लोकतंत्र और संविधान का अभिन्न रिश्ता है। हर देश में संविधान के निर्माण और उसे अपनाने के कई कारण होते हैं। मगर दो कारण प्रमुख हैं। पहला कारण तो वह है, जिसका परिणाम दुनिया में हिंदुस्तान का अहम योगदान है। हमारी विविधता ज्यादा है और हम पराधीन थे, तो इन दोनों का हल निकालने के लिए एक ऐसे दस्तावेज की दरकार थी जो सबको समेटे, जनतंत्र, प्रजातंत्र की स्थापना करे, हम किसी के अधीन न हों, हम किसी राजा-महाराजा के तहत न रहें। ब्रिटिश साम्राज्य था तो कितने सारे राजा-महाराजा थे। हमें वह भी नहीं चाहिए था। हम न ब्रिटेन के अधीन रहना चाहते थे, न राजा-रजवाड़ों के। हमें ऐसा डाक्यूमेंट (दस्तावेज) चाहिए था जिसमें यह साफ तरीके से लिखा हो। यह एक नई बात थी। दूसरी बात यह थी कि हम एक विजन डाक्यूमेंट (दृष्टि-पत्र) चाहते थे। हमारी तरह-तरह की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्याएं थीं। उन सब समस्याओं की वजह से हम लोग हर मायने में पिछड़े हुए थे। इसलिए हमें एक ऐसा विजन डाक्यूमेंट चाहिए था जो हम सबको बांध सके, मगर हमें एकरूप न बनाए, यूनिफॉर्मिटी न हो, बल्कि ऐसा सुंदर ब्लूप्रिंट तैयार करे कि हम किस दिशा में अपने समाज को ले जाना चाहते हैं। हम अपनी सभी समस्याओं से छुटकारा पाना चाहते थे और अपने को नया विजन देना चाहते थे। तो, सबसे पहले मैं यही कहूंगा कि संविधान बेहद जरूरी था, न सिर्फ व्यक्ति के तौर पर, बल्कि सामुदायिक तौर पर, समूचे राजनैतिक समुदाय के तौर पर स्वतंत्र होने के लिए। इसके लिए स्वाधीनता, स्वतंत्रता और स्वराज बेहद महत्वपूर्ण था। वह स्वराज हम कैसा बनाएंगे, उसकी अवधारणा उस वक्त जो भी थी, उसे हमने प्रकट किया इस दस्तावेज में।
पूरे दस्तावेज में तो यह सब है ही, लेकिन उसकी प्रस्तावना अपने आप में एक बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज है, जिसके बारे में आजकल फिर चर्चा हो रही है कि स्कूलों के पाठ्य-पुस्तकों से उसे हटा दिया गया है। उसमें जो सारे बुनियादी, मौलिक सिद्धांत हैं, वह शुरू में ही लिख दिए गए हैं कि यही हमारी गाइडलाइन (दिशा-निर्देश) है। तो, संविधान का एक राजनैतिक, सामाजिक संदर्भ था और है।
फिर, हम देखते हैं कि कई देशों में संविधान बनने और उसे अपनाने के पहले ही कई तरह के सामाजिक बदलाव हो चुके थे। हमारे यहां सामाजिक बदलाव अधूरा था। उसकी शुरुआत भर हुई थी। हमें वह पूरा करना था। दूसरी बात यह थी कि पहले राजा-महराजा जो थे उनकी मनमानी चलती थी, उनके मन में जो आया वही कानून बन जाता था। तो, हमने संविधान तैयार किया और लिखा कि इन मामलों में किसी की मनमानी नहीं चलेगी। संविधान हमें बताता है कि ये हमारे अधिकार हैं, जिन्हें कोई छीन नहीं सकता, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली महाराज या सत्ता-प्रमुख हो। जैसे, जीवन या जीने का अधिकार है। हमने अपने आपको (संविधान के जरिये) जीने का अधिकार (राइट टु लाइफ) दिया है। ऐसा हो सकता है कि किन्हीं आपात स्थितियों में जीने के अधिकार को मुल्तवी करना पड़े, मगर स्थापित न्यायोचित कानूनी-प्रक्रिया और उसकी निगरानी करने वाली न्यायिक-प्रणाली के तहत ही किया जा सकता है, किसी तरह की मनमानी से नहीं। तो, जीने का अधिकार, अभिव्यक्ति या बोली का अधिकार, सभा-संगत का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के अधिकार, बाद में शिक्षा का अधिकार भी आया, वगैरह। यह सब हमने संविधान में बुनियादी, मौलिक बना दिए। चाहे कोई भी सत्ता में आए, इन अधिकारों को मनमानी तरीके से नहीं छीन सकता। उस पर सार्वजनिक तौर पर और संसद में बहस करनी होगी, उससे कुछ समाधान नहीं निकला तो वह न्यायपालिका के पास जाएगा। ये सब बातें संविधान में हैं।
