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हिंदी पट्टी का रक्त-चरित्र

हिंदी प्रदेशों और खासकर सियासी तौर पर सबसे अहम उत्तर प्रदेश के सामाजिक-राजनैतिक तानेबाने में पिरोयी गैंगस्टर और बाहुबली संस्कृति पिछले चार दशकों में राजनीति के तौर-तरीकों का नतीजा
उज्जैन में पूरे नाटकीय अंदाज में विकास दुबे पुलिस की गिरफ्त में

यकीनन अपने रंग-ढंग और सामाजिक परिस्थितियों में पुराने दौर के बागी डकैतों और आज के गैंगस्टर या डॉन वगैरह का चाल, चरित्र सब कुछ एकदम अलग है। लेकिन दोनों की जुबान पर आज भी वही गर्व से फबता है, जो सबसे लोकप्रिय फिल्मी डकैत की बोली से गूंजा थाः “कितना इनाम रखा है सरकार हम पर?” ठहाके गूंजते हैं, “पूरे 50 हजार, सरदार!” असल में खौफजदा करने वाला यही ठहाका हर डकैत या गैंगस्टर की पूंजी होती है, जो उसके बारे में किंवदंती की तरह चारों ओर छाई रहती है। लोगों के बीच छाए इसी खौफ की बनिस्बत वह अपनी आपराधिक दुनिया को फैलाता है और अपना दबदबा कायम करता है। सिनेमाई कहानियां भी एकदम मनगढ़ंत नहीं होतीं। वे उसी के इर्दगिर्द बुनी होती हैं, जो निपट असली आपराधिक दुनिया और उसके बारे में प्रचलित किंवदंतियों के बीच पुल जैसी बिछी रहती हैं। असली दुनिया में आज के गैंगस्टरों का रंग-ढंग परदे के खूंखार से दिखने वाले पात्रों से एकदम अलग है लेकिन वे भी अपनी उसी पूंजी के सहारे होते हैं और खौफजदा करने की उसी शैली पर फख्र करते हैं, जो निपट पुरानी है। इसी से उनके अवैध कारोबार के दरवाजे खुलते हैं। उनका रहन-सहन, उनकी आकांक्षाएं, उनकी दुनियावी सोच-समझ, उनके तौर-तरीके चाहे जितनी वितृष्‍णा पैदा करें, मगर उसकी बारिकियां दिलचस्प हैं और उनसे राजनैतिक-सामाजिक हकीकत को जानने-समझने में मदद मिलती है।

पहले हाल ही में एक सवालिया पुलिस मुठभेड़ में मारा गया विकास दुबे का जिक्र जरूरी है, जिससे राजनीति, समाज और पुलिस तथा सरकारी तंत्र के स्याह पक्ष का खुलासा होता है। विडंबना देखिए कि अपराध-मुक्त राज्य बनाने के वादे पर अपराधियों के सफाए के लिए “ठोक दो” कहकर पुलिस को हरी झंडी देने के बावजूद यह सि‌लसिला जारी है।

खैर, गैंगस्टर इतने दुर्दांत कैसे बन जाते हैं, यह जानने के लिए कुछ पुरानी फाइलें पलटते हैं। उत्तर प्रदेश में 1990 के दशक में लखनऊ में गैंगस्टर श्रीप्रकाश शुक्ला की कहानी इस दुनिया की तसवीर दिखाती है। शुक्ला अपने आपको ‘बड़ा बाबू’ कहता था और अपने साथ हमेशा एक बैग रखता था। वह कहता था कि उसके बैग में ऑफिस का सामान है। असल में शुक्ला जिस सामान की बात करता था, वह एक-47 राइफल थी।

इसी तरह 70 और 80 के दशक में चंबल के बीहड़ों में छबीराम बागी या डकैत का खौफ था। इटावा, मैनपुरी और फिरोजाबाद में उसके नाम का आतंक हुआ करता था। उसकी एक पुलिस अफसर का अपहरण करने की कहानी काफी चर्चित है। उसने पुलिस अफसर को तब तक बंधक बनाकर रखा, जब तक अफसर की पत्नी सारे गहने लेकर उसके पास नहीं पहुंची। लेकिन कहानी यहीं पर दिलचस्प मोड़ लेती है। पुलिस अफसर की पत्नी ने डकैत को गहने देते वक्त ‘भैया’ कहकर पुकारा। यह संबोधन सुनते ही डकैत का दिल पसीज गया और उसने सारे गहने लौटा दिए। भले ही छबीराम की कहानी पूरी फिल्मी लगती हो, लेकिन प्रतापगढ़ के माफिया राजा भैया की कहानी कुछ कम नहीं है। उन पर आरोप लगता रहा है कि वह अपने दुश्मनों को तालाब में पाले गए घड़ियालों का भोजन बना देते थे।

