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भारत से दूर होंगे कश्मीरी

मोदी सरकार ने विधानसभा चुनाव जीतने के मकसद से यह कदम उठाया
अगर यह कदम जम्मू-कश्मीर के लोगों के हित में है तो वहां मार्शल लॉ क्यों लगाया गया

आज मैं भविष्य को लेकर आशंकित और बेहद चिंतित हूं। सब कुछ एक झटके में खत्म हो गया है। जम्मू-कश्मीर राज्य की जगह अब दो केंद्रशासित प्रदेश हैं, और वहां जैसे मार्शल लॉ लागू है। मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद घाटी और देश के बाकी हिस्सों से प्रतिक्रिया में जो बड़ा अंतर है, वह काफी अहम है। घाटी में लोग बेहद आहत हैं, लेकिन शेष भारत में मिठाइयां बांटी जा रही हैं। यह भारत के “दोनों हिस्सों” में अंतर को दर्शाता है, जो ठीक नहीं है। यह बिलकुल नई शुरुआत है, जो खासकर घाटी के लोगों को स्वीकार्य नहीं है। अगर यह कदम स्वागतयोग्य और जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख के लोगों के हित में है, तो वहां मार्शल लॉ जैसा क्यों लगाया गया है? सरकार ने 38,000 सुरक्षाकर्मियों को वहां क्यों भेजा? मेरे विचार से मोदी सरकार ने वहां विधानसभा चुनाव जीतने के मकसद से यह कदम उठाया है।

कश्मीर समस्या से निपटने में दिल्ली की सरकारों ने अनेक गलतियां की हैं। सिर्फ अटल बिहारी वाजपेयी ने “इंसानियत” का दृष्टिकोण अपनाकर कुछ रचनात्मक कदम उठाए थे। इसलिए जम्मू-कश्मीर में आज भी उनकी प्रशंसा की जाती है। वाजपेयी का दृष्टिकोण बिलकुल अलग था। वह राज्य के लोगों को भरोसे में लेकर ही कुछ करते, अनुच्छेद 370 को खत्म नहीं करते। उनका नजरिया इंसानियत का था और वह बल के इस्तेमाल में भरोसा नहीं करते थे। अगर 2004 के बाद वाजपेयी दोबारा प्रधानमंत्री बनते, तो कश्मीर समस्या के समाधान के लिए उन्होंने ठोस कदम उठाया होता।

हालांकि अनुच्छेद 370 को खत्म करना भाजपा का महत्वपूर्ण वादा था, लेकिन वाजपेयी कभी इसकी स्वीकृति नहीं देते, क्योंकि उनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि था। लालकृष्ण आडवाणी ने अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने का स्वागत किया है, लेकिन वाजपेयी ने जब हुर्रियत नेताओं के साथ बातचीत शुरू की तब बतौर गृहमंत्री आडवाणी ने ही यह वार्ता करवाई थी।

बात यह है कि राज्य के रूप में जम्मू-कश्मीर की अवधारणा छिन्न-भिन्न कर दी गई है, और यह फैसला लेने में राज्य के लोगों के साथ मशविरा नहीं किया गया। यह अनुच्छेद 370 का स्पष्ट उल्लंघन है। सरकार ने संविधान संशोधन का “संदिग्ध तरीका” अपनाया, जिसे मेरे विचार से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। राज्य के लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनुच्छेद 35ए लाया गया था। संविधान ने ऐतिहासिक कारणों से लोगों के विशेष अधिकारों को माना और उनकी रक्षा की थी।

अब ऐसा किसी भी राज्य के साथ हो सकता है। जन की इच्छा को गवर्नर की इच्छा से बदलकर सरकार ने खराब दृष्टांत पेश किया है। अपने अनुभव से मैं कह सकता हूं कि घाटी के लोग अनुच्छेद 370 और 35ए के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े थे। कश्मीर का विलय सशर्त था और हमने उन शर्तों को स्वीकार किया था। यहां तक कि सरदार पटेल भी उससे सहमत थे। अब नया कथ्य रचा जा रहा है कि अगर सरदार पटेल की बात मानी गई होती तो आज जम्मू-कश्मीर में कोई समस्या ही नहीं होती। इतिहास गवाह है कि पटेल माउंटबेटन की इस बात से सहमत थे कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान को दे दिया जाए। उन्होंने कहा था कि अगर जूनागढ़ और हैदराबाद भारत के साथ रहते हैं तो उन्हें जम्मू-कश्मीर के पाकिस्तान के साथ जाने पर कोई एतराज नहीं होगा।

अब यह भी साफ है कि भाजपा अपनी बात से पीछे हट गई है। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान जब भाजपा ने महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी, तब उन्होंने “गवर्नेंस एजेंडा” के जरिए राज्य के लोगों के साथ एक वादा किया था। तब भाजपा ने राज्य के संवैधानिक प्रावधानों में छेड़छाड़ नहीं करने का आश्वासन दिया था। जम्मू-कश्मीर की संवेदनशील प्रकृति को देखते हुए कदम भी संवेदनशील तरीके से उठाए जाने चाहिए थे। मेरा हमेशा मानना रहा है कि हमें जम्मू-कश्मीर के लोगों का भरोसा जीतना चाहिए। मेरा नजरिया उनसे बातचीत का रहा है।

शिमला समझौते के बाद सबने माना कि कश्मीर समस्या का समाधान द्विपक्षीय बातचीत से होना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय समुदाय हमेशा बातचीत के लिए भारत और पाकिस्तान पर दबाव बनाता रहा है। अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा भारत के कदम को स्वीकार करना मुश्किल हो सकता है। विश्व पटल पर भारत का अपना पक्ष रहा है, और सरकार के कदम से वह प्रभावित होगा। अगर विश्व पटल पर हम अपने कदमों को सही तरीके से रखने में कामयाब नहीं हुए तो हमारा पक्ष कमजोर हो सकता है। इस फैसले के बाद राज्य में आतंकवादी गतिविधियां भी बढ़ सकती हैं। यह सब जानते हैं कि स्थानीय लोगों की मदद से ही वहां आतंकवाद बढ़ा है। इस कदम के बाद स्थानीय लोग आतंकवादियों के करीब जा सकते हैं, और हमसे दूर।

(लेखक पूर्व विदेश मंत्री हैं, उनके ये विचार प्रीता नायर से बातचीत पर आधारित हैं)

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