुपये से कई गुना कम है। फिर, राज्य में 2023 के जाति सर्वेक्षण में पता चला था कि 43 प्रतिशत परिवारों की आमदनी महीने में 5,000 रुपये से भी कम है। फिर रोजगार की स्थिति भी संगीन है। खासकर 15-29 साल के युवाओं में बेरोजगारी दर 9 प्रतिशत से अधिक है। ये युवा ही बदलाव के आकांक्षी और वाहक है। एक मोटे अनमान से ऐसे युवा हर विधानसभा क्षेत्र में 50,000 से ज्यादा हैं। यानी उनका रुख भी नतीजों को प्रभावित करेगा।

जदयू विधायक का धरना
रुझान और नतीजे तय करने में चुनाव आयोग की गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया से तैयार वोटर लिस्ट में छांटे गए पहले 65 लाख और फिर 3.66 लाख वोटरों का भी असर हो सकता है। इसके साथ ही करीब 22 लाख जुड़े नए वोटर भी फर्क डाल सकते हैं। आयोग ने अंतिम सूची के बाद इन वोटरों की फेहरिस्त जारी नहीं की है और सुप्रीम कोर्ट से 20 नवंबर को नामंकन प्रक्रिया खत्म होने के बाद जारी करने का वादा किया है। बहरहाल, बिहार में चुनावी जंग काफी रोमांचक होने की संभावना है। इसलिए हर अटकल, हर वादा और हर रुपया फर्क ला सकता है। फिलहाल पलड़ा किसी ओर झुक सकता है।