हालिया राज्यसभा चुनावों में सबसे निराला नाटक राग-रंग-नृत्य-कीर्तन की अनोखी वैष्णव परंपरा वाले मणिपुर में हुआ। वहां हाल में चार भाजपा विधायकों के इस्तीफा देकर कांग्रेस के पाले में आ जाने से पार्टी कहां तो भाजपा सरकार के अल्पमत में आने और अपनी सरकार बनाने के दावे करने लगी थी, लेकिन विधानसभा अध्यक्ष ने हाइकोर्ट से सदन में जाने पर पाबंदी वाले तीन बागी कांग्रेस विधायकों को वोट देने की मंजूरी देकर खेल पलट दिया। इस तरह एक राज्यसभा सीट भाजपा के पाले में आ गई। गुजरात में तो मार्च के बाद से आठ कांग्रेसी विधायकों के इस्तीफे हो गए थे, जिससे भाजपा राज्यसभा चुनाव वाली चार में से तीन सीटें निकाल ले गई। मध्य प्रदेश में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ 22 कांग्रेसी विधायकों के पाला बदल से न सिर्फ कमलनाथ के बदले शिवराज सिंह चौहान की सरकार इसी कोरोना काल में बन गई, बल्कि भाजपा राज्यसभा की दो सीटें भी निकाल ले गई, कांग्रेस को सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा। कर्नाटक में यह कथित ‘ऑपरेशन कमल’ पहले ही हो चुका था और कोशिशें राजस्थान में भी हुईं लेकिन वहां कामयाबी नहीं मिली। इन ऑपरेशन के जरिए केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने अपना संख्या बल (84) बेहतर कर लिया। अब मोदी सरकार एनडीए सहयोगियों (संख्या 101), नामजद सदस्यों और कुछ सहमना क्षेत्रीय पार्टियों की बदौलत 245 सदस्यीय (फिलहाल संख्या 242) ऊपरी सदन में अपने विधायी कामकाज बहुमत से निपटा सकेगी। कांग्रेस सिमट कर 42 पर आ गई है और 28 दूसरे दलों के सदस्य हैं।
इस बार मार्च में 24 सीटों पर चुनाव होने थे जिसमें पांच निर्विरोध चुन लिए गए और 19 के चुनाव हुए। इसमें भाजपा आठ और कांग्रेस ‘ऑपरेशन कमल’ में भारी-भरकम रकम और पद वगैरह देने के आरोपों के किस्सों पर गौर करने के पहले यह जानना जरूरी है कि क्या लक्ष्य सिर्फ सत्ता को मजबूत या विपक्षी खासकर कांग्रेस की कमजोरी को उजागर करने का ही है या फिर केंद्र को अधिक ताकतवर बनाकर राज्यों के अधिकार सीमित करके उन्हें लाचार बनाना भी ‘न्यू इंडिया’ की नई राजनीति का हिस्सा है, क्योंकि पाला बदल और राज्यसभा चुनावों में धनबल के इस्तेमाल की मिसालें पहले भी रही हैं, मगर इतने बड़े पैमाने पर ऐसे घटनाक्रम कम ही दिखे हैं। ऐसे में, वह पुराना सवाल नई परिस्थितियों में काफी बड़ा बनकर उभर आया है कि राज्यसभा क्या वाकई अपने नाम और मूल उद्देश्य के अनुरूप राज्यों की सभा रह गई है? सवाल यह भी है, जैसा सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी के डायरेक्टर संजय कुमार पूछते हैं, “पिछले कई महत्वपूर्ण मामलों में देखा गया कि गहन समीक्षा और बहस के बिना ही विधेयक पारित करवा लिए गए, कुछ मामलों में तो विधेयक संसदीय समितियों की समीक्षा के लिए भी नहीं भेजे गए। तो क्या ऊपरी सदन में सत्ता पक्ष के कामकाजी बहुमत का अर्थ यह होगा कि विधेयकों की समीक्षा-निरीक्षा का मामला और ढीला पड़ जाएगा?” केंद्र की एनडीए सरकार के बहुमत और बेहद कमजोर विपक्ष की वजह से तो यह आशंका निराधार नहीं लगती है।