सबसे बुनियादी बात यह है कि कोई भी राजा-महाराजा या सत्ता में बैठा शासक इन अधिकारों को नहीं छीन सकता है, यह लिखित में होना चाहिए और हमारा संविधान यह काम करता है। संविधान का दूसरा काम यह है कि लोकतंत्र में चुनाव होते हैं और जिसकी ज्यादा संख्या होती है, वह पांच साल के लिए राज करता है। यह राजनैतिक बहुमत है और यही पांच साल के लिए सारे फैसले करता है, अपनी नीतियां तय करता है, अपने कानून बनाता है। तो, इसमें ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह हमारे बुनियादी अधिकार, चाहे व्यक्ति के हों या समुदायों के, को छीन सके। यानी यहां यह स्थापित किया गया कि किसी राजा ही नहीं, हमारी निर्वाचित सत्ता की भी मनमानी न चले। कई मायनों में हमारे अधिकारों को हमारे निर्वाचित शासक भी हमसे नहीं छीन सकते। यह दूसरी महत्वपूर्ण बात है जो हमारे संविधान के अंदर है।
फिर, हमारा संवैधानिक लोकतंत्र है। अगर ऐसे कानून बन जाएं, जो किसी व्यक्ति या छोटे-छोटे समुदायों-समाजों के लिए नुकसानदेह हों, उनका हक छीन रहे हों, तो वे अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं। ऐसे किसी भी कानून या नीति को वे चुनौती दे सकते हैं जो उनके लोकाचार, तौर-तरीकों, सामाजिक चलन को चोट पहुंचाते हों।
तीसरी बात इतनी साफ-साफ (एक्सप्लिसिट) या सुस्पष्ट नहीं है, लेकिन संविधान की मूल भावना में निहित है। मसलन, हम कोई ऐसा काम कर बैठते हैं जो बाद में नुकसानदेह साबित हो सकता है, तो संविधान उसका भी निषेध करता है। एक मायने में हमने अपने ऊपर बंधन जड़ लिया है। मतलब यह कि हम कोई ऐसा फैसला न कर बैठें जो पांच-दस साल बाद जब हम होश में आएं तो आभास हो कि यह नुकसानदेह है। उसके लिए पहले से ही रोकथाम की व्यवस्था बना ली जाए। यह संविधान में है। यह किसी संवैधानिक लोकतंत्र में ही संभव है। एक आम उदाहरण से इसे समझिए। जैसे, कोई बहुत धूम्रपान करता है और उसे डॉक्टर ने कहा है कि ऐसा करना जानलेवा है और वह ज्यादा दिन जी नहीं पाएगा, लेकिन उसे चस्का लगा हुआ है। तो वह अपने बीवी-बच्चों से, खास दोस्तों से बोल दे कि मुझे तो लत लग गई है लेकिन मुझे पीते देखो या मैं सिगरेट मांगूं, कितना भी मांगूं, चीखूं- चिल्लाऊं, मुझे मत देना, मुझे रोक देना क्योंकि मैं होशो-हवास में नहीं हूं। तो इस तरह उसने अपने आपको बांध लिया है। मैं यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूं कि संविधान में यह व्यवस्था है। सारे लोग मिलकर कुछ ऐसी बात करें जो आत्मघाती होगी, तो हमें उस पर रोक लगानी है। ये सब चीजें संविधान के अंदर उपलब्ध हैं। यह बेहद जरूरी है।
इसीलिए हम एक संवैधानिक लोकतंत्र हैं। लोकतंत्र में चुनाव के मद्देनजर कई ऐसी चीजें होती हैं जो हम कर बैठते हैं। जैसे, एक माहौल बन गया, एक मास हिस्टीरिया हो गया कि हमको किसी से लड़ाई कर लेनी चाहिए। लोगों ने ऐसा कोई नेता चुन लिया जो लड़ाई के लिए तैयार है और उसने धावा बोल दिया। लेकिन ऐसे बहुत-से समझदार लोग हैं जो हमें बताते हैं कि लड़ाई से कोई समाधान नहीं निकलता, बल्कि सब जगह नुकसान होगा और सबसे ज्यादा नुकसान आम लोगों का ही होगा। लोग अपनी जान दे देंगे और जो हासिल करना चाहते हैं, वह नहीं हो पाएगा। अगर संविधान पर सही तरीके से अमल हो और हम उसे अपनाएं तो हमारी ऐसी फितरतों पर रोक लगेगी। यह संविधान की प्रस्तावना में है।