भले ही मुंबई का अंडरवर्ल्ड कमाई के मामले में ज्यादा ताकतवर है और उसे मीडिया में ज्यादा सुर्खियां मिलती हैं, लेकिन हिंदी पट्टी के ये देसी गैंगस्टर अपने क्षेत्र में रसूख और आतंक में किसी से कम नहीं। कानून के रखवालों और गैंगस्टरों के बीच कानून की दीवार इतनी कमजोर हो चुकी है कि आए दिन इनके आतंक की दास्तां सामने आती रहती है। ताजा मामला कानपुर के गैंगस्टर विकास दुबे का है। उसने अपने बिकरू गांव में 2-3 जुलाई की दरम्यानी रात को छापा मारने गई पुलिस टीम के आठ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। उसमें शामिल विकास दुबे के एक साथी को बाद में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उसने बताया कि विकास दुबे को पुलिस के ही एक मुखबिर ने सूचना दी थी कि उसे पकड़ने के लिए पुलिस छापा मारने वाली है। वारदात स्थल पर कितनी राउंड गोलियां चली थीं, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि वारदात के बाद आठ दिनों तक गोलियों के खोखे मिलते रहे। हालांकि बाद में विकास दुबे और उसके चार साथियों को पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया।

बिकरू गांव हत्याकांड के बाद से फरार विकास दुबे न केवल पुलिस के निशाने पर रहा, बल्कि मीडिया ने भी उसकी कवरेज का कोई मौका नहीं छोड़ा था। हालांकि उसके एनकाउंटर की कहानी जरूर भरोसेमंद नहीं लगती। पुलिस के अनुसार उसकी गिरफ्तारी सातवें दिन मध्य प्रदेश के उज्जैन से की गई, जिसके बाद उत्तर प्रदेश पुलिस उसे कानपुर लेकर आ रही थी। कानपुर से कुछ दूर पहले, तेज बारिश में पुलिस की गाड़ी पलट गई और मौके का फायदा उठाते हुए दुबे ने पुलिस अधिकारी का हथियार छीनकर, भागना शुरू कर दिया। पुलिस ने जब दुबे को सरेंडर करने को कहा तो उसने पुलिस टीम पर गोलियां चलानी शुरू कर दी। जान बचाने के लिए पुलिस ने भी गोलियां चलाई, जिसमें विकास मारा गया। इससे संदेह है कि उसके राजनीति और अफसरशाही के उस गठजोड़ का राज भी दफन हो गया जिसके सहारे उसे 60 संगीन मामलों के बावजूद जमानत मिली हुई थी और हत्या जैसी वारदात करने के बावजूद उसकी लाइसेंसी बंदूक उसके पास सलामत थी। यही सवाल अब सुप्रीम कोर्ट पूछ रही है और मुठभेड़ की न्यायिक जांच के लिए उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार से कह चुकी है। विकास दुबे का मामला सामने आने के बाद एक बार फिर उत्तर प्रदेश की घिनौनी आपराधिक दुनिया का खुलासा हुआ है। यह बताता है कि कैसे राज्य में अपराध की संस्कृति विकसित हो गई है जो दुबे जैसे डॉन या गैंगस्टर को पनपने का मौका देती है। अहम बात यह है कि राज्य में यह संस्कृति दशकों से चली आ रही है।

