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नेपाल: लोकतंत्र पर हमला

राजतंत्र की वापसी को लेकर हो रहे प्रदर्शनों से माहौल अस्थिर
कब्जे की कवायदः वापसी के इंतजार में राजा ज्ञानेंद्र

नेपाल में राजशाही समर्थक ताकतें कई महीनों से शक्ति प्रदर्शन कर रही हैं। राजा ज्ञानेंद्र की बहाली और नेपाल को दोबारा हिंदू राज्य बनाने का आह्वान करने के लिए बीते 28 मार्च को हुआ विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गया जब प्रदर्शनकारी पुलिस से भिड़ गए। बैरिकेड तोड़ने की कोशिश कर रही गुस्साई भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने आंसू गैस और पानी की बौछारों का इस्तेमाल किया। मकानों में भी आग लगा दी गई। राजधानी काठमांडू के कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया। कई इलाकों में राजशाही समर्थकों के खिलाफ जवाबी प्रदर्शन भी किए गए।

राजा ज्ञानेंद्र के समर्थन में आई तेजी के महत्वपूर्ण राजनीतिक निहितार्थ हैं। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) के नेता प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली नेपाली कांग्रेस के समर्थन से एक मजबूत गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। वे चीजों को चुपचाप घटते हुए देखने वाले प्रधानमंत्री नहीं माने जाते हैं। उन्होंने 26 मार्च को अपनी पार्टी की युवा शाखा से राजतंत्रवादियों का विरोध करने के लिए कथित तौर पर कहा था, ‘‘कोई भी उन अधिकारों को नहीं छीन सकता जिनके लिए हमने लड़ाई लड़ी है। युवा इस बात की सबसे अच्छी पुष्टि कर सकते हैं। अगर कोई देश को अस्थिर करने की हिम्मत करता है, तो यूथ फेडरेशन बाघ की तरह जवाबी हमला करेगा। अगर कोई प्रतिगामी शक्ति हमारा सामना करती है या विकास के प्रयासों में बाधा डालने का प्रयास करती है तो हमें दृढ़ता से उसका विरोध करना चाहिए।’’

राजशाही के लिए प्रदर्शन

राजशाही के लिए प्रदर्शन

नेपाल ने 2008 में राजशाही को समाप्त कर दिया था और 2015 में एक गणतांत्रिक संविधान को अपनाया। नेपाल के माओवादियों ने 1996 से 2006 तक राजा की सेना के खिलाफ एक लंबा सशस्‍त्र विद्रोह किया था। राजकुमार दीपेंद्र द्वारा महल के भीतर चौंकाने वाले नरसंहार के बाद 2001 में ज्ञानेंद्र अपने भाई राजा बीरेंद्र के उत्तराधिकारी बने थे। नरसंहार में राजा बीरेंद्र सहित शाही परिवार के नौ अन्य सदस्यों को दीपेंद्र ने गोली मार दी थी। ज्ञानेंद्र 2008 तक राजा रहे। इसके बाद, नेपाल अंततः राजशाही खत्म करने में सफल रहा।

ज्ञानेंद्र बेहद अलोकप्रिय शासक थे, जिन्होंने निर्वाचित सरकारों को पलटने और अपना नियंत्रण कायम करने की कोशिश की थी। राजशाही को वापस लाने के ज्ञानेंद्र के प्रयासों का संबंध नेपाल के राजनैतिक दलों की आपसी कलह और काफी हद तक उनकी विफलता से है। गरीबी दूर करने और लंबे समय से पीड़ित देश के लोगों के लिए जरूरी विकास करने के बजाय राजनैतिक तकरार पर इन दलों ने बहुत समय गंवाया है। भ्रष्टाचार भी बड़े पैमाने पर फैला हुआ है।

अगर कोई प्रतिगामी शक्ति हमारा सामना करती है तो हमें दृढ़ता से उसका विरोध करना चाहिए केपी शर्मा ओली, नेपाल के प्रधानमंत्री

अगर कोई प्रतिगामी शक्ति हमारा सामना करती है तो हमें दृढ़ता से उसका विरोध करना चाहिए

केपी शर्मा ओली, नेपाल के प्रधानमंत्री

नेपाल में कई लोगों का मानना है कि ज्ञानेंद्र को भारत की हिंदुत्ववादी ताकतें प्रोत्साहित कर रही हैं। नेपाल के आठ प्रमुख नागरिकों और बुद्धिजीवियों द्वारा 24 मार्च को जारी बयान में ज्ञानेंद्र को चेतावनी दी गई है कि वे संविधान को खतरे में न डालें। बयान में कहा गया है, ‘‘जनता अच्छी तरह जानती है कि ज्ञानेंद्र शाह नेपाल में गद्दी वापस पाने के लिए भारत के राजनैतिक प्रतिष्ठान की लॉबिंग कर रहे हैं। यह नई दिल्ली का वही राजनैतिक वर्ग है, जो भारत के छोटे पड़ोसियों के मामलों में लगातार हस्तक्षेप करना चाहता है। सर्वविदित है कि नई दिल्ली का राजनैतिक नेतृत्व नेपाल के संविधान (2015) से नाखुश है और भारत में चुनावी लाभ उठाने के लिए नेपाल में धर्मनिरपेक्षता को खत्म करवा के एक 'हिंदू राज्य' की स्थापना करना चाहता है।’’

भ्रष्टाचार और राजनैतिक दलों से निराशा के बावजूद नेपाल के लोग राजा का स्वागत करने को तैयार नहीं हैं, हालांकि एक तबका राजशाही के समर्थन में अब भी है। नेपाल के घटनाक्रम पर भारत और चीन उत्सुकता से नजर रखे हुए हैं। दोनों देश क्षेत्र में स्थिरता चाहते हैं और उम्मीद करते हैं कि नेपाल गृह युद्घ के एक और दौर में न फिसल जाए।

 

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