प्रतिष्ठित लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता, वकील नंदिता हक्सर पूर्वोत्तर में अरसे से सक्रिय रही हैं। उनकी कई किताबें मणिपुर समेत पूर्वोत्तर पर हैं। तकरीबन तीन महीने से ज्यादा समय से जारी मणिपुर में खौफनाक हिंसा पर उनसे बेहतर आवाज शायद ही कोई हो सकती है। आखिर यह आग क्यों नहीं बुझ रही है, इसके जवाब में वे कहती हैं कि यह खतरनाक पहचान और अस्मिता की राजनीति का हश्र है, जो अंततः आइडिया ऑफ इंडिया पर ही चोट है। लेकिन वे यह भी कहती हैं कि दरअसल इसके मूल में जमीन के बाजारीकरण का पूंजीवादी अभियान ही है। उन्होंने हरिमोहन मिश्र से बातचीत में मणिपुर में महिलाओं के साथ अत्याचार, मैतेई और कुकी लोगों के बीच हिंसक लड़ाई को पृष्ठभूमि के साथ विस्तार से बताया। प्रमुख अंशः
मणिपुर में हिंसा इतने लंबे समय तक क्यों खिंच रही है?
शांति की पहलः मानव शृंखला में अमन की गुहार लगाती महिलाएं
मणिपुर में पहले भी देख चुके हैं कि नगा-कुकी, मैतेई-पांगाल, कुकी-पैतें झड़पें हुई हैं, लेकिन कभी ऐसी नौबत नहीं आई कि तीन महीने से ज्यादा समय तक झड़पें चली हों। लगता नहीं कि यह अभी बंद होगा और यह फैलता जा रहा है। इसमें मिजोरम भी अब आ गया है। नगालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने कुछ कह दिया है। बाहर अमेरिका, यूरोपीय संघ सब जगह बयान जारी हो रहे हैं। तो पहला सवाल हमें यही पूछना चाहिए कि यह इतनी देर कैसे चल रहा है। पहले हम देखते हैं कि कुछ लोगों ने कहा कि इस हिंसा में मणिपुर राज्य सरकार या मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह या भाजपा का हाथ है। ऐसा कहने वाले सब लोगों के खिलाफ मणिपुर में मानहानि के मामले दायर हो गए। एक तो आप जानते हैं कि एनएफआइडब्लू की टीम जब गई थी तो उसके खिलाफ मानहानि के मामले दायर हो गए। लेकिन अब आप देखिए तो स्पष्ट हो जाता कि इस पूरे मामले में स्टेट का हाथ है। इसे कैसे हम कह सकते हैं? हाल में पत्रकार प्रवीण स्वामी के साथ एक इंटरव्यू में साउथ एशिया टेररिस्ट पोर्टल के अजय साहनी ने कहा कि ज्यादातर 24 या 48 घंटे में इस तरह की हिंसा संभल नहीं जाती, तो इसका मतलब ही है कि इसके पीछे स्टेट का हाथ है। मैं उन्हें इसलिए कोट कर रही हूं क्योंकि वे सिक्युरिटी एक्सपर्ट हैं। जब एक एक्सपर्ट कह रहा है कि स्टेट के हाथ के बिना यह इतने लंबे समय तक चल ही नहीं सकता, चाहे मणिपुर की या कोई दूसरी सरकार हो, तो पहला सबूत तो यही है। दूसरे, इस हिंसा में जितने गन, हथियार इस्तेमाल हुए हैं, इतने हथियारबंद गुट इसमें लिप्त हैं, यह कहीं और नहीं हुआ है, जहां तक मुझे मालूम है।
पुलिस शस्त्रागार से हथियार लूटने की घटना को कैसे देखती हैं?
शुरू में ही एक आरटीआइ में पता चला कि 4,000 या 5,000 हथियार पुलिस आर्मरी से लूटे गए हैं। सरकार के मुताबिक लूटे गए हैं। लेकिन दूसरी रिपोर्टों में कहा गया है कि वे डिपो में थे और वे मैतेई समुदाय के लोगों को दिए गए हैं। आज तक ये थोड़े से ही वापस आए हैं। कोई एक हजार या कोई कुछ और बता रहा है। सवाल है कि ये कैसे तैयार रखे थे और कैसे दे दिए गए। यह सबसे अहम बात है। उस पर जो भी जांच हो रही है या होगी। तीसरी बात यह कि मणिपुर पुलिस का हाथ हिंसा में है, बचाने में नहीं। अभी जो वायरल वीडियो आया, जिसकी चर्चा हो रही है, उसमें भी दो स्टोरी है। एक, ये दो महिलाएं पुलिस कस्टडी में थीं। दूसरा, यह है कि पुलिस वहां थी। पुलिस ने इन दोनों को भीड़ के हवाले किया। यह इकलौती घटना नहीं है। मेरी जानकारी के मुताबिक, दस ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं (बीरेन सिंह ने कहा कि ऐसे सैकड़ों मामले हैं)। पता नहीं, बीरेन सिंह क्या-क्या कह रहे हैं लेकिन ऐसी घटनाएं बहुत सारी हुई हैं। छह हजार एफआइआर भी फाइल हुए हैं। अब सवाल है कि इसमें जांच कैसे होगी। एफआइआर सारी इंफाल घाटी में दायर हुई हैं। इंफाल घाटी में कोई कुकी नहीं आ सकता है। जांच शुरू भी नहीं हुई है। 18 मई को एफआइआर हुई थी। जब तक यह वायरल (19 जुलाई को) नहीं हुआ, तब तक कोई हरकत नहीं हुई। राष्ट्रीय महिला आयोग को भी रिपोर्ट मिली और उसने भी कुछ नहीं कहा। यह भी अजीब है। महिला आयोग भी सरकार से जुड़ा है और यह केंद्र सरकार है।
मणिपुर मामले में केंद्र सरकार की भूमिका को कैसे देखती हैं?