ये सब संविधान के महत्व हैं, ये सब उसके मौलिक मूल्य, सिद्धांत हैं। हमने जो संविधान 1950 में अपनाया, उसमें यह सब मौजूद हैं। अब इसके पीछे ऐतिहासिक सोच क्या थी? सबसे पहले तो मैं यह कहूंगा कि एक ऐसा विचार था कि सबसे ऊपर एक ऐसा कानून, ऐसा विधि-विधान है जो सभी को जोड़ता है, आप चाहें तो उसे धर्म कह लीजिए। ऐसा नहीं है कि समाज जाति-समुदाय के आधार पर बंटा है तो सब अपने-अपने नियम-कायदे लाएंगे। हर धर्म की अपनी किताब है। किसी में एक तरह की बात लिखी है, किसी में कुछ और। कुरान में कुछ लिखा है, धर्मशास्त्र में कुछ लिखा है, गीता कुछ और कह रही है, बाइबिल कुछ और कह रही है। तो, सबके पास एक ऐसा विधि-विधान है जिसे हम कहते हैं कि सबसे ऊपर है। लेकिन इससे बात नहीं बनेगी कि सबके अपने-अपने उच्च विधि-विधान हों। एक ऐसा उच्च विधि-विधान चाहिए जिसे हम सब मानते हों, हम सबने उसको अपना लिया हो। यह विचार हमारी सबकी परंपराओं में है कि हमसे ऊपर भी कुछ है। उसे भगवान, खुदा, गॉड कुछ भी कह लें। लोग कहते हैं कि हम गलत करेंगे तो अगले जन्म में हमको नीचे का दर्जा मिलेगा या जानवर बन जाएंगे, या कुछ भी। मैं यह उदाहरण दे रहा हूं। मतलब यह विचार काफी पुराना है कि हम सबसे ऊपर कुछ है। यह संविधान उसी विचार का एक नया स्वरूप है।
हम सबके ऊपर एक नियम-कानून, विधि-विधान होना चाहिए जो हम सबको बांधता हो। यह मानवता का काफी पुराना विचार है। बार-बार लोगों ने इसे उलट भी दिया है। कुछ राजा-महाराजा और साम्राज्यवादियों ने इसकी अवहेलना करके अपना ही कानून थोपने की कोशिश की। लेकिन हमारे संविधान ने एक ऐसे विविध-विधान की स्थापना की जो सबसे ऊपर है, जिसे हम सब मानते हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि पहली बार हमने अपने आप ही अपने लिए एक ऐसा उच्च विधि-विधान बनाया। उसे हमने संविधान में दर्ज किया जो सबके लिए लागू होता है। दूसरे, जो हमारे मूल्य-विधान हैं, जैसे स्वतंत्रता, समता, भाईचारा, न्याय ये सब आज के जमाने के हिसाब से हैं। हर जमाने में न्याय का अलग मतलब होता है। मैं एक उदाहरण देता हूं जिसके बारे में ज्यादा पता है, जो पुराने समय में था। हमारे यहां न्याय हमेशा वर्ण-व्यवस्था के अनुसार होता था। वह न्याय इक्वलिटी (समता) नहीं देता था। वर्ण-व्यवस्था के अंदर ऊंच-नीच थी, सबका दर्जा अलग-अलग था। कायदा यह था कि सब अपनी-अपनी भूमिका में फिट हों। ऊपर वाला ऊपर का काम करे, नीचे वाला नीचे का काम करे। नीचे वाले का काम ऊपर वाले की सेवा करना है और ऊपर वाले का धर्म है उससे काम लेना। उसमें समता नहीं है, उसमें न्याय है, मगर न्याय की परिभाषा एक ऊंच-नीच क्रम व्यवस्था के मुताबिक है। इसलिए न्याय हर किसी को एक समान देखे, हर किसी का सम्मान करे, यह न्याय के संदर्भ में नई बात है। यह पहले नहीं था।
तो, हमारे संविधान ने न्याय का आइडिया (विचार) ही बदल दिया। उसे हमने समानता से जोड़ दिया। यह नया था। अगर हम अपने इतिहास और परंपराओं में झांकें तो हर समय में ऐसे छोटे-छोटे आंदोलन हुए हैं जिसमें हर व्यक्ति को एक ही दर्जा दिलाने की बात है। इसका एक बड़ा उदाहरण तो भक्ति आंदोलन ही है। भक्ति काल में कई ऐसे संत हैं जिन्होंने ऐसी बात की। धर्मशास्त्र के पहले के दौर को देखें तो तब भी ऊंच-नीच की व्यवस्था थी, लेकिन इतनी ज्यादा भयंकर रूप में नहीं थी, जैसे धर्मशास्त्र में लिखी हुई है। बाद में, जैसा कि 19वीं सदी में हम देख पा रहे थे, जाति की हाइरार्की (ऊंच-नीच क्रम व्यवस्था) काफी मजबूत हुई। तो, संविधान ऐसा दस्तावेज है जिसमें सामाजिक न्याय और समानता को एक ही पलड़े पर रखा गया। उसमें यह मूल्य रखा गया कि भाईचारा पैदा हो, जिसमें गैर-बराबरी न हो और सब एक समान हों।
