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10 नवंबर 2025 · NOV 10 , 2025

फिल्मः दृढ़, शांत और अमिट रेखा

हाल में 71 साल की हुईं अभिनेत्री शायद इकलौती ऐसी कलाकार हैं, जिन्होंने सिनेमा की हर धारा चाहे मुख्यधारा की फिल्म हो या समांतर या नितांत व्यावसायिक हर तरह की भूमिका में सहजता से काम किया
सदाबहार रेखा

अपने पति के पिछले प्रेम के प्रति संवेदनशील, एक परिपक्व विवाहित स्‍त्री अपने पति महेन्द्र के लिए एक सीमा तय करती है। पति जब वह सीमा लांघता है, तो वह उसे दोबारा कभी न आने के लिए रेलवे के वेटिंग रूम में पूर्व पति के प्रति दिल में प्यार होने के बावजूद सामान उठाती है और उसे छोड़ कर चल देती है। यही है गुलजार की इजाजत (1987) की गरिमामयी, समझदार और मजबूत सुधा। इसके विपरीत, ऋषिकेश मुखर्जी की खूबसूरत (1980) की मंजू थोड़ी विद्रोही, चंचल, बिना मां की पिता की दुलारी छोटी बेटी, जिसे अनुशासन और नियमों से ज्यादा आजादी प्यारी है। वह उम्र की सीमा से परे दोस्ती निभाती है और अधिकार से ज्यादा मानवीय इच्छाओं, शांति और हंसी को पहले पायदान पर रखती है। मंजू अपने घर में परिवर्तन लाने की कठिनाई को उस सामाजिक परिवर्तन से भी अधिक गहराई से दिखाती है, जिसकी बात अक्सर की जाती है।

 रेखा ने परदे पर तवायफ के कई रंगों से लेकर पारंपरिक आदर्श गृहिणी तक हर रूप जिया। उन्हें किसी खांचे में बांधना संभव नहीं

 रेखा ने परदे पर तवायफ के कई रंगों से लेकर पारंपरिक आदर्श गृहिणी तक हर रूप जिया। उन्हें किसी खांचे में बांधना संभव नहीं

राकेश रोशन की खून भरी मांग (1988) की आरती सक्सेना को कौन भूल सकता है। यह ऐसी फिल्म थी, जिसने स्त्री के भीतर के प्रतिशोध को दिखाया। भले ही फिल्म में कई रूढ़ धारणाएं हैं, फिर भी इस फिल्म ने उस विचार को आगे बढ़ाया था कि स्त्रियां अपने दर्द, अपमान और उन पर या उनके परिवार पर किए गए अत्याचार का बदला ले सकती हैं।

मीरा नायर की कामसूत्र: ए टेल ऑफ लव (1996) में रसा देवी ने गरिमा और मोहकता की जुगलबंदी का प्रतीक सारे कीर्तिमान तोड़ दिए, जो अपनी शिष्याओं को कामसूत्र का ज्ञान देती है।

हिंदी सिनेमा की सबसे लोकप्रिय, रहस्य के आवरण में लिपटी रहने वाली अभिनेत्री रेखा की फिल्मोग्राफी में से ये चार फिल्में बताती हैं कि उन्होंने कई बार परदे पर महिलाओं के चित्रण की सीमाओं को तोड़ा। न सिर्फ किरदारों के जरिए, बल्कि अभिनय के जरिए भी। ये वे महिलाएं हैं, जिनके पास क्षमता है, जो खुद सोचती हैं और फिल्म की कहानी को अद्भुत मोड़ दे सकती हैं। उनके किरदार मानवीय भावनाओं और उसके कारण होने वाले बदलावों की विस्तृत शृंखला हैं। जिन वर्षों में उन्होंने अपना अधिकतम काम किया, निस्संदेह ये उनके सबसे अच्छे साल रहे। वे एकमात्र अभिनेत्री रही, जिन्होंने वैकल्पिक, मुख्यधारा और व्यावसायिक सिनेमा की दुनिया को सहजता से अपनाया। एक ही समय में उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी, यश चोपड़ा, गिरीश कर्नाड, श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों के साथ काम किया।