हमारे प्रधानमंत्री ने अभी तक मणिपुर पर कुछ नहीं कहा। एक ही बार उन्होंने और उसी दिन बीरेन सिंह ने एक बयान दिया है कि यह बहुत गलत हुआ। बीरेन ने कहा कि हम दोषियों को फांसी पर चढ़ा दें। अब ये कैसे कोशिश करेंगे? इसका मतलब है कि फिर लीगल सिस्टम में हस्तक्षेप करेंगे। उधर, इंडिया एलायंस की मांग है कि प्रधानमंत्री संसद में आएं। तो, प्रधानमंत्री क्यों नहीं आ रहे हैं? यह सवाल भी हमारे सामने है कि क्यों नहीं बोल रहे हैं। शशि थरूर ने कहा कि आकर बोल दें और चले जाएं, फिर डिबेट होती रहेगी। लेकिन वे बयान क्या देंगे? उनको यह कहना पड़ेगा कि बीरेन सिंह सरकार इसमें शामिल हैं। यह कह नहीं सकते क्योंकि बीरेन उनकी पार्टी के हैं। पूरे देश की मांग यह है कि बीरेन को हटाइए और राष्ट्रपति शासन लगाइए। इस चुप्पी के पीछे भी दिखता है कि स्टेट की इसमें मिलीभगत है।
इंफाल में आगजनी
कुछ लोगों का आरोप है कि इसमें हिंदुत्ववादी तत्वों का भी हाथ है। ये हिंदू मैतेई लोगों से अपने पुरखों की जमीन पर काबिज होने की बात कर रहे हैं। इस तरह उन्हें अपने पक्ष में पूरी तरह करने और धार्मिक विवाद को हवा देकर सांप्रदायिक माहौल बनाकर पूरे पूर्वोत्तर में अपनी जमीन पुख्ता करने की योजना है। आपकी राय?
इसे समग्र नजरिये से देखना है, अगर हमें गहराई में जाना है। जो दो मैतेई संगठनों को जोड़कर देखा जा रहा है आरंबाई तेंगोल और मैतेई लीपुन, इनका क्या ओरिजिन है। तेंगोल अपने को हिंदू नहीं कहता है, यह समझना जरूरी है मणिपुर के संदर्भ में। हिंदू धर्म मणिपुर में आया कैसे, इसे अगर देखना चाहें, काफी बाद में 17वीं शताब्दी में हिंदू धर्म यहां पहुंचा। यह एक मायने में नई परिघटना है। तो, इसमें कन्वर्जन कैसे हुए? इस्लाम और ईसाई धर्म में कन्वर्जन तो हुए, कुछ मामले में फोर्स का भी इस्तेमाल हुआ, नाम बदले गए, पूरी जीवन शैली बदलनी पड़ती है। वह चीज आप मणिपुर में देख सकते हैं। जब हिंदू मिशनरी दास आए, कन्वर्जन हुए तो मैतेई लोगों का पुराना धर्म था सानामाही। यह सानामाही धर्म मातृसत्तात्मक तो नहीं था, जैसा कि किसी ने लिखा है, लेकिन उसमें पुरोहितिनें थीं, जिन्हें माइबी कहते हैं। उनकी एक अलग भूमिका थी। अभी भी माइबी हैं। माइबा पुरुष पुरोहित थे लेकिन माइबी ज्यादा शक्तिशाली या प्रभावी थीं। यह पुराना धर्म था, जिसे कन्वर्ट किया गया। आज भी मैतेई लोगों के नाम देखें। कुछ हिंदू नाम लगते हैं, कुछ पुराने नाम हैं जो हिंदू नहीं हैं, सानामाही के जमाने के हैं। सानामाही के मंदिरों को तोड़कर हिंदू मंदिर बनाए गए। यह लंबा इतिहास है।
राहत की उम्मीदः चुड़ाचांदपुर के एक राहत शिविर में बच्चे