पुरानी परंपरा में यह बहुत ही दुर्लभ था कि महिलाओं को भी समान दर्जा मिले। आधुनिक काल में, पिछले डेढ़-दो सौ साल में महिलाओं को जो हक मिला है, उन्हें जो समान दर्जा मिला है, उसका उदाहरण पुराने दौर में शायद ही मिले। यह तो मिलता है कि लोगों ने जाति भेदभाव के खिलाफ काफी आवाज उठाई, धर्म संबंधी गैर-बराबरी के खिलाफ भी काफी आवाज उठाई गई है, लेकिन जेंडर इक्वलिटी (स्त्री-पुरुष भेदभाव) के मामले में इतनी संवेदनशीलता नहीं थी। पिछले सतहत्तर साल में, तो हमने इसे मिटाने के लिए काफी कुछ किया है और अभी काफी कुछ करना पड़ेगा। लेकिन यह सब संविधान में है। इसके लिए परंपराओं वगैरह को भी बदलना पड़ेगा। जैसे, आज ग्लोबलाइजेशन में कई बुराइयां हैं, तो कुछ अच्छाइयां भी हैं। यह कोई नई चीज नहीं है। ग्लोबलाइजेशन पहले भी था। उसके साथ कुछ बुराइयां आईं, तो अच्छाइयां भी आईं। सिद्धांत रूप में हम दुनिया के दूसरे लोगों से काफी कुछ सीख रहे हैं, वे भी हमसे सीख रहे हैं। उनसे भी हमें काफी कुछ मिला। अपने संविधान की नींव की तरफ हम देखें तो हमें पता चलेगा कि उसकी जड़ें क्या हैं, उसके स्रोत क्या हैं।
अब सवाल है कि हम संविधान के सिद्धांतों, मूल्यों को कितना अपना पाए या उस दिशा में कितना आगे बढ़ पाए। दरअसल, जहां तक मूल्यों, सिद्धांत का मामला है, सभी लोग कागज पर उसे स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन व्यवहार की बात आती है तो लड़ाई शुरू हो जाती है। जिसके पास भी विशेषाधिकार होता है, उसे हर बदलाव से नुकसान होता है। जिसके पास विशेषाधिकार नहीं है, शक्ति और सत्ता नहीं है, उसे नए सिरे से शक्ति के बंटवारे से फायदा होता है। उन सबको लाभ मिलता है, जो समाज के निचले पायदान पर हैं, जो हक से वंचित हैं, या समाज के बाहर हैं। यह मानव स्वभाव है कि किसी को बढ़-चढ़कर कुछ हासिल हो जाए तो वह उसे असानी से छोड़ना नहीं चाहता। बेशक, हमने अपने आप को एक अच्छा दस्तावेज दिया लेकिन उस पर चलना आसान नहीं है। ऐसा नहीं है कि समाज एकदम न्यायिक और नैतिक रास्ते पर चल पड़े। शुरू से ही इसे लोगों ने व्यवहार में उतारने की मुखालफत की।
संविधान जबसे अस्तित्व में आया, तभी से लोगों ने इस पर हमला बोलना शुरू कर दिया। तो, यह कोई नई बात नहीं है। पहले हमला अखिल भारतीय स्तर का नहीं था। पूरे संविधान पर हमला नहीं था, लेकिन व्यवहार में उस पर तरह-तरह झगड़े, लड़ाइयां, बहसबाजियां हो रही थीं। अब हम क्या देख रहे हैं कि सीधे इस संविधान पर ही, उसके आइडिया पर ही जोर-शोर से हमला शुरू हो रहा है। कहा जा रहा है कि हम लोग बदलाव चाहते ही नहीं, हम वैसे ही रहेंगे, जैसे सदियों से रहते आए हैं। हिंदू कोड बिल के जरिये महिलाओं को कुछ बुनियादी अधिकार मिले थे जो पहले उनके पास नहीं थे। 1955-56 में वह कदम बहुत महत्वपूर्ण था। उस पर भी बहुत टकराव हुआ। बहुत मुश्किल से पारित हो पाया था। हिंदू महासभा ने बहुत विरोध किया था, कांग्रेस में ऐसे कंजरवेटिव तत्व थे। सबसे मुश्किल यही है कि मनमानी की मानसिकता से छुटकारा आसानी से नहीं मिलता। यह सबसे बुरी बीमारी है। हमारी जाति-व्यवस्था का चक्कर तो है ही।