अब बात चंबल के बीहड़ों के उन डकैतों की करते हैं, जो मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सीमाओं पर आतंक फैलाए हुए थे। उन्हें स्थानीय लोग बागी कहा करते थे। इन बागियों ने बॉलीवुड को भी अनेक कहानियां दी हैं। बीहड़ के इन डकैतों में कई ने बाद में सरेंडर भी कर दिया। उन्हीं में से एक डकैत मोहर सिंह था, जिसकी दो महीने पहले मौत हुई है। मोहर सिंह ने विनोबा भावे के आह्वान पर साठ के दशक में सरेंडर किया था। उसके बाद 1972 में जय प्रकाश नारायण, 1976 में मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और 1982-83 में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के आह्वान पर कुछ डकैतों ने सरेंडर किया। अगर इन चार दशकों को देखा जाए तो ये बागी, सामंतवादी समाज के खिलाफ खड़े हुए थे। लेकिन आज के दौर के गैंगस्टर की कहानी कुछ और है। पिछले चालीस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। वारदात करने के तरीके, अपराध में इस्तेमाल होने वाले हथियार, अपराध की दुनिया में आने वाले लोगों की सामाजिक हैसियत, सब कुछ बदल गई है। सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि गैंगस्टर्स का सत्ता में दखल बहुत तेजी से बढ़ा है। विकास दुबे इसका सबसे ताजा उदाहरण है।

ज्यादातर बागी व्यवस्था के विरोध में हथियार उठाते थे, लेकिन उनके नए अवतार यानी गैंगस्टर सुपारी लेकर हत्या करने लगे हैं। यानी वे एक तरह से हत्या करने की मशीन बन गए हैं। अपराध में जिस तरह सत्ता का खेल शामिल हो गया है, वह उसकी मजबूत जड़ों को भी बताता है। साफ है कि भारत में अपराधी और नेताओं के गठजोड़ का मजबूत तंत्र बनता जा रहा है।

अब राजनीति बदल गई है और दशकों से जमी सत्ता की जड़ें भी हिली हैं। सामाजिक संरचना में आए बदलाव से भी सत्ता को नए सिरे से चुनौती मिलने लगी है। पहले समाज के हाशिये पर बैठे बागियों ने इस बदलाव को हवा दी। उस दौरान कुछ लोगों ने पुलिस पर भी सवाल उठाए, लेकिन पुलिस के काम-काज का तरीका बदस्तूर जारी रहा। तत्कालीन मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में डकैतों के खिलाफ चलाए गए अभियान में 1981-1983 के दौरान 1,500 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। उस अभियान पर यूपी पुलिस के पूर्व डीजीपी आनंद लाल बनर्जी का कहना है, “मार्च 1982 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और विश्वनाथ प्रताप सिंह के भाई की हत्या के बाद राज्य में पुलिस को डकैतों के खात्मे के निर्देश दिए गए थे। इस अभियान में कई ऐसे लोगों को मार दिया गया जिन्होंने छोटे-मोटे अपराध किए थे। कुछ तो बेगुनाह थे, लेकिन डकैतों का सफाया करने के इस पागलपन में इन सब बातों को नजरअंदाज कर दिया गया।  पुलिस ने यह भी नहीं देखा कि मारे गए लोगों में कितने वास्तव में डकैत थे।” बनर्जी की उस वक्त पुलिस में नई-नई भर्ती हुई थी।

ऐसा माना जाता है कि डकैतों को मारने के लिए जूनियर पुलिस वालों की जान को जोखिम में डाला जाता था। जब डकैत मार दिए जाते थे, तब सीनियर अधिकारी आकर उसका श्रेय लेते थे। कई बार डकैतों को पेड़ से बांध दिया जाता था। डाकुओं के साथ इस तरह के व्यवहार से साफ है कि प्रतिशोध की भावना उस समय भी थी। जब फूलन देवी मध्य प्रदेश में सरेंडर के लिए जा रही थीं, तो उस वक्त एक पुलिस अधिकारी के शब्दों ‘फूलन हमारा शिकार है’ की आज भी चर्चा होती है।  यह बयान बताता है कि ज्यादा नंबर बनाने के चक्कर में उस वक्त भी पुलिस इस तरह के काम करती थी।

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के अब तक के तीन साल के कार्यकाल में 100 से ज्यादा एनकाउंटर हो चुके हैं। आज भी उसी तरह के आरोप पुलिस पर लग रहे हैं कि उसने प्रतिशोध के नाम पर बहुत से छोटे-मोटे अपराधियों के साथ बेकसूरों को भी मार दिया। इन उदाहरणों से साफ है कि आज के दौर में अपराधियों से निपटने के लिए किस तरह का पुलिस तंत्र तैयार हो रहा है। जिस तरह कोई डकैत अच्छे दिल वाला हो सकता है, उसी तरह पुलिस वाला भी पुराने सामाजिक सोच से प्रभावित होकर पुरानी कार्यशैली में काम कर सकता है।