फिर जब वैष्णव संप्रदाय का प्रभाव बढ़ा, तब उनकी जो पुरानी लिपि मैतेई लोन स्क्रिप्ट थी, उन पर बंगाली लिपि थोपी गई। जब मैं गई थी 1980 में तो सारे बोर्ड बंगाली लिपि में थे। आज आप देखिएगा मणिपुरी मैतेई भूमिगत संगठनों ने सब पुरानी लिपि में कर दिया है। यह बर्मी टाइप लिपि है। फिर उनके जो पवित्र ग्रंथ थे, जिन्हें पुई कहते हैं, वह सारे जलाए गए। आज तक मैतेई समाज उस दिन को याद करता है, जब ये ग्रंथ जलाए गए। तो, हिंदू धर्म भी उन पर ऊपर से थोपा गया। पहले राजा को कन्वर्ट किया गया, फिर हिंदू धर्म और वैष्णव संप्रदाय फैला। इस पूरे इतिहास को हर मैतेई जानता है। उन्होंने इस इतिहास को जिंदा रखा है, भूमिगत मैतेई राष्ट्रवादियों ने। यह जो आरंबाई तेंगोल हैं, ये अपने को सानामाही कहते हैं, ये खुद को हिंदू नहीं कहते हैं। यह भी समझना होगा कि ये अपने को इंडिजिनस रिलीजन कहते हैं। ये सानामाही के देव लेई को पूजते हैं। शपथ भी उन्हीं के नाम पर लेते हैं। ठीक-ठीक कहें तो ये वैष्णव या हिंदू नहीं हैं।
इस मामले में आरएसएस या भाजपा की भूमिका कैसी रही है?
आरएसएस और भाजपा ने पूरे पूर्वोत्तर में जहां-जहां इंडिजिनस रिलीजन हैं, जो हिंदू, ईसाई या मुस्लिम नहीं बने, उन सबको एक प्लेटफॉर्म पर लाने की कोशिश की। उनके अलग-अलग इतिहास हैं। मणिपुर में सानामाही लोगों को भी लाने की कोशिश की गई। कितना किया है, मुझे अब ठीक-ठीक अंदाजा नहीं है। लेकिन नगा लोगों का हरक्का रिलिजन है, रानी रोइडुलु हैं, उन्हें भी भाजपा ने जोड़ा है। आजकल इसको जो फैला रहे हैं, उन्हें पद्मश्री भी दिया गया। तो, ये है लिंक। तो आरंबाई तेंगोल, सानामाही के कट्टरवादी हैं। यह जब शुरू हुआ था, इसके संरक्षक मणिपुर के राजा हैं और अध्यक्ष या सदस्य बीरेन सिंह हैं। ये उस इतिहास से जुड़े हुए हैं। आरंबाई तेंगोल का मतलब है डॉट- हाथ से फेंका जाने वाला छोटा जहरबुझा तीर। इसमें एक सुई जैसी होती है और मोर के पंख लगे होते हैं। बर्मा से जब लड़ाई होती थी तो तेज दौड़ने वाले मणिपुरी घोड़े पोनी पर सवार होकर तेजी से बर्मी सैनिकों की ओर इसे फेंकते थे। यह संगठन दो-तीन साल से शुरू हुआ है और मुझे नहीं लगता कि यह इतना मासूम मामला है। यह विजिलांटे बन गया है। इसके पीछे कितना आरएसएस या भाजपा है, वह तो मैं तारीख और दिन नहीं बता सकती लेकिन आम तौर पर यही बता सकती हूं कि पूर्वोत्तर में आरएसएस वाले इंडिजिनस रिलिजन वालों को एक मंच पर लाने की कोशिश बहुत पहले से करते आ रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश में डोनी पोलो रिलिजन बनाया था ईसाई कन्वर्सन के खिलाफ। यह 1970 से चल रहा है। तो, यह फर्क है।
बीरेन सिंह के वन अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई और मणिपुर हाइकोर्ट के मैतेई को एसटी पहचान दिलाने संबंधी आदेश में आप क्या कोई संबंध देखती हैं?
