नवंबर,1984 के सिख विरोधी दंगों के बाद पहली बार पिछले माह 23 फरवरी से शुरू होकर चार दिन तक चले भयावह सांप्रदायिक दंगों के चलते दिल्ली ने जो देखा, सहा और अनुभव किया, वह किसी भी सभ्य समाज और विकासशील से विकसित होने का सपना देखने वाले राष्ट्र के लिए घातक है। दिल्ली के दंगों में संवेदनाएं, जीवन, भविष्य और सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे के तार-तार होने की यह दुर्घटना दशकों तक हमारा पीछा छोड़ने वाली नहीं है। बात राष्ट्रीय राजधानी के सबसे पिछड़े इलाकों में शुमार क्षेत्रों में हुए दंगों के चलते वहां रहने वाले लोगों का जीवन, घर, कारोबार, संपत्ति और रोजगार नष्ट होने तक ही सीमित रहने वाली नहीं है, बल्कि इसका दूरगामी असर शहर के दूसरे हिस्सों के साथ देश भर में महसूस किया जाता रहेगा। पहले से ही विभाजित समाज के बीच विभाजन और तीखा हो सकता है। किसी मजबूत राष्ट्र और मजबूत अर्थव्यवस्था की बुनियाद एक अच्छा और दूरदृष्टि वाला समाज ही होता है। विकास के लिए स्थायित्व और सुरक्षित तथा भविष्य के प्रति आशावादी दृष्टिकोण की दरकार होती है। यह अपेक्षा केवल एक व्यक्ति, धर्म, समाज और राजनीतिक विचारधारा से ही नहीं, बल्कि देश की सामाजिक संरचना और प्रशासकीय तंत्र का भी इसी तर्ज पर होना जरूरी है।
सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि देश की राजधानी में, जहां केद्रीय नेतृत्व से लेकर सुरक्षा के सारे तंत्र और फैसले लेने की प्रक्रिया से जुड़े लोग मौजूद हैं, वहां तीन दिन तक हिंसा कैसे जारी रह सकती है! इस हिंसा में करीब चार दर्जन जान चली गई और सैकड़ों वाहन, सैकड़ों घर और व्यावसायिक संस्थान, या तो लूट लिए गए या जला दिए गए। दिन-रात दंगाइयों की उन्मादी भीड़ सड़कों और मोहल्लों में लोगों को शिकार बनाती रही। अस्पतालों में घायलों और मृतकों की बाढ़ सी आ गई, लेकिन जिस पुलिस का जिम्मा दंगों पर अंकुश लगाना था, वह तीन दिन तक असहाय दिखी। दिल्ली पुलिस के कमिश्नर कहीं दिखाई नहीं दिए। उनकी नाकामी का नतीजा इस शहर ने भुगता। जिस पुलिस कमिश्नर सिस्टम को कानून-व्यवस्था का बेहतर विकल्प माना जाता है, वह देश की राजधानी में नाकाम होता दिखा। प्रभावित इलाकों में पुलिस की कमी के साथ ही उस पर पक्षपात के भी आरोप लगे। दंगा प्रभावित इलाकों में ऐसी तमाम कहानियां मौजूद हैं, जहां पुलिस ने घायलों को समय पर अस्पताल पहुंचाने में मदद नहीं की। दिल्ली में करीब 80 हजार जवानों वाली दिल्ली पुलिस के अलावा अर्धसैनिक बल और सेना तक मौजूद हैं, तो मौके की नजाकत भांपते हुए अतिरिक्त सुरक्षा बल क्यों नहीं समय से भेजे गए। चिंताजनक बात यह है कि दंगों के दौरान देश में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप की राजकीय यात्रा जारी थी। इससे दुनिया के सामने हम क्या कूटनीतिक संदेश देना चाहते हैं? निवेशकों में क्या ऐसी घटनाएं प्रतिकूल धारणा पैदा नहीं करेंगी। पहले से ही तमाम तरह की दिक्कतों से जूझती अर्थव्यवस्था के लिए इस तरह की घटनाएं शुभ संकेत नहीं मानी जा सकती हैं।
यहां सबसे अधिक जवाबदेही उस राजनीतिक तंत्र की है जो सत्ता हासिल करने के लिए समाज में विभाजन का जहर घोलने से परहेज नहीं करता। दिल्ली चुनावों का प्रचार सामुदायिक विभाजन की जमीन तैयार करने वाले सबसे तीखे प्रचारों में शुमार हो गया है। सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दे विरोध और प्रदर्शनों की जमीन तैयार कर रहे हैं। लेकिन इसके बीच हमें यह भी देखना चाहिए कि देश की राजधानी में इतना बड़ा दंगा होने के बावजूद राजनीतिक दलों की हालात को सुधारने की पहल मायूस करने वाली ही ज्यादा है। प्रधानमंत्री ने दंगों के तीसरे दिन शांति और सौहार्द बनाने की अपील जारी की। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने न्यायालय में मामला जाने के बाद कुछ प्रभावित हिस्सों में जाने की औपचारिकता पूरी की। वाम दलों के नेताओं के बाद कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पहले बड़े नेता थे जो प्रभावित इलाकों में गए। हालांकि वह भी दंगों के दस दिन बाद ही पहुंचे। बेहतर होता कि चुने हुए प्रतिनिधि माहौल में तनाव पैदा होते ही लोगों के बीच जाकर सांप्रदायिक सौहार्द बनाने की पहल करते। भारी बहुमत से जीती आम आदमी पार्टी के विधायक संकट की इस घड़ी में सीन से नदारद रहे। उल्टे दंगों के बाद भी तीखी राजनीतिक बयानबाजी होती रही। भाजपा के कई नेताओं पर कटु बयानबाजी के आरोप लगे। उनके खिलाफ मामला न्यायालय में भी गया है। कपिल मिश्रा जैसे भड़काऊ बयान देने वाले नेता पर भाजपा को स्वतः कार्रवाई करनी चाहिए। जो हुआ, उसके दर्द को कम करने और लोगों के बीच भरोसा कायम करने तथा दोषियों को सजा देने के लिए बेहतर होगा कि दंगों की न्यायिक जांच कराई जाए। जहां तक पुलिस एसआइटी बनाकर जांच करने की बात है, तो उस पर सवाल उठ रहे हैं, क्योंकि जिस पर कोताही बरतने का आरोप है, वह जांच के साथ न्याय कैसे कर सकता है। वैसे भी जिन दो अधिकारियों के नेतृत्व में एसआइटी बनाई गई है, वे हाल के कुछ मामलों में अपेक्षित नतीजे देने के बजाय विवाद के केंद्र में ज्यादा रहे हैं।
@harvirpanwar