इस माहौल में कैसे सभी चीजें बदल गईं? यूपी पुलिस के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं, “राज्य में संगठित अपराध 1980 के दशक में पनपना शुरू हुआ जो धीरे-धीरे 90 के दशक में चरम पर पहुंच गया। उस वक्त सुपारी लेकर हत्या करना, चुनाव के दौरान बूथ लूटना, अवैध शराब की बिक्री, जबरन सरकारी ठेके हासिल करना, अपहरण, मानव तस्करी, जाली नोट जैसे अपराध बहुत तेजी से बढ़े। छोटे-मोटे अपराधी कुछ करोड़ खर्च कर ग्राम प्रधान और ब्लॉक प्रमुख बनने लगे। अगर कोई 10 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर देता तो वह विधायक का चुनाव लड़ने लगता था। अगर किसी के अंदर अपराध करने का कोई भी गुण है तो उसके लिए राजनीति में प्रवेश कर सफल होना बहुत आसान हो गया था। उसे भ्रष्ट राजनेताओं, पुलिस और कमजोर न्याय व्यवस्था का भी सहारा मिल जाता था। धीरे-धीरे भ्रष्टाचार का एक मजबूत और बड़ा तंत्र तैयार हो गया।” 

समय के साथ अपराध का दायरा भी बढ़ता गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 70-80 के दशक में अपहरण और उगाही प्रमुख अपराध हुआ करते थे। उदाहरण के तौर पर मुजफ्फरनगर में कोई संपन्न गन्ना किसान रहता था, तो गन्ने की कटाई के समय उसके बेटे का अपहरण जरूर होता था। इसी तरह गाजियाबाद, मेरठ के संपन्न व्यापारी हमेशा डर के साये में रहते थे। अपहरण जैसे अपराध तो अब भी चल ही रहे हैं। एक समय पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लठैतों का बोलबाला हुआ करता था। भूमि सुधार के बाद ये लठैत टैक्स वसूली में माफियाओं की मदद करने लगे। अब इनका इस्तेमाल सरकार के ठेके लेने और स्थानीय स्तर पर वोट जुटाने में किया जाता है।

इसी तरह, पूर्वी उत्तर प्रदेश में गोरखपुर एक अहम जिला है जो पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय भी है। वहां रेलवे के स्क्रैप का ठेका हासिल करने के लिए कई तरह के अपराध और माफिया खड़े हो गए। सबसे मशहूर लड़ाई माफिया डॉन हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही के बीच उभरकर सामने आई। माना जाता है कि हरिशंकर तिवारी को कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलापति त्रिपाठी का वरदहस्त हासिल था, वहीं वीरेंद्र शाही पर कांग्रेस के ही वरिष्ठ नेता वीर बहादुर सिंह का हाथ था। इस लड़ाई में हरिशंकर तिवारी नए डॉन बन कर उभरे। वे 23 साल तक विधायक रहे। यही नहीं, वे भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सबके शासनकाल में मंत्री भी बने। उनके विरोधी वीरेंद्र शाही की एक और माफिया श्रीप्रकाश शुक्ला ने 1997 में हत्या कर दी थी। उस वक्त तक शाही भी दो बार विधानसभा चुनाव जीत चुके थे। शुक्ला ने जब शाही की हत्या की थी, तो वह मात्र 24 साल का था। शुक्ला उस समय अपनी चमक-दमक वाली जीवन शैली के लिए भी जाना जाता था। वह हमेशा यही कहा करता था कि उसे भारत का सबसे बड़ा गैंगस्टर बनना है। वह एक तरह से आज के दौर के विकास दुबे जैसा था।

श्रीप्रकाश शुक्ला पर कैसे ग‌िरफ्त में आया, यह उस वक्त भाजपा के एक नेता के दावे से पता चलता  है। उन्होंने कहा था कि शुक्ला ने तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को मारने की सुपारी ली थी। इस वजह से पूरा पुलिस तंत्र उसको पकड़ने में लग गया। ऐसा माना जाता है कि बिहार के एक मंत्री को मारने में भी शुक्ला का हाथ था और हरिशंकर तिवारी उसका अगला निशाना थे। शुक्ला की इच्छा थी कि तिवारी को मारने के बाद वह गोरखपुर की ब्राह्मण प्रभुत्व वाली विधानसभा सीट से चुनाव लड़े। हालांकि उसका यह सपना साकार होने से पहले 1998 में यूपी स्पेशल टॉस्क फोर्स ने उसे गाजियाबाद में मार गिराया। उसे पकड़ने के लिए पुलिस को पांच महीने तक एड़ी-चोटी एक करनी पड़ी थी।