ये दो चीजें (स्त्री और जाति भेदभाव) तो पुरानी हैं ही, पिछले डेढ़-दो सौ साल में धर्म के ऊपर लड़ाई पैदा हो गई। ऐसा पहले नहीं था। हमारी तीन बुराइयों में से एक बुराई के बारे में तो हम ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे। वह बुराई यह थी कि कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं थी। उस बारे में कभी सोचा ही नहीं गया था। लोगों के दिमाग में वह आया ही नहीं था। सब लोग राजा-महाराजा को ही मानते थे, बाकी लोग प्रजा थे। कोई भी राजा हो, उसका व्यवहार प्रजा के साथ मनमाना ही हुआ करता था। अच्छा लगा तो अच्छा कर दिया, बुरा लगा तो बुरा कर दिया। थोड़े ही ऐसे राजा हुए हैं जो किसी भी मायने में सोचते रहे हों कि वे भी उसी नियम से बंधे हुए हैं जो प्रजा पर लागू होता है। ऐसे उदाहरण बेहद गिने-चुने हैं। अशोक ने तेइस सौ साल पहले यह अवधारणा पैदा की थी। पहले तो वे भी क्रूर और मनमानी करने वाले ही थे, लेकिन बाद में उनको समझ आई कि इस तरह जनहित नहीं हो सकता, किसी का उद्धार नहीं हो सकता और राजा को भी कुछ नियमों का पालन करना चाहिए। उन्हें समझ आया कि राजा को ऐसे नियम बनाने चाहिए जो प्रजा के फायदे के लिए हों और कुछ नियम राजा को भी मानना चाहिए। ऐसी जरूर कोई न कोई परंपरा रही होगी जिसके बारे में मैं ज्यादा नहीं जानता, जिससे अशोक प्रभावित हुए। जैसे हम समानता की बात करते हैं तो अकबर बादशाह को याद करते हैं। उससे पहले गैर-मुसलमानों पर जजिया कर लगाया जाता था, अकबर ने वह हटवा दिया। मतलब यह हुआ कि वे उन्हें दंडित नहीं करना चाहते थे जो मुसलमान नहीं हैं। वे भेदभाव नहीं करना चाहते थे। वे सभी धर्मों को एक समान देखना चाहते थे। यह तो स्थापित तथ्य है कि उन्होंने एक गैर-बराबरी की प्रथा पर रोक लगा दी। सभी धार्मिक समुदायों को एक ही नजरिये से देखना, सबको अपने तौर-तरीकों से चलने की इजाजत देना, यानी धार्मिक स्वतंत्रता कायम करने का कदम उठाया था।
ऐसे कुछेक राजा हुए हैं, लेकिन मनमानी चलाने की बीमारी बहुत पुरानी है। इसको रोकने के लिए कुछ-कुछ कदम उठे थे, लेकिन लोकतंत्र ने इस पर रोक लगा दी, हालांकि पूरी तरह से रोक अभी भी नहीं लग पाई। आजकल के लोकतंत्रों में पूरी दुनिया में नए-नए तरीके से मनमानी करने वाले लोग पैदा हो रहे हैं, लेकिन काफी हद तक रोक लगी है। हमारे यहां दो समस्याएं और हुईं। महिलाओं के मामले में हमारे देश में और दुनिया भर में युगों से अन्याय होता रहा है। हमारे यहां जाति का चक्कर अलग है कि कुछ ऊंचे हैं, कुछ नीचे और कुछ अछूत हैं। ये सब तो 1947 में आजादी के वक्त मौजूद था। इसके साथ, एक नई समस्या यह भी थी कि जो हमारे धर्म से जुड़ा नहीं, उसे सारे अधिकार नहीं मिलने चाहिए। यह पूरे दक्षिण एशिया में था। ये सभी समस्याएं 1947 में थीं।
1950 में हमने संविधान लागू किया, तब भी ये समस्याएं थीं। आज भी हैं। तो, हमें इसका आभास होना चाहिए कि कब ये समस्याएं बड़ी हो जाएंगी। हमें तय मानकर नहीं चलना चाहिए कि बस अब हो गया। यह भी मानव स्वभाव है कि अच्छा चल रहा हो, तो भूल जाओ, लेकिन जब बुरा वक्त आता है तो खयाल आता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को देखें या संसद की बहसों को देखें तो ये समस्याएं हमेशा मौजूद रही हैं। ऐसे तत्व हमेशा समाज में हैं, जो इस तरह की चीजों को छोड़ना नहीं चाहते। हम लोग तर्क के जरिये उन्हें समझाने की कोशिश कर सकते हैं कि समता पर आधारित समाज में यह नहीं होना चाहिए, लेकिन अगर ऐसे तत्व हिंसा, उपद्रव पर उतारू हो जाएं, तो राज्य-व्यवस्था को उनसे निपटना चाहिए। लेकिन राज्य-व्यवस्था भी नहीं रोक पाती है। याद करें, दहेज-उत्पीड़न, दहेज-हत्याओं के कितने मामले हुए। आज भी होते होंगे। महिलाओं को उनका हक नहीं मिलता। दलितों के साथ अत्याचार चलता रहता है। धर्म पर टकराव चलता रहता है।