मैं देखती हूं। पहले कोर्ट वाली बात को देखते हैं। मैं 1980 के दशक में जब गई थी, रानी गाइडुलु वाला जो मामला था, इन्होंने उसका म्युजियम भी बनाया था, जिसका नगा लोगों ने विरोध किया था। 2014 में जनजाति मामलों के सचिव की अध्यक्षता में एक टास्क फोर्स बनी थी, जिसे 1965 में बनी बीएन लोकुर कमेटी के मानकों की समीक्षा करनी थी। लोकुर कमेटी के आधार पर अनूसूचित जनजातियों का क्राइटेरिया 1965 में तय किया गया था। टास्क फोर्स को लोकुर कमेटी के क्राइटेरिया की समीक्षा करनी थी कि बैकवर्ड, प्रिमिटिव वगैरह के अलावा कोई और क्राइटेरिया होना चाहिए कि नहीं। बहस हुई थी कि अब शेड्युल्ड ट्राइब की कैसे व्याख्या की जाए। एक मायने में तो यह बड़ा मासूम-सा लगता है, लेकिन उस वक्त बहुत बहस हुई थी। 2015 में मणिपुर में एक विधेयक लाया गया कि मैतेई लोग इंडिजिनस हैं। देखिए, हमारा है शेड्युल्ड ट्राइब। इसीलिए आदिवासी कहने से बात नहीं बनती, ये ट्राइब हैं। पूर्वोत्तर के ट्राइब इंडिजिनस नहीं हैं। अलग-अलग जमाने ये बाहर से आए हैं। वैसे, तो हम सभी कभी न कभी आए हैं। कौन कब इनसाइडर हो गया और कौन कब आउटसाइडर। जैसे असम के लोग अब आउटसाइडर की बात करते हैं लेकिन ये शान ट्राइब के अहम लोग हैं, जो खुद बाहर से आए हैं। तो, शेड्युल्ड ट्राइब का क्राइटेरिया बदलने का प्रयास हो रहा है। आजकल अलग-अलग जगह से खबर आ रही है कि शायद एजेंडा यह है कि जो ट्राइबल ईसाई हो गए हैं, उन्हें वेलफेयर स्कीम्स का लाभ नहीं देना है। जैसे दलित का है। अहमदाबाद में जुलूस निकला था कि जो ट्राइबल ईसाई बन गए हैं, उनको आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। शायद यही एजेंडा अब चल रहा है।
सड़क बंदः सड़कों पर ऐसी रुकावटें जगह-जगह हैं
मैतेई की इंडिजिनस कहलाने की मांग के पीछे क्या है। ये अपने को प्रिमिटिव तो कह नहीं सकते। अपने को पिछड़े भी नहीं कहते हैं। ये तो मानते हैं कि हमारी दो हजार साल की सभ्यता है। ये ट्राइबल लोगों को तो हाउ यानी पिछड़े, पहाड़ में रहने वाले कहते हैं। यह नीचा दिखाने वाला शब्द है। तो, अपने को इंडिजिनस कहलाना चाहते हैं, ट्राइबल नहीं। अगर टास्क फोर्स को देखें तो कुछ ऐसी चर्चा हो रही है कि ट्राइब की परिभाषा बदलनी चाहिए। यह आज का नहीं, यह 2015 से चल रहा है।
लेकिन कथित अतिक्रमण हटाने के पीछे क्या हो सकता है?
जमीन का मामला है। मुझे नहीं लगता कि यह मोदी और बीरेन सिंह का सवाल है, यह पूंजीवाद का मुद्दा है। जहां-जहां जमीन कमोडिटी नहीं बनी है, उसका बाजारीकरण नहीं हुआ है, वहां-वहां उस जमीन को ये मुक्त कराना चाहते हैं। उस जगह बहुराष्ट्रीय कंपनियां घुस रही हैं। अगर आप देखें कश्मीर में, न तो कश्मीरी पंडित वहां जाने वाले हैं, न कश्मीरी मुसलमान खरीदने वाले थे। अनुच्छेद 370 जब हटा दिया तो खरीदा किसने? अमीरात वालों ने। जमीन का सबसे बड़ा सौदा अमीरात वालों ने किया। हमारे प्रधानमंत्री भी अमीरात जाते हैं। अब अमीरात वालों को मणिपुर जाना है तो क्या होगा? हाइवे पूर्व एशिया, चीन से वियतनाम तक जाने वाली है, रेल चलने वाली है तो ये जमीन बहुत कीमती हो जाएगी। लंबे समय से ट्राइबल जमीनों को किसी न किसी बहाने बाजार में लाया जा रहा है या उन्हें ट्राइबल लोगों के कब्जे से खाली कराया जा रहा है। पहले वाइल्ड लाइफ सेंचुरी बनाई गई। कभी संरक्षित वन बना दिया गया। इस तरह अनारक्षित करने की कोशिश बहुत दिनों से चल रही है।
लेकिन पाम प्लांटेशन वगैरह की भी तो योजनाएं हैं?
पाम ऑयल का प्लांटेशन करना चाहते हैं। पाम प्लांटेशन, चाय के बागान, रबड़ प्लांटेशन कुछ भी हो सकता है। हाल में (पूर्व गृह सचिव) जी.के पिल्लै ने एक इंटरव्यू में यह भी कहा कि मैं चाहता था कि रबड़ प्लांटेशन हो। तो इनके विकास की परिभाषा एक्सपोर्ट पर आधारित है। कैश क्रॉप लगाई जाए। तो, यह तो सच है लेकिन किस कॉरपोरेशन का खास हित जुड़ा है, यह अभी सामने नहीं आया है। लेकिन यह जरूर है कि पूर्वोत्तर की सारी जमीन को बाजार में लाना है। अब कैसे लाया जाए, यह कोशिश शायद है।
मिनरल्स का भी मामला है, लिथियम उत्खनन का भी मामला बताया जाता है। आपकी जानकारी क्या है?