दरअसल, केंद्र में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में बाकी मामलों की ही तरह राज्यसभा को लेकर भी रवैया काफी बदला हुआ है। 2014 में केंद्र में ऐतिहासिक बहुमत लेकर आई नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली एनडीए सरकार को शुरुआत से ही राज्यसभा में विपक्ष के विरोध का सामना करना पड़ा। उसके कई विधेयक तो परवान ही नहीं चढ़ पाए और कई मामलों में उसे ऊपरी सदन में जाने से बचने का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। इनमें बेहद चर्चित भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास कानून, 2013 में संशोधन का था। मोदी सरकार निवेश में इजाफे के खातिर उद्योगों के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान बनाना चाहती थी, जो उद्योग जगत की एक बड़ी मांग रही है और आज भी बनी हुई है। खासकर राज्यसभा में विपक्ष के विरोध को भांपकर उसे लगातार चार बार अध्यादेश जारी करना पड़ा। आखिर 2015 में दिल्ली और बिहार चुनावों में हार के मद्देनजर उस अध्यादेश को छोड़ना पड़ा। दूसरा चर्चित मामाला आधार कानून में संशोधन का है, जिसे लोकसभा में धन विधेयक के रूप में पेश किया गया, ताकि राज्यसभा में विरोध का कोई असर न हो। धन विधेयक राज्यसभा में गिर जाने के बाद दोबारा लोकसभा उसे पास कर सकती है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी गया। ऐसे और भी कई मामले हुए।
हालांकि 2014 लोकसभा चुनावों में जीत के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में लगतार जीत से राज्यसभा में भाजपा और एनडीए दलों की संख्या कुछ बेहतर हुई। लेकिन 2018 में कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, पंजाब जैसे राज्यों में विपक्ष का पलड़ा भारी हुआ, तो हालात बदलने लगे। फिर कर्नाटक और इस साल मध्य प्रदेश में खासकर कांग्रेस विधायकों के पाला बदल से स्थितियां बदलीं। हालांकि इस पाला बदल में सैकड़ों करोड़ रुपए के लेनदेन का भी आरोप विपक्ष ने लगाया। वैसे, कांग्रेस के विधायकों और नेताओं के पाला बदल के उदाहरण पूर्वोत्तर से लेकर तमाम राज्यों में 2014 के बाद बड़े पैमाने पर हुए। गोवा, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश के उदाहरण तो गजब के हैं, जहां चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी कांग्रेस और सरकार बनी भाजपा या भाजपा गठबंधन की। फिलहाल, मणिपुर में एक बार फिर मामला फंसा है।
लेकिन असली सवाल वही है, जिसकी ओर तृणमूल कांग्रेस के नेता दिनेश त्रिवेदी इशारा करते हैं। वे कहते हैं, “पाला बदल की राजनीति के जरिए राज्यों में सरकारें हथियाना अनैतिक राजनीति है क्योंकि यह जनादेश के खिलाफ है।” लेकिन सवाल यह है कि राज्यसभा के आंकड़े दुरुस्त करने के लिए भी ‘ऑपरेशन कमल’ का क्या मकसद है। इसका निश्चित ही अर्थ है कि राज्य के अधिकारों को सीमित करने वाले कानून पास कराकर सत्ता का केंद्रीकरण किया जाए। इस सरकार को ‘एक देश, एक बाजार’ की तरह ही ‘एक देश, एक कानून’ में यकीन लगता है। नाम न छापने की शर्त पर एक अन्य नेता बताते हैं कि कानून-व्यवस्था का मामला राज्यों का है, लेकिन यूएपीए और एनआइए के प्रावधानों