तो, संविधान इन सबकी रोकथाम की जिम्मेदारी हम पर डालता है। कानून भी हमारे साथ है, लेकिन आप संविधान को परे कर दें तो कानून के रखवाले, चाहे अदालतें हों या पुलिस, या सरकार की अफसरशाही, या हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि, वे अगर नजरअंदाज करते रहे तो हम लोग कुछ भी नहीं कर सकते। इन सबको अपना-अपना काम करना चाहिए। बहुत सारे सोशल एक्टिविस्ट हैं जो सक्रिय रहते हैं, लेकिन आपने उन्हें काम करने से रोक दिया तो वे भी कुछ नहीं कर पाते। सोशल एक्टिविस्टों पर कितनी पाबंदी लगा दी गई है। कितने ही ऐसे लोग हैं जो आदिवासियों, महिलाओं, वातावरण को ठीक रखने के लिए लड़ रहे हैं। पूंजीपतियों के अन्याय के खिलाफ लड़ रहे हैं। कारोबार तो ठीक है पर महज मुनाफे के लिए कुछ भी गलत-सलत किया जाता है, लेकिन इन एक्टीविस्टों पर पाबंदी लगा देंगे, उनके संसाधन छीन लेंगे, उन्हें बोलने की आजादी नहीं देंगे, तो फिर संविधान क्या मायने रखेगा। संविधान ये सब हक उनको देता है।
यह लड़ाई चलती रहेगी। धीरे-धीरे सुधार होगा। कई कानूनों से अच्छे सुधार भी हुए हैं। यह संविधान का वादा है कि हर व्यक्ति को जीने का हक है और उसे उतना ही सम्मान मिलना चाहिए, जितना दूसरों को है। इसमें लिंग, जाति, वर्ग, धर्म, पहचान का कोई भेदभाव नहीं होगा। यह संविधान में तो है, लेकिन इसे लागू करना उतना आसान नहीं है। यह आंबेडकर, नेहरू, सरदार पटेल सभी जानते थे। हजारों साल की परंपराएं हैं, सोच है। एक चीज होती है बैकलैश। थोड़ा-सा भी अच्छाई की तरफ जाते हैं तो बुराई का बैकलैश होता है।
इसमें पूंजी भी बड़ी भूमिका निभाती है। आजकल का पूंजीवाद तो पूरे विश्व में भयानक रूप ले चुका है। आप 15 साल पहले की ही देख लीजिए। हर उपभोक्ता के पास कुछ ताकत थी, आज वह ताकत उनके पास नहीं रही। आप फोन या मोबाइल को ही लीजिए। जो आपके पास बिल आया है, चाहे वह ठीक हो या गलत, उसका भुगतान करना पड़ेगा। आप कहीं भी गुहार लगा आइए, शिकायत कर लीजिए, आपको राहत नहीं मिलेगी। एक जमाने में हवाई जहाज लेट हो गया या छूट गया, तो एयरलाइन सबको होटल में ठहराती थी। आजकल ऐसा कुछ नहीं है। जहाज लेट हो गया तो आपकी बला से। पहले एयरलाइन इसका बोझ उठाती थी, अब नहीं किया जाता। शायद ही कोई एयरलाइन और मोबाइल कंपनी आपकी शिकायत का सही-सही निपटारा करती हो। हर चीज में क्वालिटी खराब होती जा रही है लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियां कहती हैं कि यह सामान खरीदो और उसके साथ मेंटेनेंस लो। वे मानकर चलती हैं कि इन चीजों में खराबी आएगी ही और उसके लिए पैसा पहले दे दीजिए। पहले लोग गर्व से कहते थे कि 10 साल की गारंटी है, कुछ नहीं होगा। अब एक साल की वारंटी है और बाकी साल के लिए मेंटेनेंस का करार बांधा जाता है। मेंटेनेंस असली कीमत से ज्यादा बैठता है यानी दोगुनी कीमत हम दे रहे हैं। इसी तरह कर्मचारियों का शोषण है, उन्हें कांट्रैक्ट पर रखा जाता है और जब मर्जी हटा देते हैं। ये सब अधिकार 20वीं सदी में लंबी लड़ाई के बाद हासिल हुए थे। यह बहुत ही क्रूर पूंजीवाद का दौर है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवाद पर समाजवाद या लोकप्रिय आंदोलनों की वजह से कुछ रोक लगी। उसे थोड़ा-बहुत मानवीय बनने पर मजबूर किया। बहुत सारे अधिकार को मान्यता मिली। ऐसा बेहूदा किस्म का बेलगाम पूंजीवाद तब नहीं था। पहले सरकार और कारोबारी दुनिया में एक दूरी थी। आज वह दूरी मिट गई है। कारोबारी दुनिया के लोग ही सरकार में घुसे हैं और सरकार के लोग ही कारोबार कर रहे हैं। ये सब संविधान के लिए बहुत खतरे की बात है। इस माहौल में संविधान का वजूद कायम रखना मुश्किल है, लेकिन मुश्किल काम तो करना पड़ता है। यह सच्चाई है। आजकल नैतिक जीवन जीना लगभग नामुमकिन हो गया है। पिछले बीस-पच्चीस साल से यह बहुत बुरा समय है देश और पूरी दुनिया के लिए। नए नौजवानों को तो पता ही नहीं है कि क्या सामाजिक, सामूहिक संभावनाएं हैं। संविधान इन संभावनाओं को एक जमाने से प्रश्रय दे रहा है। उसकी अब अवधारणा ही नहीं रह गई। हमको ऐसे कुएं में फेंक दिया गया है, जहां दिखता ही नहीं कि अच्छाई क्या है। यह तो संविधान के बिलकुल खिलाफ है।