बहुत सारे मिनरल्स हैं। मैं 1980 के दशक में जब वहां थी तब की बात है। जियोलॉजिकल सर्वे के मणिपुर के मैप गोपनीय हुआ करते थे। बहुत सारे मिनरल्स थे। ब्रोमाइड है जिसके खनन पर नगा स्टूडेंट्स यूनियन ने रोक लगाने की कोशिश की। नगालैंड में ऑयल है, उसको लेकर बहुत विवाद भी हो रहा है लेकिन कई क्षेत्र पहले ही विदेशी कंपनियों को दे दिए गए हैं। यह तो हो ही रहा है। मिनरल्स, लैंड, फॉरेस्ट रिसोर्सेज हैं। हालांकि यह अभी पूरी तरह से सामने नहीं आया है कि कितने संसाधन हैं, कौन-कौन से हैं।
मैतेई समाज एसटी की हैसियत क्यों मांग रहा है?
मुझे लगता है कि मैतेई और ट्राइबल्स के बीच में बांटो और राज करो की नीति से यह होगा कि कोई न कोई बहाना करके जमीन बाजार में आ जाए। अब ये कह रहे हैं कि मैतेई पहाड़ों में खरीद नहीं सकते। वे बरसों से वहां हैं। कहीं भी जाना चाहें जा सकते थे, खरीद सकते थे। उनको क्या परेशानी थी। उन्हें जरूरत भी क्या है पहाड़ में जाने की, जहां बाथरूम नहीं, पानी नहीं, बिजली नहीं। उनकी तैनाती पहाड़ में होती है तो अमूमन भाग जाते हैं।
371ए का प्रावधान उन्हें रोकता नहीं है?
हां है, लेकिन बहुत सारे बेनामी सौदे मजे से होते रहे हैं। ट्राइबल्स का जहां तक सवाल है तो उन्होंने भी घाटी में, गुवाहाटी में जमीनें खरीदी हैं। मुझे नहीं लगता हैं कि मैतेई और ट्राइबल के बीच कोई इस तरह का विवाद है। यह मैनुफैक्चर्ड है। देखिए कि कश्मीर में जब से अनुच्छेद 370 हटाया गया, गरीबी और बेरोजगारी बढ़ गई। मणिपुर भी तीसरा सबसे गरीब राज्य है। कौन-सा विकास हो रहा है, किसके लिए विकास हो रहा है? किसके पास पैसा होगा कि जाकर जमीनें खरीदे? पहाड़ में जो धान की खेती है, वह फायदे की नहीं है। साल भर में छह महीने के खर्च लायक भी धान नहीं मिलता है।
अफीम की खेती का मामला क्या है?
इसका मुझे पूरा नहीं मालूम। इतना जरूर मालूम है कि इतना जो शोर मच रहा है नार्को-टेररिज्म का, उतना बड़ा है नहीं। मुझे इसके आंकड़े नहीं मालूम हैं, लेकिन इसमें दो मसले हैं। एक, ड्रग्स का है। यह तो बहुत पुराना है। किरण बेदी जब मिजोरम में थीं तो उन्होंने भी इसके खिलाफ अभियान चलाया था। तब उनको वहां से हटा दिया गया था। हाल में पुलिस वाली वृंदा हैं, उन्होंने भी कोशिश की तो उन्हें भी हटा दिया गया। ये ट्रैफिकिंग का सवाल है। लेकिन अब फर्क यह है कि मणिपुर उत्पादक केंद्र बन जाएगा। इसमें कुकी समुदाय का क्या लेना-देना है। सारी रिपोर्ट यह है कि कोई समुदाय नहीं करता। इसके ड्रग लॉर्ड हैं। इनमें कुछ मैतेई, कुछ कुकी हैं, कुछ बर्मी हैं, कुछ कहते हैं कि चीन के हैं। सरकारी नहीं, बल्कि चीन के बिजनेसमैन हैं। अगर कुकी लोगों ने जंगल साफ करके खेती की है तो जिनको अतिक्रमण के नाम पर निकाला, वे तो सबसे गरीब कुकी किसान थे। इसके पीछे कौन है, यह तो अभी तक पता नहीं चला। मीडिया रिपोर्टें जरूर हैं जिनमें आरोप हैं कि बीरेन, उनकी बीवी, उनकी मिस्ट्रेस भी उसमें शामिल हैं। इसके पीछे कौन ड्रग लॉर्ड्स हैं, उनका क्या झगड़ा है और वे क्या चाहते हैं, इन बातों का पता करने के लिए अभी कमेटी बनाई गई है। मौजूदा