रेखा की फिल्मोग्राफी ने न केवल स्त्रियों की कहानियों को सहज सीमाओं और रूढ़ छवियों से बहुत आगे तक खोला, बल्कि उसकी अनोखी बात यह भी है कि उन्हें किसी एक खांचे में बांधना असंभव है। रेखा ने परदे पर तवायफ के कई रंगों से लेकर पारंपरिक, आदर्श गृहिणी तक हर रूप जिया। रेखा को किसी एक श्रेणी में रखना संभव नहीं, वे अपने समय से आगे रही हैं।

सलीम-जावेद की लेखन-शैली वाले सिनेमा में महिलाओं की भूमिका मुख्यतः अक्सर गुस्सैल पुरुष नायकों की कहानी आगे बढ़ाने के लिए होती थी। महिलाएं, भले ही कामकाजी हों लेकिन वे रूढ़िवादी अलगाव और रूपकों में फंस जाती थीं। या तो वे थकी हुई माएं होती थीं, जो निर्दयी दुनिया के अत्याचार सहती हैं या आर्थिक और यौन रूप से स्वतंत्र महिलाएं, जिन्हें ‘खलनायिका’ का दर्जा दिया जाता था या प्रेमिकाएं, जो पुरुषों को सही रास्ते पर ले जाने का काम करती थीं। ऐसे परिवेश में रेखा के स्त्री पात्र महिलाओं के लिए तीन महत्वपूर्ण बातें लेकर आए, स्क्रीन पर पर्याप्त मौजूदगी, जिससे स्त्रियों की कहानियां और उनके संघर्ष भी दिखाई पड़े। अभिनेत्रियों की वह शक्ति, जिसके बल पर वे पारंपरिक प्रेमकथाओं से परे दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच सकें और तीसरी, बने बनाए सांचों से बाहर निकलने का साहस, जिनसे अब तक स्त्रियों को देखा और परिभाषित किया जाता था।

उदाहरण के लिए, गुलजार की घर (1978) में रेखा ने बलात्कार पीड़िता की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म में स्त्री के साथ जबरदस्ती का अत्यंत संवेदनशील और मार्मिक चित्रण है। एक प्रेम करने वाली पत्नी से यौन हिंसा की शिकार औरत तक, रेखा का यह रूपांतरण उनके अद्भुत अभिनय कौशल का प्रमाण था। घर ने न केवल नवविवाहित जोड़े के प्रेम को कोमलता से चित्रित किया, बल्कि यह भी दिखाया कि बलात्कार का असर उसके अंतरंग साथी पर भी पड़ता है। अपने समय में यह लैंगिक विमर्श की दिशा में बहुत ही महत्वपूर्ण फिल्म थी।

रेखा की फिल्मों में एक और अनोखा पहलू है, तवायफ का चित्रण। उन्होंने बहुत गहराई, कुशलता और मानवीयता के साथ तवायफ के किरदार निभाए हैं। प्रकाश मेहरा की मुकद्दर का सिकंदर (1978) यह भावनाएं दिखाने वाली पहली फिल्म है। सिकंदर से बहुत प्यार करने वाली, उसके प्रति सहानुभूति रखने वाली जोहरा बाई की भूमिका में, उन्होंने एकतरफा प्यार के अकेलेपन और दर्द को साकार किया। 1981 रेखा के लिए महत्वपूर्ण साल रहा। उस साल दो महत्वपूर्ण फिल्में रिलीज हुईं उमराव जान और सिलसिला। इन फिल्मों ने उनके करिश्मे में चार चांद लगा दिए। लखनऊ की खूबसूरती में लिपटी उसकी तहजीब भरी भाषा, समय, स्थान और इतिहास की मोहकता से सजी उमराव जान अपने परिवेश में सत्ता की राजनीति को प्रतिबिंबित करती है। यह दिखाती है कि उस दौर में स्त्रियां किस तरह उस सत्ता-जाल में फंसी हुई थीं। इस फिल्म में तवायफ पुरुष की नजरों से आगे बढ़कर खुदमुख्तार औरत बन गई। दर्शकों ने घुटन भरी जिंदगी देखी, बाहर की दुनिया ने शान और खूबसूरती देखी।