संविधान यकीनन बहुत अच्छा, मानवीय विचारों से भरापूरा है, उसमें समय के क्रम में सुधार तो किया जा सकता है, उसमें मानवीय और न्यायोचित अधिकारों का विस्तार किया जा सकता है, मगर उसे बेमानी बनाने, बदल डालने की कोशिशें प्रगतिशील नहीं हो सकतीं। ये कोशिशें भी जारी हैं। 25-30 साल पहले जब ऐसे संकेत नहीं थे, तभी मैंने लिखा था और मेरा हमेशा से मानना रहा है कि संविधान की रक्षा महिलाएं, दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समाज के समझदार लोग करेंगे, बशर्ते वे अपनी आंखें खोलें। अब इस बार उनकी आंखें कुछ खुली हैं। लोगों ने देखा कि कैसे संविधान को एक बेजान-सी किताब बना दिया गया है। उसके खिलाफ लोगों ने वोट देकर अपनी आवाज को अभिव्यक्त किया। ये चीजें ऐसे ही होती हैं।
अब देखिए, संविधान से ही सामाजिक न्याय की राजनीति निकली है। उसमें कुछ विसंगतियां, कुछ खराबी भी आई, मगर उससे कई अच्छी बातें भी हुईं। गड़बडि़यों को ठीक करना है, सामाजिक न्याय को त्याग नहीं देना है। वैसे ही आरक्षण है। यह नहीं है कि आरक्षण कोई एकदम दुरुस्त है और वही सारी समस्याओं का समाधान है, उसमें बहुत सारी कमियां भी आ गई हैं लेकिन वह एक प्रतीक है कि हम प्रगति पर हैं। अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो आगे बढ़ते रहेंगे। यह किसी से छीन लिया जाए तो वह हताश हो जाएगा और ऐसा जो भी कर रहा हो, उसके खिलाफ खड़ा हो जाएगा। करीब 25-30 साल पहले का वाकया है। कुछ लोगों ने संविधान के खिलाफ कुछ कहा था और बदलाव की बात थी। तब दलित समाज के लोगों ने जोरदार विरोध किया। उन पर जूते वगैरह भी फेंके गए। मेरे खयाल में यह महाराष्ट्र में हुआ था। वहां वैसे भी आंबेडकर का असर है और संविधान में उनके योगदान को सभी मानते हैं।
तो, दलितों के लिए संविधान की अहमियत काफी है। लेकिन सिर्फ दलितों के लिए नहीं, संविधान हर व्यक्ति के लिए महत्व रखता है। हर कोई चाहता है कि उसकी स्वतंत्रता कायम रहे। हर कोई चाहता है कि सत्ताधारी लोग उनके जीवन को सुधारें, न कि बिगाड़ें। इसी तरह महिलाएं, आदिवासी, अल्पसंख्यक, जिन्हें संविधान समानता का दर्जा देता है, अगर वे कुछ समय के लिए सो रहे हों और जगेंगे तो पाएंगे कि उनका बहुत कुछ लुट गया। इस बार आंखें खुलीं। अच्छा हुआ कि पूरी तरह लुटने से पहले ही जग गए।
लेकिन हमेशा सावधान रहने की जरूरत है। ऐसी ताकतें हैं जिन्हें समता, न्याय, स्वतंत्रता जैसे मूल्य पसंद नहीं हैं। मुझे याद है कि कुछ साल पहले यह चर्चा चली थी कि वोट का अधिकार पढ़े-लिखे और संपत्ति रखने वालों को ही होना चाहिए। 1950 के पहले उन्हें ही वोटिंग का अधिकार था। बंटवारे को ही लीजिए। मुस्लिम लीग के उस अभियान को सिर्फ 10 फीसदी मुसलमानों का ही समर्थन था, 90 फीसदी से पूछा ही नहीं गया, उनका उसमें कोई हिस्सा ही नहीं था। उनके पास कोई ताकत ही नहीं थी। 10 फीसदी को ही वोट का अधिकार था, लेकिन उसी के आधार पर बंटवारा हो गया।