हिंसा का इससे कोई लेना-देना है, मुझे ऐसा नहीं लगता है। लेकिन यह सही बात है कि कुकी लोगों को जंगलों से निकाला गया। इंफाल में जो घाटी और पहाड़ी के बीच का इलाका है, उसमें बहुत सारे कुकी और नगा रहते थे। उन्हें अतिक्रमण के नाम पर निकाला गया। तो, यह जमीन का मुद्दा है। मुझे नहीं लगता कि नार्को-टेररिज्म और ड्रग का इश्यू है। और यह बात बीरेन कह रहे हैं। बीरेन इसलिए कह रहे हैं कि वे कुकी लोगों को बदनाम करना चाह रहे हैं। दूसरी बात घुसपैठियों की है। यह तो जान-बूझ कर हौवा बना रखा है। यह मुझे नहीं लगता कि मुख्य समस्या यह है। मुख्य मामला जमीन का है।
मिजोरम में इसके अक्स दिख रहे हैं। कहते हैं मिजो और कुकी कजिन्स हैं। लड़ाई तो फैल रही है। क्या यह नगा लोगों को भी आगोश में ले सकती है? यह भी कहा जा रहा है कि नगा अभी अलग हैं, इससे भी बीरेन को बल मिल रहा है।
एक तो हमें यह जानना चाहिए कि यह कुकी और नगा जिन्हें कहते हैं, वे एक समुदाय नहीं हैं। उनमें 10-20 से ज्यादा ट्राइब हैं। उनमें भी कई तरह के विरोधाभास हैं। 1997 में बड़ा झगड़ा हुआ था थड़ाउ कुकी और पाइते के बीच। पाइते की जमीनें थीं जबकि थड़ाउ कुकी बर्मा से बाद में आए थे। जब हम कुकी-जो-मिजो कहते हैं तो उनके बीच भी बहुत सारे विरोधाभास हैं। लेकिन यह बात सही है कि ये नगा के मुकाबले ज्यादा एकजुट हैं। मिजोरम का मामला यह है कि अभी जो मुख्यमंत्री हैं मिजो नेशनल फ्रंट के, उनकी तो पहले मांग थी कि सारे मिजो इलाके बर्मा से लेकर भारत तक एक हो जाएं। उसके मद्देनजर अभी हाल में मिजोरम में मुख्यमंत्री की अगुआई में कुकी के समर्थन में जो भारी जुलूस निकला तो यह उनकी मांग बनी हुई है। अब मान लीजिए कि कुकी कहते हैं कि साथ में नहीं रह सकते तो उन्हें अलग प्रशासनिक इकाई दे दी जाए, तो कौन-सी जमीन कुकी लोगों की है? अगर कुकी लैंड के जो नक्शे उन लोगों ने बनाए हैं, वह चाहते हैं तो फिर उनका नगा लोगों से टकराव होगा। पुराने चार जिले थे, जो अब 16 हो गए हैं, उनमें नगा लोगों की जमीन थी। नगा और मैतेई के बीच जो सॉलिडरिटी है कि ये इंडिजिनस हैं और उनकी जमीनों पर कुकी आकर बस गए हैं। यह तो इतिहास की बात हो गई। लेकिन यह कहां तक जाएगा? मेरा मानना है कि 1949 में मणिपुर भारतीय संघ से जुड़ा, उसके बाद वहां जो भी है, उसे मणिपुरी ही मानना चाहिए, वह चाहे जो हो। सभी के एक समान अधिकार हैं। उसके बाद कौन पहले आया, कौन बाद में, यह हम नहीं तय कर सकते। उसमें जाना भी नहीं चाहिए। वह मुश्किल डोमेन है। इसे इतिहास तय करेगा कि संविधान तय करेगा? यह झगड़े का मुख्य मुद्दा बन जाता है। कुकी अलग प्रशासन की बात कर रहे हैं, जिसका मैतेई विरोध कर रहे हैं। इस पर संवैधानिक रूप से दो सवाल हैं। वह जो हमारा आइडिया ऑफ इंडिया था कि हम सब समान हैं, हम कहीं भी जा सकते हैं, उसका क्या होगा? क्या हम एथनिक आधार पर पूरे हिंदुस्तान को परिभाषित करेंगे? अभी यह मिजो-नगा का लगता है, लेकिन मसलन, तमिलनाडु में जो कन्नड़ या कर्नाटक में जो तमिल हैं, उनके बीच अगर यह टकराव छिड़ा तो क्या होगा? यह सब जगह फैल जाएगा।
डोमिसाइल का मामला आ जाएगा...