शुक्ला के मारे जाने के बाद एसटीएफ ने अपनी रिपोर्ट में जो खुलासे किए, वे काफी चौंकाने वाले थे। रिपोर्ट में यह बताया गया था कि कैसे अपराधियों और राजनेताओं का गठजोड़ पूरे राज्य में तैयार हो गया था और यही गठजोड़ राज्य को चला रहा था। रिपोर्ट के अनुसार कम से कम भाजपा के आठ मंत्रियों ने कभी न कभी अपने सरकारी आवास पर शुक्ला को छुपाया था। यही नहीं, दूसरे राजनीतिक दलों के नेता, नौकरशाह और पुलिस अधिकारी भी शुक्ला को गिरफ्तारी से बचा रहे थे। यह गठजोड़ कितना खतरनाक था, इसे ऐसे समझा सकता है कि शुक्ला ने एक बार अपहरण के लिए जिस कार का इस्तेमाल किया था, उसकी बुकिंग अमरमणि त्रिपाठी ने कराई थी। चार बार के विधायक अमरमणि भी डॉन रह चुके हैं। उन्हें उत्तर प्रदेश के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने टिकट दिया है। इस समय वे मधुमिता शुक्ला की हत्या के मामले में जेल में हैं।

उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्र में बसा मुगलसराय भी अपराध का एक प्रमुख केंद्र रहा है। यहां रेलवे का बड़ा जंक्शन होने के कारण बिहार और झारखंड की कोयला की खदानों से निकलने वाले कोयले की लोडिंग-अनलोडिंग होती रही है। इस वजह से यहां कोयले का अवैध व्यापार तंत्र खड़ा हो गया है। इसके पड़ोस में चंदौसी कोयला मंडी है। इस क्षेत्र पर दबदबे के लिए मुख्तार अंसारी और कृष्णानंद राय में प्रतिद्वंद्विता रही है। इसी लड़ाई में कृष्णानंद राय सहित छह लोगों की हत्या अंसारी के गुर्गे मुन्ना बजरंगी ने 2005 में की थी। इस हत्याकांड में सात लोगों के शरीर से 67 गोलियां मिली थीं। बाद में जुलाई 2018 में बागपत जेल में बजरंगी की हत्या कर दी गई थी। यह हत्या एक अन्य गैंगस्टर ने की थी, उसने बजरंगी के सिर में 10 गोलियां मारी थीं। इसी कड़ी में दून स्कूल में पढ़ाई कर चुके रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया, अतीक अहमद और डी.पी. यादव का भी नाम सामने आता है। इन तीनों के नाम दर्जनों आपराधिक मामले दर्ज हैं। हत्या, गैंगवार आदि में शामिल होने के बावजूद उनका राजनीतिक करियर फलता-फूलता रहा है। सबसे अहम बात यह है कि इन्होंने कभी अपने पाप को छुपाने या उसे धोने की कोशिश नहीं की। अतीक अहमद और डी.पी. यादव अभी जेल में हैं। इन लोगों ने राजनीतिक रसूख का फायदा उठाते हुए कई पार्टियां बदली हैं। हालांकि उनका ज्यादातर समय समाजवादी पार्टी में गुजरा है।

कानून बनाने वालों और कानून तोड़ने वालों के इस गठबंधन को मजबूत करने में शहरी वर्ग की अहम भूमिका रही है। इसके अलावा उस दौर में हो रहे सामाजिक और राजनीतिक बदलाव ने भी इस गठजोड़ को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई है। ये चीजें कैसे लोकतंत्र का हिस्सा बन गईं, इसके जवाब में ‘वेन क्राइम पेज: मनी एंड मसल्स इन इंडियन पॉलिटिक्स’ पुस्तक की लेखक और वाशिंगटन स्थित कार्नेगी एनडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के डायरेक्टर और सीनियर फेलो (साउथ एशिया प्रोग्राम)  मिलान वैष्णव का कहना है, “यूपी सहित दूसरे राज्यों में आपातकाल के दौरान अहम मोड़ आया। आपातकाल से पहले चुनावों में राजनेता इनका इस्तेमाल जबरन वोट डलवाने और बूथ लूटने जैसे आपराधिक कामों में किया करते थे, लेकिन आपातकाल के बाद सीधे तौर पर अपराधियों और राजनेताओं का गठजोड़ दिखने लगा। अस्सी और नब्बे के दशक में यह संख्या काफी तेजी से बढ़ी। इसकी एक बड़ी वजह उस दौर के मंडल, मस्जिद और बाजार जैसे मुद्दे थे, जो राजनीति में बदलाव की अहम वजह बने।”

