बलात्कार महज एक जघन्य अपराध नहीं है। यह सत्ता के ढांचों के भीतर औरतों की गुलामी और उनके साथ की जाने वाली हिंसा को वैधता प्रदान करने की संस्कृति को रचने का एक जरिया भी है। चाहे घर हो, दफ्तर या सार्वजनिक स्थान, औरतों को महज देह मानकर बरता जाता है, जिसके पीछे यह सोच काम करती है कि वे आदमियों के बराबर नहीं होती हैं। यह उनका अमानवीकरण है। औरतों को इंसान न मानना ही बलात्कार की संस्कृति की बुनियाद डालता है। भारतीय सिनेमा लंबे समय से बलात्कार की संस्कृति को वैधता दिलवा रहा और प्रचारित कर रहा है। अश्लील चित्रण के माध्यम से औरतों को भोग्य और काम्य वस्तु की तरह दिखलाना, नायक और खलनायक के बीच सत्ता-संघर्ष में औरत को चारे की तरह बरतना, पुरुषों के बरअक्स औरतों के ऊपर नियंत्रण की पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देना और मर्दों को उनका संकटमोचन बनाकर दिखलाना- इन सब हरकतों से हिंदी सिनेमा ने अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों में बलात्कार की संस्कृति को उकसाने का काम किया है- चाहे वे गीत हों, संवाद या फिर दृश्य।
पचास के दशक के सिनेमा में नेहरू का समाजवादी आशावाद औरतों के किरदार को केंद्र में रखता था। पितृसत्ता ने साठ के दशक से अपना सिर उठाना शुरू किया। फिर सत्तर के दशक से औरतों को सहायक भूमिकाओं तक समेट दिया गया, जो केवल मर्दाना अफसानों को पुष्ट करने के काम आती रहीं। हर जगह यही कहानी होती थी कि किसी आदमी यानी हीरो की प्रेमिका या मां पर बुरी नजर डालने या कुकृत्य का भागी पुरुष विलेन बनकर उभरता था। फिर हीरो की जिंदगी का मकसद उस खलनायक को खत्म करके बदला पूरा करना होता था। इस तरह वह औरतों का संकटमोचन बनकर उभरता। इस तरह से औरतों के किरदार की अपनी चाहतें और भूमिकाएं खत्म की गईं। उसे मर्दों के संदर्भ में परिभाषित किया जाने लगा। वह हीरो को गढ़ने के काम में आने लगीं।
टीवी पर रामायण और महाभारत के जो संस्करण प्रसारित हुए, वे भी इसी खांचे में ढले हुए थे। शूपर्णखा को उसकी कामना के लिए दंडित होना पड़ा। उसकी नाक काट दी गई (स्तन और कान भी)। सीता को अपनी शुचिता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा। इस तरह औरतों को मर्दों की मिल्कियत बताया गया, जिसका काम पुरुषों की सेवा और भक्ति में समर्पित होने के अलावा कुछ भी नहीं था। द्रौपदी को जब सरे दरबार अपमानित किया गया, तो उसे बचाने के लिए कृष्ण आए। इन तमाम चित्रणों में औरत का अमानवीकरण किया जा रहा था। उसका अपना कोई कर्तृत्व और वजूद नहीं था। उसके साथ होने वाली घटनाएं कथानक को गति देने के काम आती रहीं। इस परिप्रेक्ष्य में उसकी पहचान और उसकी पीड़ा जैसी भी उभर कर आई, वह महज इत्तेफाक रहा।
यह गुलामी भाषा के माध्यम से सबसे स्पष्ट उभरी है। कभी खुशी कभी गम (2001) में ‘पति’ का अर्थ ‘स्वामी’ के रूप में सम्प्रेषित होता है। जब वह पति परमेश्वर बन जाता है, तो स्वामी भगवान हो जाता है। किसी रिश्ते में यदि एक पक्ष ईश्वर है तो स्वाभाविक रूप से दूसरा उसका भक्त ही होगा। समूचे हिंदी सिनेमा में यह बात बार-बार इस तरह से दोहराई गई है कि हमारी सांस्कृतिक स्मृति में पैबस्त हो चुकी है। हरजाई (1981) में ‘तेरे लिए पलकों की चादर बुनूं’ से लेकर दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1994) में ‘तेरे हाथ से पीकर पानी, दासी से बन जाऊं रानी’ तक चौतरफा पत्नियों की गुलामी का उत्सव ही मनाया गया है। बलात्कार की संस्कृति केवल वैवाहिक संबंध में कायम असमानता से नहीं आती, वह रूमानी रिश्ते में भी उजागर हो रही है। मसलन, जब बादशाह यह पंक्तियां गाता है कि ‘घूर के देखे जो कोई तुझको कान पे उसके चार लगा दूं’, उस वक्त औरत की आवाज में बस यही चाह होती है कि ‘डीजे वाले बाबू’ उसकी पसंद का गाना बजा दें। यह लैंगिकता में निहित सत्ता-संबंध को पुष्ट करने वाली बात है। एनिमल (2023) और कबीर सिंह (2019) जैसी फिल्मों में इस प्रवृत्ति का उत्कर्ष देखने को मिलता है, जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर खूब कमाई की थी। इन दोनों में प्रेम का अतिरेक औरत के ऊपर स्थूल मिल्कियत और उसके खिलाफ हिंसा में अभिव्यक्त होता है और उसे सही ठहराता है।