हां, कुकी जैसे इस मांग पर जोर देंगे तो मैतेई लड़ेंगे। फिर नगा लोगों के साथ टक्कर होगी। इस पर लंबी बहस हो चुकी है 1970 से ही, जब कुकी लोगों ने सदर्न हिल्स मांगे थे। अब सदर्न हिल्स जिला बन गया है, जिसमें नगा लोग भी रह रहे हैं। लेकिन मणिपुर में 3 मई को मैतेई मांग के खिलाफ कुकी ट्राइब समूह और नगा ट्राइब समूह दोनों ने मिलकर जुलूस निकाला था, जिसे ट्राइबल सॉलिडरिटी मार्च कहा गया। लेकिन अब जमीन पर टक्कर होगी, जो पहले हो चुकी है। कहीं तय नहीं है कि कौन-से कुकी गांव हैं, कौन-से नहीं हैं। कुछ कुकी गांव जो तमकुल नगा इलाके में हैं, उन्होंने समझौते कर लिए हैं कि हम जमीन पर दावा नहीं करेंगे और यहीं रहेंगे। लेकिन बाद में दावे उठने लगे तो क्या होगा। जहां तक नगालैंड का सवाल है तो मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो ने तो बयान दे दिया है कि वे बीरेन सिंह के साथ हैं।
बीरेन दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तो उइखल नगा इलाके में उनका भव्य स्वागत हुआ था।
हां, लेकिन यह क्यों है, क्योंकि पूर्वोत्तर के लिए कोई हमारी नीति नहीं है। है तो सिर्फ काउंटर इंसर्जेंसी। पूरे पूर्वोत्तर को हमने काउंटर इंसर्जेंसी या इंटेलिजेंस की नजर से देखा। नगालैंड जब बना तो असम हिल्स से अलग किया, अरुणाचल का एक हिस्सा लिया। अब अरुणाचल के हिस्से के लोग अपने लिए अलग मांग कर रहे हैं। तो, बांटो ओर राज करो की नीति से नहीं चलेगा।
टक्कर शुरू हुई तो भारी हिंसा हो सकती है क्योंकि सभी समूहों के हथियारबंद भूमिगत गुट हैं?
हर समुदाय मैतेई, नगा, कुकी, पांगाल, पैतेई सब में ऐसे गुट हैं और उनके पास भारी हथियार हैं। मणिपुर से ज्यादा हथियार तो नगालैंड में हैं। ऐसी टक्कर से तो कभी शांति और स्थायित्व आ ही नहीं सकता। अगर कोई ठोस नीति नहीं होगी तो ऐसा ही चलता रहेगा।
बीरेन सिंह की सरकार कहती है कि काफी हथियारों के लाइसेंस जारी किए गए हैं?
हां, तकरीबन 37,000 लाइसेंस बांटे गए हैं। उससे ज्यादा गन लाइसेंस नगालैंड में हैं। आप देखिए कि इतने छोटे इलाके में इतने हथियार के लाइसेंस! उसके अलावा भूमिगत संगठनों के पास हथियार हैं, सब ट्रेनिंग लिए हुए हैं। कुकी, मैतेई, नगा ये तीनों कौम मार्शल आर्ट्स में माहिर हैं। ये फाइटर हैं। इनका ऐसा ही इतिहास है। इनके कुछ मार्शल आर्ट्स को डांस फार्म में तब्दील कर दिया गया है, जिस पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन बहुत मशहूर मार्शल आर्ट्स हैं। टैलेंट बहुत है मणिपुर में। आपने जयंत लौक्रापम तपता के गाने सुने हैं क्या? हर गाने को आप सुनेंगे तो आपको लगेगा कि बहुत अच्छा संगीत है, लेकिन वह गा क्या रहा है कि हर कुकी को मार डालो। कुकी पर चार गाने ऐसे आ गए हैं। पहले तपता बहुत लोकप्रिय पॉप सिंगर था। कुकी, नगा लोगों में भी। उससे कहा गया कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो, तो उसने कहा कि यह तो वॉर जोन है, इसमें ऐसे ही गाने गाए जाने हैं।
तो ये मैतेई कर क्यों रहे हैं? बीरेन सिंह कैसे इतने बड़े नायक बन गए?