गिरीश कर्नाड की फिल्म उत्सव (1984) में तवायफ का एक बिल्कुल अलग रूप देखने को मिलता है। शूद्रक के मृच्छकटिकम् पर आधारित इस फिल्म में हम उस समय की मुख्यधारा की बड़ी स्टार रेखा को वसंतसेना की भूमिका निभाते हुए देखते हैं। वसंतसेना प्रभावशाली महिला है, जो धनवान है और अपने दिल की मालिक है। वह चारुदत्त से प्रेम करती है और उस भावना और निष्ठा को दिखाती भी है। गिरीश कर्नाड के निर्देशन में वसंतसेना को हम प्रलोभन देने वाली स्त्री के रूप में नहीं, बल्कि गहरे प्रेम में डूबी हुई स्त्री के रूप में देखते हैं। फिल्म के डिजाइन और संदर्भ ने इसे स्मृतियों में सचमुच अद्वितीय बना दिया है।

रेखा की खामोशी भी परदे पर उनके संवादों जितनी ही महत्वपूर्ण हैं। यश चोपड़ा की सिलसिला (1981) और गुलजार की इजाजत (1987) पर गौर करें। सिलसिला में चांदनी के रूप में रेखा ने तीव्र, गहन रोमांटिक लेकिन शांत विद्रोही का रूप धारण किया। एक बार परिस्थितियों के कारण अपने प्यार को खोने के बाद, वह उसे दोबारा खोने से इनकार कर देती है और अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार रहती है। जया बच्चन के साथ एक खास दृश्य में, रेखा चुपचाप खुद को ‘‘वो मेरा प्यार है’’ कह कर गहरे प्रेम में डूबी महिला के रूप में प्रस्तुत होती हैं। इस संवाद में कोई नाटकीयता नहीं, कोई अतिशयोक्ति नहीं, बस एक साधारण तथ्य। जया बच्चन कैमरे की ओर देखती हैं, रेखा नहीं। इसी फिल्म के दूसरे दृश्य में, अमित (अमिताभ बच्चन) की दुर्घटना के बाद, जब चांदनी उससे अस्पताल मिलने जाती है और वे पहली बार आमने-सामने आते हैं, तो बच्चन और रेखा दोनों केवल एक-दूसरे को देख रहे होते हैं। अपनी खामोशी में यह दृश्य बहुत कुछ कह जाता है।

इजाजत (1987) ऐसी फिल्म है, जहां खामोशी भी किरदार है। सुधा की गरिमा और संयम माया (अनुराधा पटेल) की अनिश्चितता और अपरिपक्वता को संतुलित करता है। एक महिला के रूप में रेखा, जो अपने पति की पूर्व प्रेमिका की यादों के साथ हर दिन गुजारती है, अत्यंत धैर्य, प्रेम, गर्मजोशी और गरिमा के साथ। उनका अभिनय द्वेष से प्रेरित नहीं है, बल्कि उस स्थिति से खुद को शांतिपूर्वक निकालने के लिए है, जिसमें वह खुद को शामिल नहीं मानतीं। इजाजत रेखा के बेहतरीन अभिनयों में से एक है, जिसमें खामोशी, दूरी और शारीरिक भाषा का सहजता से इस्तेमाल किया गया है।

हिंदी सिनेमा में अच्छे कलाकार बाद में स्टार बन गए। वे साहसी थे, उन्होंने प्रयोग किए और ऐसी फिल्में बनाईं, जो सिनेमाई विरासत का हिस्सा हैं। कुछ कलाकार आएंगे और जाएंगे। कुछ भुला दिए जाएंगे और कुछ याद रखे जाएंगे। लेकिन रेखा हमेशा एक थीं और एक ही रहेंगी।