प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक और प्रबंधन सलाहकार जेफरी मोरे ने कहा है कि “बिना आंकड़ों के आप अंधे और बहरे होते हैं और उसी दशा में आपसे सड़क पर आगे बढ़ने की उम्मीद की जाती है।” आज देश में ऐसी ही स्थिति बन रही है। अर्थव्यवस्था के आंकड़े जारी करने वाला सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय विवाद के केंद्र में है। मंत्रालय के तहत आंकड़ों की निष्पक्ष जांच के लिए बने राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो सदस्यों ने सरकार से नाराज होकर इस्तीफा दे दिया है। आरोप है कि आयोग के कामकाज को नजरअंदाज किया जा रहा है। स्वतंत्र सदस्यों के इस्तीफा देने के बाद आयोग में अब केवल दो सदस्य बचे हैं। एक, नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत और दूसरे, चीफ स्टैटेशियन प्रवीण श्रीवास्तव हैं।
कहानी शुरू होती है 28 जनवरी 2019 को, जब आयोग के कार्यवाहक अध्यक्ष पी.सी.मोहनन और दूसरी सदस्य जे.वी.मीनाक्षी ने अचानक इस्तीफा दे दिया। इस्तीफे की वजह बनी राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट। रिपोर्ट 2017-18 में देश में रोजगार की स्थिति पर है। रिपोर्ट जिस समय के आंकड़ों को लेकर तैयार की गई है, वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसमें नवंबर 2016 में मोदी सरकार द्वारा लागू की गई नोटबंदी के बाद के असर की तस्वीर है। तत्कालीन कार्यवाहक चेयरमैन पी.सी.मोहनन ने जब इस्तीफा दिया, तो उन्होंने कहा था कि रिपोर्ट को जारी करने में देरी उनके इस्तीफे की एक प्रमुख वजह है। सवाल उठता है कि उस रिपोर्ट में ऐसा क्या था, जिसे जारी करने में देरी की जा रही है। लीक हुई रिपोर्ट से पर्दे के पीछे की कहानी सामने आ गई है। रिपोर्ट के अनुसार 2017-18 की अवधि में देश में बेरोजगारी दर 45 साल में सबसे ज्यादा है। यानी जिस नोटबंदी पर मोदी सरकार अपना पीठ ठोकती रहती है, वही नोटबंदी रोजगार के मामले में सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन सकती है। खासतौर से इस रिपोर्ट के आने के बाद मोदी सरकार पर विपक्ष को हमला करने का एक और मौका मिल गया है। पूरी रिपोर्ट को नीति आयोग खारिज कर रहा है। उसका कहना है कि अभी रिपोर्ट सत्यापित नहीं हुई है और उस पर काम जारी है। उसके मुताबिक इसे मार्च या अप्रैल में जारी किया जा सकता है।
पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम सीएसओ में सरकार की बढ़ती दखलअंदाजी पर लगातार सवाल उठाते रहे हैं। जब जीडीपी के बैक सीरीज के आधार पर आंकड़े जारी हुए तो उन्होंने पूछा था कि क्या राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग प्रतिबंधित है, जिसकी वजह से नीति आयोग आंकड़े जारी कर रहा है। अब रोजगार रिपोर्ट में देरी पर उनका सवाल है कि जब 45 साल में सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर है तो कैसे कोई देश सात फीसदी की ग्रोथ रेट हासिल कर सकता है।
वित्त मंत्रालय में 1999 में आर्थिक सलाहकार रह चुके मोहन गुरुस्वामी कहते हैं, “अपनी नाकामी छुपाने के लिए सरकार रिपोर्ट को दबाए बैठी है। अगर आप राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग जैसे संस्थान को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने देंगे, तो फिर आप पर कौन भरोसा करेगा। देश के विकास का खाका तैयार करने में आंकड़ों की ही अहम भूमिका होती है। सरकार और उसके दूसरे संगठन इन्हीं के आधार पर अपनी नीतियां तय करते हैं।”
उनकी आशंकाएं बेजा नहीं हैं। अगर दुनिया में यह संदेश चला गया कि भारत के आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता, तो साख पर संदेह खड़ा हो जाएगा। चाहे जीडीपी के आंकड़े हों, रोजगार के हों या फिर अर्थव्यवस्था से संबंधित दूसरे आंकड़े, अगर उन पर भरोसा नहीं रहेगा, तो सब कुछ प्रभावित होगा। आंकड़ों से निवेशक अपने फैसले करते हैं। आंकड़े ही गोलमोल होंगे तो हमारा हाल चीन जैसा हो जाएगा, जिस पर हमेशा सवाल उठते हैं।
देश के पूर्व चीफ स्टैटेशियन प्रणब सेन कहते हैं, “केंद्रीय सांख्यिकी आयोग का गठन ही इसलिए किया गया कि आंकड़े राजनीति से दूर रहें। पहले जीडीपी के आंकड़ों को बैक सीरीज में जारी किया गया, तब भी आयोग को नजरअंदाज किया गया और अब रोजगार पर रिपोर्ट जारी करने में देरी की गई। परंपरा रही है कि समिति रिपोर्ट को सत्यापित कर दे, तो उसे 4-5 दिन के अंदर जारी कर दिया जाए। ऐसा न होने पर सवाल उठना स्वाभाविक है।” अगले पन्नों पर प्रणब सेन का इंटरव्यू और रोजगार की स्थित पर जेएनयू के विशेषज्ञ संतोष मेहरोत्रा का लेख इस पूरे विवाद के पहलुओं को उजागर करता है।