दिल की गहराइयों में उतर जाने वाली रसीले स्वरों में भीगी, संगीत मार्तंड पंडित जसराज की आवाज अब खामोश हो गई है। संगीत रसिकों के लिए वे ऐसा खालीपन छोड़ गए हैं, जिसकी भरपाई शायद नामुमकिन है। अमेरिका के न्यूजर्सी में उनका अपने निवास पर दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। पद्मविभूषण से अलंकृत पंडित जी 90 साल के थे। संगीत जगत में उनके समकालीन गायक पंडित भीमसेन जोशी, पंडित कुमार गंधर्व, किशोरी अमोणकर आदि जैसी महान विभूतियों के बीच जसराज ने गायन के क्षेत्र में अपनी मौलिक जगह बनाई। खयाल गायिकी में उनकी रसभरी और कोमल आवाज में जो खनक और रंगत थी, उससे वे लोकप्रियता की सीढ़ियां चढ़ते चले गए। उन्होंने अपनी बुद्धि और कल्पना से गायन को नया रूप और विस्तार दिया।
पंडित जसराज के पारिवारिक घराने मेवाती में हवेली भक्ति संगीत की विशेष प्रधानता है। हवेली संगीत की जड़ राजस्थान के नाथद्वारा मंदिर से जुड़ी है। इस घराने की गायिकी में कुछ खास बातें हैं जैसे, स्वरों के लगाव की स्पष्टता, छोटी-छोटी मुरकियां, जमजमा, मींड के स्वरों की खास निकास आदि। यह सारी विशेषता पंडित जसराज के गाने में दिखती थी।
बचपन में पहली बार उन्होंने अख्तरी बाई की कशिश भरी आवाज में, ‘दीवाना बनना है, दीवाना बना दे’ सुनी। इसके बाद उनके अंदर गायक बनने की रुचि जगी। हालांकि संगीत के संस्कार उन्हें पिता और गायक पंडित मोतीराम से बचपन से ही मिले थे। बचपन में जसराज में लय की गहरी समझ को देखकर मंझले भाई प्रताप नारायण ने उन्हें तबला सिखाना शुरू किया। वे जल्द कुशल तबलावादक के रूप में उभरकर सामने आए। संगीत के सुरों में रमने की चाह को देखकर बड़े भाई पंडित मणिराम ने घराने की तालीम जसराज को देनी शुरू की। नैसर्गिक प्रतिभा के धनी पंडित जसराज कम समय में गायन में पारंगत हो गए और अपनी पहचान बना ली। तबला छोड़कर एक बार जब उन्होंने भाई से गाना सीखना शुरू किया, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और वे गायन में ही पूरी तरह से लीन हो गए। प्रखर गायक बनने के बावजूद तबले से उनका इश्क हमेशा बना रहा।
उनके गाने पर परिवार के आध्यात्मिक गुरु जनार्दन स्वामी का बहुत प्रभाव था। पिता की मृत्यु और अचानक बड़े भाई की आवाज का चले जाना पंडित जसराज के लिए बड़ा सदमा और संकट की घड़ी थी। गुरु जनार्दन स्वामी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि मां सरस्वती स्वयं भाई को आवाज देंगी। सचमुच मां की कृपा हुई और उनके बड़े भाई दोबारा गाने लगे।
उनके जमाने में गायकों के सामने संगतकारों की ज्यादा कदर नहीं थी। यह बात पंडित जी को बहुत नागवार गुजरती थी। गायन-वादन के मुख्य कलाकार और संगतकार के बीच इस भेदभाव के खिलाफ पंडित जसराज ने एक मुहिम छेड़ी और दोनों को बराबर दर्जा दिलाने में सक्रिय भूमिका निभाई।
1951 से ही उन्होंने आकाशवाणी कोलकाता से कार्यक्रम देना शुरू कर दिया। संगीत का उनका पहला कार्यक्रम 1952 में नेपाल दरबार में हुआ था। वहां उन्होंने संगीत रसिकों से खासी सराहना अर्जित की। उनके करिअर में महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब, मुबंई में हर साल होने वाले प्रतिष्ठित हरिदास संगीत सम्मेलन में उन्हें गाने का न्यौता मिला। वहां मौजूद संगीत की बड़ी-बड़ी हस्तियां उनके गायन की मुरीद हो गईं। पंडित जसराज माता भवानी के भक्त थे। जीवनभर वे राग अडाना में माता कालिका महाकाली महरानी गाते रहे।
गायन के क्षेत्र में शायद वे पहले गुरु थे, जिन्होंने खुलकर अपने शिष्यों को गाने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके शिष्यों में संजीव अभ्यंकर, कला रामनाक और कई और प्रतिभान गायक हैं। पंडित रविशंकर के बाद वे दूसरे कलाकार थे, जिन्होंने हिंदुस्तानी संगीत को देश और विदेश में लोकप्रिय बनाया। कुमार गंधर्व के समकालीन जसराज ने भी सगुण और निर्गुण भजन गाए। कार्यक्रम का समापन वे हमेशा ‘ओम नमोः भगवते वासुदेवाय’ या ‘ओम नमःशिवाय’ से करते थे। पंडित जी के परिवार में उनकी पत्नी, गायिका बेटी दुर्गा और संगीतकार बेटा शारंग देव है।
(लेखक वरिष्ठ संगीत समीक्षक हैं)