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के डायरेक्टर अनिल कुमार वर्मा ने हाल ही में आउटलुक के लिए कानपुर की घटना पर लिखे लेख में बताया है, “70 और 80 का दशक उत्तर प्रदेश की राजनीति में बदलाव का दौर था। उस समय स्थापित पार्टियों में अभिजात्य वर्ग के एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी। यह वह समय था जब राज्य में दलित और पिछड़ा वर्ग एक मजबूत राजनीतिक ताकत बनकर उभरा था।” इस बदलाव के प्रतीक के रूप में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी सामने आई थी। इन राजनीतिक दलों ने अपना आधार बनाने के लिए अपराधियों को संरक्षण दिया। इन्होंने अपराधियों को जाति के सम्मान से जोड़ दिया और उन्हें वोट भी मिलने लगे।” वैष्णव कहते हैं, लोग यह भूल गए थे कि राज्य का काम निष्पक्ष होकर उन्हें सेवाएं प्रदान करना है। इस कारण भी इन दलों को समर्थन मिला। बदले माहौल में राजनेताओं ने अपने संसदीय क्षेत्र में काम कराने के लिए अपराधियों का सहारा लेना शुरू कर दिया। उत्तर प्रदेश में यह गठजोड़, दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा मजबूत होकर सामने आया। वैष्णव एक बात और कहते हैं। उनके अनुसार, “कई बार ऐसा लगता है कि केवल यूपी में ही अपराध हो रहे हैं, लेकिन बिहार, महाराष्ट्र और झारखंड भी ऐसे राज्य हैं जहां अपराध की दर बहुत ज्यादा है। गुजरात और केरल जैसे राज्यों में जारी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की खबरों को बहुत कम तरजीह मिलती है। मेरा मानना है कि उत्तर भारत में अपराध को बढ़ावा देने की जो छवि बनी है, उसकी एक बड़ी वजह सिनेमा संस्कृति भी है। यहां पर दबंग का विचार ही बिकता है।” इसे राज्य की विधानसभाओं में आपराधिक रिकॉर्ड वाले सदस्यों की मौजूदगी भी साबित करती है। उत्तर प्रदेश की विधानसभा में आपराधिक रिकॉर्ड वाले सदस्यों की संख्या 35 फीसदी, राजस्थान में 23 फीसदी, पंजाब में 23 फिसदी, मध्य प्रदेश में 40 फीसदी, कर्नाटक में 35 फीसदी और महाराष्ट्र में 60 फीसदी है।

