साहित्य में किसी भी पात्र का जन्म अकस्मात नहीं होता, और न ही वह महज कोरी कल्पना ही होता है। उसकी रचना में घटनाओं और पात्रों का जन्म और विकास होता है- जिसे वह कभी सौंधी और मुलायम गुलकंद की तरह पान पर उतार देता है। कुछ ठीक अभिव्यक्ति की छटपटाहट नजर आती है (किताब चाक पर समय, पृष्ठ 45) दीवार पर टिके तकिये पर तन कर बैठे, 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और 2001 में ‘व्यास सम्मान’ से सम्मानित रमेशचंद्र शाह कहते हैं, “चलो पढ़कर सुनाता हूं अपने पिता के बारे में।”
इसका शीर्षक है तुम्हारी कहानी।
तुम्हारी कहानी
उस हुक्के की कहानी है
जो उस दिन दुकान की
एक ज्यादा ऊंची सीढ़ी पर
जल्दी में मेरे हाथ से छूट
चकनाचूर हो गया था
पर तुम्हारे लिए नहीं।
तुम्हारे लिए तो वो सिर्फ पांच टुकड़े थे
जिन्हें तुमने फौरन
एक तार की मदद से जोड़ के
फिर हुक्का बना लिया था।
तार भी तो आखिर वह
तुम्हारे ही सितार का
भूतपूर्व हिस्सा था।
पिता वह सितार का एक तार जो कोई विद्रोही नहीं, वह दोस्त जो परिवार, समाज, व्यवस्था, तथाकथित मर्यादा – सबके प्रति विद्रोह नहीं करता है। वह तो बस परिवार, समाज, व्यवस्था को पूरी ईमानदारी से अपने जीवन के सुख-दुख से गुजरना चाहता है।
चाक पर समय को पढ़ते हुए वे आगे जोड़ते हुए कहते हैं
यहीं इसी जगह तुमने
सुमित्रानंदन पंत और गोविन्दवल्लभ पंत के बीच
फर्क करना सिखाया था
तब भी बिलकुल इसी तरह
खिलखिला रहा था हिमालय जब
तुमने मुझसे कहा था
‘कुछ चीजें अमर होती हैं
कवियों के कारण जैसे
हिमालय और दण्डकारण्य
राम और कृष्ण...’
और कवि कैसे बनते हैं ?'
‘और कैसे बनते हैं? डाकू रत्नाकर कैसे
वाल्मीकि बन गया!
उतनी बड़ी चोट खाके
कोई भी कवि बन जाए...
पर वैसा कहां होता है?
हर आदमी रत्नाकर नहीं होता।’
दरअसल पिता के बनने की कहानी, उनके अंतर्मन की विभिन्न परतों की कथा क्रम के जरिये की गई परिक्रमा ही तो पिता है। जो एक-दूसरे से अलग नहीं है, वह हम सब के जीवन का पिता ही तो है।
(लेखक हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। जैसा अनूप दत्ता को बताया)