पाकिस्तान की नींव ही गलत है। इसीलिए वहां या हाल में बांग्लादेश में जो हुआ, बार-बार तख्तापलट वगैरह होता है। इलाके की विविधता के मद्देनजर ऐसा देश बन ही नहीं सकता कि एक धर्म के लोगों को सब अधिकार हों और बाकी के लिए यह फरमान हो कि दोयम दर्जा दिया जाएगा या वे भाग जाएं। दुनिया भर में धर्म या रिलिजन एक बहुत बड़ी आफत बन गया है। सत्तर के दशक के बाद यह सबसे बड़ा सिरदर्द मुस्लिम देशों में है। सत्ता और धर्म का जो मेलजोल हुआ है, उसकी वजह से वहां के आम लोग पिस रहे हैं। पाकिस्तान जब बना था, उसकी नींव ठीक नहीं थी, लेकिन वह इतना बुरा नहीं था। भुट्टो ने कुछ करने की कोशिश की और फिर 1979 में जिया उल हक ने आकर सब बिगाड़ दिया। इसमें पश्चिमी देशों की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं ने भी बड़ी भूमिका निभाई। खासकर अमेरिकी सरकारों ने जो छोटे और कुछ कमजोर देश थे, वहां खूब बर्बादी की। पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों में कट्टर इस्लामी तत्व काफी ताकतवर हैं। अगर हमारे यहां भी हिंदुत्ववादी शक्तिशाली बन जाएं तो हमारा भी वही हश्र होगा। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका में भी बार-बार संविधान बदलता रहता है। जो सत्ता में आता है, वह अपने हिसाब से कर देता है। श्रीलंका अच्छा-खासा देश था। वहां 1956 में एक भाषा सिंहली और एक धर्म बौद्घ को ऊपर कर दिया गया। तमिल भाषा और हिंदू लोगों को दोयम दर्जे का बना दिया गया। आज तक वह देश उसका नतीजा भुगत रहा है। इस तरह फिर तानाशाही आ जाती है। तानाशाही आई तो उससे छुटकारा मुश्किल हो जाता है। तानाशाह को लोगों के विभाजन से ताकत मिलती है। ये सब शिकार हैं।
हम भी शिकार हुए हैं, लेकिन हमने खुद को कुछ हद तक संभाल कर रखा है। हमारी परंपरा, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ हमारी आजादी का संघर्ष, हमारे नेता गांधी, नेहरू, आंबेडकर वगैरह का योगदान है कि हमारा इतना पतन नहीं हुआ है। दुनिया भर में समझदारी घट रही है। हर जगह दक्षिणपंथी ताकतें उभर रही हैं। उन्हें अनदेखा नहीं करना चाहिए, मगर सुधारने का काम करना चाहिए। हर कोई अपने फायदे के लिए हालात का दोहन करना चाहता है। इसका संबंध पूंजीवाद से भी है, जो सिर्फ अपना मुनाफा देखता है। ऐसी सोच बनेगी तो संविधान गया भाड़ में क्योंकि संविधान तो आधारित ही नहीं है निजी हितों पर। संविधान तो सबका भला चाहने के सिद्धांत पर आधारित है। इसलिए संविधान का वजूद आज खतरे में है।
संविधान सभा की बहसों से...
भारत का संविधान एकल नागरिकता पर आधारित एक दोहरा राजनीतिक तंत्र है। पूरे भारत की नागरिकता सिर्फ एक है। इसमें राज्य की नागरिकता जैसी कोई चीज नहीं है।
डॉ. भीमराव आंबेडकर
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संविधान सभा की बहसों से...
सरकार की प्राथमिक इकाइयां गांवों में स्थासपित की जानी चाहिए। सत्तां का अधिकाधिक भाग ग्राम-गणतंत्र में निहित होना चाहिए। इसके बाद सत्तात को प्रांतों और फिर केंद्र में न्यास्तय होना चाहिए।
रामनारायण सिंह
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संविधान सभा की बहसों से...
अगर मुसलमान आपसी सहमति से खुद इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि उन्हें आरक्षण की जरूरत नहीं है तो उनके इस विचार को स्वीकार कर लिया जाना चाहिए, लेकिन यह प्रस्ताव किसी अन्य सदस्य की ओर से नहीं बल्कि उन्हीं की तरफ से आना चाहिए।
सरदार वल्लभभाई पटेल
(विख्यात राजनैतिक सिद्धांतकार, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर। राजनैतिक सिद्धांत, बहुसंस्कृतिवाद, पहचान की राजनीति और धर्मनिरपेक्षता पर चर्चित किताबें) (हरिमोहन मिश्र से बातचीत पर आधारित विचार निजी हैं )