पहले तो बीरेन कांग्रेस में थे। दरअसल मैतेई लोगों में मैतेई किंगडम को लेकर बड़ा गर्व का भाव है। वे कहते हैं, यह 2000 साल पुराना है। मुझे नहीं मालूम लेकिन पुराना तो होगा। उनकी अलग भाषा, लिपि, संगीत, गाने, खेल थे। मतलब बहुत समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा थी। अपना सानामाही धर्म था। अपने रीति-रिवाज, अपने पवित्र ग्रंथ थे। तो, उनके लिए यह बड़े गौरव की बात थी। 1949 में जब विलय हुआ तब भी बहस चली थी कि यह गैर-कानूनी है, लोगों से नहीं पूछा गया। इसलिए जितने भूमिगत संगठन थे मसलन कंगलापाक कम्युनिस्ट पार्टी वगैरह, वे कोई कम्युनिस्ट नहीं, बल्कि उनका गौरव पुराने राज में था। लेकिन कुकी, नगा कहते हैं कि आपका राज था लेकिन हम तो पहाड़ में थे, आपका राज वहां तक नहीं था। हमारे ऊपर आपने राज नहीं किया। इस पर विवाद हो सकता है क्योंकि मणिपुर के राजा का जब कोई बड़ा कार्यक्रम होता था तो वे नगा तामकुल कपड़े पहनकर करते थे, लेकिन इससे आपको अधिकार तो नहीं मिल जाता कि आप आज हुकुम चलाएं।
हालांकि एम.के. बिनोदिनी भी राज परिवार से ही थीं, सोचिए आज वे होतीं तो क्या कहतीं। उन्होंने संघर्ष किया कि मैतेई भाषा आठवीं अनुसूची में होनी चाहिए। इसलिए मैतेई लोगों को एकजुटता का गाना गाना चाहिए, न कि अलगाव का। आज मैतेई इस पहचान की राजनीति के चलते भ्रष्ट हो गए हैं। यह पहचान या अस्मिता की राजनीति बर्बादी ही लाएगी। यही मैं बार-बार कह रही हूं। सवाल है कि क्या कभी मणिपुरी राजनीति हुई? वह तो मैतेई, कुकी, नगा की अस्मिता की राजनीति में ही घूमती रही। सभी पार्टियां यही कर रही हैं। भाजपा को तो कुकी भी मदद कर रहे थे, तो बीरेन को ही क्यों समर्थन किया।
भाजपा ने दो कुकी उग्रवादी संगठनों से मदद ली थी, जिनके साथ बीरेन सिंह ने हाल में 2008 की एसओओ संधि को एकतरफा खत्म कर दिया? यह क्या राजनीति है?
हां, हां। इसके पीछे लंबी राजनीति है। दरअसल केंद्र ने नगा के खिलाफ कुकी लोगों को मिलाकर असम रायफल्स का गठन किया था। आप देखिए, उसी असम रायफल्स और मणिपुर पुलिस के बीच भारी ठनी हुई है। मैतेई इलाकों में आज मणिपुरी पुलिस है जबकि कुकी इलाकों में असम रायफल्स तैनात है। इसका इस्तेमाल किया गया है। यह अस्मिता की राजनीति से सब खेल हो रहा है। तो हेमंत बिस्वा सरमा ने यह खेल किया था। उनका ख्वाब पूरे पूर्वोत्तर का नेता बनने का है। यह खेल बहुत खतरनाक है।
मैतेई महिलाओं की भूमिका कैसे देखती हैं?
चौकसीः काकचिंग जिले के शुगनू इलाके में गांव की रखवाली करती महिलाएं
माइरा पैबिस संगठन को खुद मैंने रात-रात गश्त करते देखा है। 1988 में ये लोग मुझको भी साथ लेकर घूम रही थीं। ये महिलाएं बड़ी मजबूत थीं। मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग की महिलाएं सब साथ में सड़क पर बैठ जाती थीं। ये मशाल लेकर आती-जाती हर ट्रक की तलाशी लेती थीं कि कोई शराब या ड्रग तो नहीं है। पूरे इंफाल में कोई ड्रग या शराब नहीं दिखती थी। 1980 में जब मैतेई उग्रवाद शुरू हुआ और सशस्त्र बल भी आफ्सपा कानून के तहत आए, तो सेना या असम रायफल्स किसी को पकड़ते तो नियम के मुताबिक पुलिस को सौंपना था, लेकिन वे ऐसा नहीं करते थे। उसे कुछ दिन टार्चर करते। उस हालात में माइरा पैबिस सेना या असम रायफल्स को घेरकर उस लड़के को बचा लेती थीं। यह उस वक्त का था। आज वही परंपरा दूसरा रूप ले चुकी है। अब वे सेना को काम नहीं करने दे रही हैं। मोरेह, बिष्णुपुर में नहीं जाने दिया। इसका अब यह इस्तेमाल हो रहा है। पहले मणिपुर के लिए था। अब मैतेई समाज के लिए हो गया। यह पहचान की राजनीति है। यह समझना चाहिए। मणिपुर देश में शायद इकलौता प्रांत है जहां अपना पारंपरिक महिला दिवस मनाया जाता है, लेकिन यह ताकत ऐसे में लग रही है। वीडियो दर वीडियो आ रहे हैं कि कुकी को मारो, बलात्कार करो। यह पूरे मैतेई समाज को ही खराब कर देगा। जिस चीज को वे बचाना चाहते हैं, वही खत्म हो जाएगा। मुझे तो लगता है कि यह आइडिया ऑफ इंडिया को चुनौती दे रहा है।