परदे पर कामना चाहे मर्द के लिए हो या औरत के लिए, दोनों ही स्थितियों में यौनिक अश्लीलता का निशाना औरत की देह ही बनी है। यह अश्लीलता आदमी की नजर से पैदा होती है। जिस्म (2003) और पाप (2003) जैसी फिल्में औरत की कामना का दोहन करते हुए उसे औरत की देह को बेचने का माध्यम बनाती हैं और यह बात दृश्य, मौखिक संवाद व गीतों के रास्ते प्रकाशित होती है। जैसे, ‘चिकनी चमेली’ किस्म के ‘आइटम’ गीत मर्दों की कामना को संतुष्ट करने के लिए रचे जाते हैं जिनमें कैमरा औरत की देह को इतने करीब से दिखाता है कि उसे भोग की वस्तु बनाकर छोड़ देता है। सिनेमेटोग्राफी मर्दों के देखने की नजर को पूरी तरह बदल डालती है। आंख और विषय के बीच की कम होती दूरी विषय के वजूद को हर लेती है। गीतों में नाचने की मुद्राएं और कैमरे की आंख यही काम करती है। मसलन, स्त्री 2 (2024) के ‘आज की रात’ वाले गाने में नाचने की मुद्राएं पूरी तरह से मर्दों के उपभोग को ध्यान में रखकर गढ़ी गई हैं। दबंग 2 में औरत को मुर्गी बनाकर पेश किया गया जिसके बारे में खुद औरत कह रही है ‘मैं तो तंदूरी मुर्गी हूं यार, गटका ले सैयां एलकोहल से।’ बज़ में यही वस्तुकरण इस पंक्ति में उभरता है, ‘जहां से होना चाहिए वहीं से है तू थिक।’
फिल्मों में औरतों को माल बनाकर दर्शाने का यह सिलसिला बहुत लंबा है, जिसमें उसकी अपनी मर्जी का सम्मान कभी नहीं किया गया। जुगनू (1973) में नायक कहता है ‘तेरा पीछा ना मैं छोड़ूंगा सोणिये’, तो 1998 में आई जब प्यार किसी से होता है में गीत के बोल हैं ‘अब तू हां कर या ना कर तेरी मर्जी सोणिये, हम तुझको उठाकर ले जाएंगे, डोली में बिठाकर ले जाएंगे।’ यही नायक 2013 में फटा पोस्टर निकला हीरो में कहता है, ‘खाली-पीली रोकने का नहीं।’ ये सारे गीत इसी बात पर बार-बार बल देते रहे हैं कि औरत की मर्जी का कोई मतलब नहीं है। इसका एक अर्थ यह भी प्रचारित किया गया है कि लड़की की ‘ना’ में ही उसकी हां छुपी है। पीढि़यों तक पुरुषों को यही सिखाया गया कि औरत जब ना कहती है, तो वास्तव में उसका वह आशय नहीं होता और आप आसानी से उसके ऊपर अपना दावा ठोंक सकते हैं। यह ‘दावा ठोंकने’ का खयाल दरअसल उसी सत्ता के ढांचे से पैदा होता है जो यह मानकर चलती है कि औरत का अपना कोई स्वतंत्र वजूद नहीं होता।
जब सहमति का ऐसा खुला उल्लंघन होता है, तो शारीरिक निकटता से जुड़ी हरकतों को वैधता मिलने लग जाती है। यहां औरत का विरोध बड़ी आसानी से नजरअंदाज कर दिया जाता है। उसके इनकार का मर्द बुरा मान जाते हैं। फिर वे औरत को उसकी ‘औकात’ दिखलाने के लिए उस पर हमला करते हैं। यह ‘औकात’ दरअसल समाज में चले आ रहे औरतों की गुलामी के विचार को ही पुष्ट करता है।
फिल्मी गीत और संवाद हमारी याददाश्त का अंग बन चुके हैं। हमारे सांस्कृतिक प्रतीक यहीं से आ रहे हैं। अपने भड़काऊ संगीत के सहारे ये हमारे दिमाग में घर कर जाते हैं। इनकी छवियां हमारी आंखों में बस जाती हैं। यही वजह है कि ऐनिमल कामयाब हो जाती है क्योंकि उससे पहले हमें कबीर सिंह दिखाकर दिमागी रूप से तैयार किया जा चुका था। जब तक ऐसे गीत, संवाद और फिल्में रची जाती रहेंगी, औरतों के प्रति हिंसक बरताव को वैधता मिलती रहेगी। हम जैसी फिल्मों के चक्कर में फंसे हुए हैं उनके मुकाबले उम्मीद है कि लापता लेडीज (2023) जैसी फिल्में ज्यादा कारोबार करें, जो बहुत महीन और संवेदनशील ढंग से औरतों की कहानियां कह रही हैं।