न कोई मीडिया मुगल है, न ही मीडिया की अपनी कोई ताकत बची है। रेंगते लोकतंत्र के साथ मीडिया का रेंगना उसके वजूद को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है, जहां लोकतंत्र को घुटने के बल लाने वाली सत्ता से कोई सवाल नहीं करना है, बल्कि सत्ता की ताकत को अपने साथ जोड़ना है। इस दौर में खबरों की गुणवत्ता या फिर देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण और लोगों की जिंदगी से जुड़े मुद्दों से आंख मूंद कर आगे बढ़ने की सोच ही जैसे वजूद का वायस बन गई है।
खबरें दिखाने-बताने का मंत्र खबरों को उत्पाद या प्रोडक्ट मानना ही रहा है। विज्ञापनों की जगह अलग से निर्धारित कर कमाई करना परंपरा रही है। लेकिन खबर ही विज्ञापन में तब्दील हो जाए, मीडिया संस्थान के मुनाफे का मॉडल सत्ता से डर या पाने वाली सुविधाओं पर जा टिके, कॉरपोरेट-सत्ता गठजोड़ सूचना देने की जमीन पर ही कब्जा कर ले, न्यूज चैनल हो या इंटरनेट तमाम माध्यमों से सत्तानुकूल नव-उदारवादी विचारों को परोसने की होड़ हो, जिसे अति-राष्ट्रवाद की चाशनी में डुबोया गया हो, सवाल की जगह न हो, विरोध बर्दाश्त न हो तो कौन-सा मीडिया आपके सामने होगा। नंगी आंखों से देख सकते हैं कि निराधार खबरों, झूठ और गलत जानकारी का ऐसा सैलाब होगा, जिसे सच मानना ही सही लगेगा।
मौजूदा वक्त का बड़ा सवाल यही है कि मीडिया जिस भूमिका में आ चुका है, वह उसकी मजबूरी है या बिजनेस मॉडल की जरूरत। या फिर मीडिया लोकतंत्र को सत्तानुकूल परिभाषित करने का सबसे बेहतरीन हथियार है जिसे राजनैतिक सत्ता ने समझा और कॉरपोरेट मित्रों के जरिए अंजाम तक पहुंचाना शुरू किया। लोकतंत्र के चार स्तंभों में मीडिया ही है जो सीधे करदाता के पैसे से नहीं चलता, बाकी तीन स्तंभ कार्यपालिका-विधायिका-न्यायपालिका करदाता के पैसे से चलते हैं। उन्हें सत्ता कब्जे में ले ले तो मीडिया ही लोकतंत्र के प्रतीक के तौर पर बरकरार रहता है। इसीलिए अखबारों की रिपोर्ट सरकारी ऐलान की तारीफ में लगी हो और न्यूज चैनल बेसिरपैर की खबरों से भरे हों, तो भी लोकतंत्र के राग गाए जा सकते हैं क्योंकि सोशल मीडिया आजाद है। आखिर सोशल मीडिया देश के 85 करोड़ लोगों तक पहुंच जो रखता है। चाहे-अनचाहे अखबार के संपादक या न्यूज चैनल के प्रबंध संपादक की हैसियत सत्ता के दरबारी वाली हो गई। राजनैतिक सत्ता के आगे जब दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाएं ढहने लगीं तो मीडिया ने न सिर्फ आंखें बंद कर लीं, बल्कि जनविरोधी हो गया।
एक आरटीआइ जवाब के मुताबिक, सत्ता ने जून 2014 से दिसबंर 2019 के बीच 6,500 करोड़ रुपये मीडिया में सिर्फ अपने प्रचार के लिए बांटे। चुनावी प्रचार और योजनाओं के प्रचार की रकम अलग है। सभी तरह के प्रचार की रकम को जोड़ दिया जाए तो इन पांच बरस में न्यूज चैनलों को व्यावसायिक विज्ञापनों के मुकाबले सत्ता के प्रचार से कई गुना ज्यादा रकम हासिल हुई। न्यूज चैनलों को व्यावसायिक विज्ञापनों से हर साल औसतन 2,000 करोड़ रुपये मिले, तो बीते छह बरस में सरकारी प्रचार औसतन हर साल 5,000 करोड़ रुपये तक हासिल हुए। विधानसभा चुनाव हों या 2019 का लोकसभा चुनाव, भाजपा ने प्रचार खर्च के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलों के पास न तो रकम थी, न ही उन्हें कहीं से फंडिंग मिली। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट (एडीआर) के मुताबिक कॉरपोरेट या औद्योगिक घरानों ने जो भी राजनैतिक चंदा दिया उसका 72 फीसदी सत्ताधारी भाजपा के खाते में गया। पूंजी के इस खेल ने लोकतंत्र की बिसात पर विपक्ष को गायब कर दिया और न्यूज चैनलों के एंकर सत्ता के प्रवक्ता नजर आने लगे। यह नई पत्रकारिता थी जिसे सत्ता के साथ खड़े रहकर ही पाया जा सकता था।
सवाल है कि मीडिया की भूमिका क्या होगी। मुनाफा कमाना उसकी जरूरत है या फिर जनता से जुड़े मुद्दे उठाना। बिजनेस के तौर-तरीकों ने मीडिया की साख पर सवाल खड़े कर दिए। शुरुआत में साख का डगमगाना सत्ता की चकाचौंध में खोना था। विपक्ष की चुनावी हार को जोर-शोर से उठा कर जीत के पक्ष में खड़ा होना था। संवैधानिक संस्थाएं नतमस्तक हुईं तो मीडिया उन्मादी भीड़ द्वारा हत्या को भी राजनैतिक चश्मे से देखने लगा। नोटबंदी में लाइन में खड़े लोगों की मौत को भी कालेधन के खिलाफ देशभक्ति की मुहिम का असर माना गया। जीएसटी में व्यापारियों के धंधे चौपट हो गए। सूरत में कपड़ा व्यापारियों के विरोध को भी ‘एक देश-एक टैक्स’ के विरोध के रूप में देखने का प्रयास हुआ।
लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की सड़क-ट्रेन में मौत से लेकर रोजी-रोटी के मुश्किल हालात पर भी मीडिया ने आंखें मूंदना ठीक समझा। जब आर्थिक संकट ने अर्थव्यवस्था का चक्का रोक दिया तो नाकाम आर्थिक नीतियों पर मीडिया ने खामोशी बरती क्योंकि इस दौर में मीडिया अपने आर्थिक संकट में जा फंसा। सरकारी प्रचार के दो बरस के बकाए की रकम अटक गई। कॉमर्शियल विज्ञापन भी गायब होने लगे। इसने मीडिया में उठते मुद्दों को मनोरंजन में तब्दील कर दिया। शोर-हंगामा न्यूज चैनलों में ऐसे छा गया कि एक कांग्रेस प्रवक्ता की चर्चा के तुरंत बाद दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। मगर मीडिया नहीं बदला। इस ताबूत में मोटी कील बॉलीवुड के कलाकार सुशांत सिंह की मौत की खबर न रुकने की फितरत ने ठोक दी। अजूबा यह भी कि न्यूज चैनलों की टीआरपी मापने वाली संस्था बार्क इंडिया के मुताबिक राम मंदिर भूमिपूजन देखने वालों की तादाद 16 करोड़ रही तो सुशांत से जुड़ी खबरों का सात दिनों का औसत 17 करोड़ के पार चला गया।
‘एक ही खबर क्यों’ का यही जवाब मिला कि दर्शक जो देखना चाहे, वही दिखेगा। लोकतंत्र इसी का नाम है। सब आजाद हैं। मीडिया भी आजाद है। लेकिन आजाद मीडिया जब सत्तानुकूल हो तो पहले लोकतांित्रक देश अमेरिका के संविधान के उस पहले संशोधन पर भी गौर करें, “प्रेस की स्वतंत्रता में ही देश का भविष्य है।”
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टीवी शख्सियत हैं)