डाकुओं का जीवन

आपराधिक राजनीति को लेकर इतनी आसानी से किसी तथ्य पर पहुंचने से पहले हमें सफेदपोश अपराधों का भी विश्लेषण करना चाहिए। इनकी संख्या जिस तरह उत्तर प्रदेश में बढ़ी है, वह विश्व स्तर पर कभी नहीं देखी गई है। इसकी एक बड़ी वजह राज्य में हुआ सामाजिक बदलाव है। राज्य के सबसे दुर्दांत डकैतों में रघुवीर सिंह यादव उर्फ छबीराम को पुलिस ने उसके 11 साथियों के साथ मार्च 1982 में ढेर कर दिया था। छबीराम और उसके गैंग को मारने के लिए पुलिस को करीब नौ हजार राउंड गोलियां चलानी पड़ी थीं। मारे जाने से पहले छबीराम ने 24 पुलिस वालों की हत्या की थी। उसके गैंग में करीब 100 डकैत शामिल थे। इनमें ज्यादातर ऐसे थे जो साहूकारों और जमींदारों के सताए थे। उसी दौरान डकैत पोथी, महावीरा और अनार सिंह भी पुलिस के हाथों मारे गाए। मुठभेड़ के बाद मैनपुरी पहुंचने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कपूर उस वक्त का जिक्र करते हुए कहते हैं, “थाने के बाहर बड़ी संख्या में भीड़ जमा थी। मैंने सामान्य लहजे में बोला, अब लोगों को इसके आतंक से राहत मिलेगी। लेकिन यह बोलते ही भीड़ ने तुरंत गुस्से में मुझसे कहा कि तुम लखनऊ से जींस और शर्ट पहनकर पहुंच गए, तुम क्या जानते हो। नेता जी चले गए, अब हमें पुलिस की ज्यादती से कौन बचाएगा।” एक और डकैत शिव कुमार पटेल था, जिसे ददुआ नाम से जाना जाता था। उसने चित्रकूट-बांदा क्षेत्र में करीब 25 साल तक अपना दबदबा बनाए रखा। कुर्मी जाति से ताल्लुक रखने वाले ददुआ का आतंक 1980 से 2007 तक बना रहा। लेकिन वह अपने इलाके में दलितों और पिछड़ी जातियों का हीरो था। उसने 25 साल में करीब 150 हत्याएं कीं और 200 से ज्यादा डकैतियां डाली थीं। हालांकि बाद में उसने डकैती और अपहरण जैसे अपराध छोड़ दिए थे। वह सरकारी ठेकों में हिस्सेदारी लेने लगा था। कहा जाता है कि उसको भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता राम संजीवन का समर्थन था, जो बाद में बसपा में शामिल हो गए थे। 2007 में जब ददुआ को एसटीएफ ने मारा, तो वापस लौटती एसटीएफ की टीम पर अंबिका पटेल (ठोकिया) ने हमला कर दिया था। इस हमले में एसटीएफ के छह लोग मारे गए थे। हालांकि कुछ घंटे बाद ठोकिया को भी मार गिराया गया। उन वर्षों में दस्यु निर्भय गुर्जर और घनश्याम केवट भी पुलिस मुठभेड़ में मारे गए। इन सभी अपराधियों में एक बात की समानता भी रही है कि ये पिछड़ी जाति या दलित वर्ग के थे। एक अन्य डकैत मलखान सिंह ने 1982 में सरेंडर किया था। सिंह और उसके समकालीन के बारे में लखनऊ के पत्रकार दिलीप अवस्थी कहते हैं कि ये लोग सीधे-साधे लोग थे, मैंने मलखान सिंह की डायरी पढ़ी है, उसमें ज्यादातर खर्चे राशन, साबुन, आम जरूरतों के दिखाए गए थे, जो किसी गरीब परिवार के होते हैं। मलखान कभी अपने आपको डकैत नहीं, बल्कि बागी कहलाना पसंद करता था। बागी होने के बावजूद इन लोगों के साथ जीवन जीने का संघर्ष हमेशा बना रहा। फिर भी वे कुछ उसूलों के साथ अपराध किया करते थे। मसलन उसने कभी किसी गरीब या महिला को नहीं सताया। कई बागियों की अपने इलाके में रॉबिन हुड जैसी छवि थी जो गरीबों की मदद करता है।

अगर आज विकास दुबे के दौर से उस समय की तुलना की जाय तो वह पूरी तरह से बदल चुका है। अब अपराध की कमान पिछड़ी जातियों से निकलकर ब्राह्मण गैंगस्टर्स जैसे शुक्ला, तिवारी, त्रिपाठी के पास चली गई है। इस बदलाव को उत्तर प्रदेश ने 90 के उथल-पुथल भरे दशक में पार कर लिया है।

 

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. गोरखपुर के माफिया डॉन हरिशंकर त‌िवारी 23 साल तक विधायक रहे हैं। इस दौरान उन्हें भाजपा, सपा, बसपा सभी राजनीत‌िक दलों का साथ मिला

. यूपी पुलिस की ‘ठोक दो’ नीत‌ि का ही नतीजा है क‌ि योगी आदित्यनाथ के तीन साल के कार्यकाल में 100 से ज्यादा एनकाउंटर हुए हैं

. श्रीप्रकाश शुक्ला के एनकाउंटर के बाद आई एसटीएफ की रिपोर्ट गैंगस्टर और राजनेताओं के गठजोड़ के बारे में कई अहम खुलासे करती है

. राजनीत‌िक रसूखः गैंगस्टर अतीक अहमद इस समय जेल में, एक समय सपा के सांसद थे

. डाकुओं की दुन‌ियाः मलखान स‌िंह जैसे पहले के दौर के बागी बेहद साधारण जीवन जीते थे

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