में संशोधन के जरिए केंद्र ने राज्यों के अधिकार सीमित करने का हिसाब बना लिया है। वैसे, हाल में कोरोना महामारी के दौर में कई अध्यादेश ऐसे लाए गए हैं जिन पर राज्यों और विपक्ष को खास आपत्ति हो सकती है। एक अध्यादेश में सरकार ने कृषि उपजों की खरीद-बिक्री को राज्य सरकारों की मंडियों से बाहर निकाल लेने की व्यवस्था की है, जिससे निजी क्षेत्र को इन मंडियों के बाहर अनाज खरीदने और देश भर में कहीं व्यापार करने की छूट मिल जाएगी। इससे मंडियों का शुल्क भी नहीं देना पड़ेगा, जो राज्यों की कमाई का एक अहम हिस्सा होता है। इसी तरह दूसरा अध्यादेश कांटैक्ट फार्मिंग की इजाजत देता है। इसमें निजी कंपनियां किसानों से सीधे मुखतिब हो सकेंगी, जिसमें राज्यों की भागीदारी खास नहीं होगी। इसके अलावा श्रम कानूनों में बदलाव भी लंबित है, जिसमें हाल में उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने मजदूरों के हक सीमित करने की व्यवस्था की है, ताकि बड़े पैमाने पर औद्योगिक निवेश को आकर्षित किया जा सके। केंद्र पहले ही 44 श्रम कानूनों को चार श्रम संहिता में बदलने का फैसला कर चुका है, जिसमें एक वेतन और पारिश्रमिक संबंधी विधेयक संसद के पिछले शीतकालीन सत्र में पारित भी हो चुका है।
इन सभी मामलों को आर्थिक सुधार कार्यक्रम का हिस्सा बताया जाता है, लेकिन इसका ज्यादातर लाभ कारपोरेट क्षेत्र के जिम्मे ही जाते दिखता है। केंद्रीकरण के मामले और भी हैं। संसद खुलती है तो हाल में दिल्ली के संसद भवन और मंत्रालयों वाले सेंट्रल विस्टा में बड़े पैमाने पर फेरबदल की सरकारी परियोजना, लगभग 54 खदान परियोजनाओं की मंजूरी में वन और पर्यावरण नियमों की उपेक्षा के मामले में विपक्ष सरकार को घेर सकता है। ये सभी फैसले कोरोना महामारी के दौर में लिए गए हैं।
लिहाजा, राज्यसभा में पहली दफा एनडीए सरकार को कामकाजी बहुमत से निश्चित ही आसानी हो सकती है। आखिर 2019 में भी और बड़े बहुमत के साथ जीतकर आई मोदी सरकार को संविधान के अनुच्छेद 370 को बेमानी बनाकर जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में बांटने के लिए भी लगभग आखिरी वक्त पर राज्यसभा में बहुमत जुगाड़ करना पड़ा था। तेलुगुदेशम के तीन राज्यसभा सदस्य भाजपा के पाले में आ गए थे। यह दीगर बात है कि आंध्र प्रदेश में भाजपा के विधायक नगण्य हैं, जो राज्यसभा सदस्यों का चुनाव करते हैं। बाकी छोटे और क्षेत्रीय दलों को भी मैनेज करना पड़ा और कुछ ने राज्यसभा में मतदान का बॉयकॉट करके सरकार की राह आसान की।
बहरहाल, राज्यसभा का इस तरह स्वरूप बदलना हमारे संघीय गणतंत्र के लिए निश्चित ही चिंता का विषय है। राज्यसभा राज्यों का ख्याल रखेगी, इसलिए हमारे यहां उसे ऊपरी सदन कहा गया है। 1990 के दशक में इसी चिंता को ध्यान में रखकर वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (तब वित्त मंत्री) के असम से राज्यसभा में चुनकर आने पर आपत्ति उठाई थी और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। लेकिन उसके बाद की एनडीए और यूपीए सरकारों के दौर में तो जैसे यह सवाल ही बेमानी होता चला गया। अब तो मानो राज्यसभा का चरित्र ही बदलने लगा है।