सरकार ने मल्टी डायमेंशनल पावर्टी के नए पैमाने और हाल में जारी कंजप्शन सर्वे के आधार पर बताया कि करीब 25 करोड़ लोग गरीबी से ऊपर उठ गए हैं और देश में गरीब सिर्फ 5 प्रतिशत के आसपास बच गए हैं। क्या है सच्चाई, इस पर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार से हरिमोहन मिश्र की बातचीत के अंश:
सरकार का दावा है कि मल्टी डायमेंशनल गरीबी काफी घटी है। यह वास्तविक गरीबी रेखा के पैमाने से किस रूप में अलग है और इसके क्या मायने निकलते हैं?
मल्टी डायमेंशनल पावर्टी (बहुआयामी गरीबी) का पैमाना यह होता है कि किसी की सिर्फ आमदनी या उसके खर्च करने की ताकत से ही गरीबी नहीं आंकी जा सकती, बल्कि उसके परिवार में शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन-स्तर, इन तीनों पैमानों को देखना जरूरी है। अगर आपके पास ये तीनों हैं तो आप गरीब नहीं हैं और इनमें से कुछ नहीं है तो आप बहुआयामी गरीबी के शिकार हैं। मल्टी डायमेंशनल पावर्टी के पैमाने में तीन शिक्षा के, तीन स्वास्थ्य के और छह कल्याणकारी उपायों के पैमाने हैं। दुनिया में यूएनडीपी ने यह बात रखी थी तो उसमें दस चीजें जोड़ी थीं। हमारी सरकार ने उसे 12 कर दिया है। उसमें बैंकिंग को जोड़ दिया है, इसलिए जन धन खाते काफी खुलने से गरीबी का आंकड़ा घटा हुआ बताया जाता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) 2015-16 और 2019-21 के आंकड़ों की तुलना करके सरकार ने कहा कि हमने करीब 12.5 करोड़ लोग मल्टी डायमेंशनल गरीबी से बाहर निकाल लिए हैं। यह आंकड़ा करीब छह-सात महीने पहले जारी किया गया था। उसके बाद अब सरकार या नीति आयोग ने इसकी आनुमानिक तुलना 2011-12 से करके बताया कि करीब 24.5 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर उठ गए हैं। मेरी राय में पहली ही गणना सही नहीं है क्योंकि 2015-16 के एक वर्ष के आंकड़ों की तुलना 2019-21 से की गई। एक तो यही ठीक नहीं है कि एक वर्ष को दो वर्ष के आंकड़ों के साथ तुलना की जाए। ऐसा क्योंं किया गया? इन दो वर्षों में 2019-20 तो सामान्य वर्ष है मगर 2020-21 बेहद असामान्य वर्ष है, जिसमें कोविड महामारी के कारण भारी तंगी थी, स्कूल बंद थे, स्वास्थ्य के मोर्चे पर भारी गड़बड़ी हुई, बहुत सारे लोग मारे गए। फिर देश में प्रतिव्यक्ति आय में रिकॉर्ड गिरावट रही। ऐसा आजादी के बाद पहली दफा हुआ। तो, इसमें ऐसा कैसे हो सकता है कि गरीबी घट गई? आप चाहते तो 2015-16 की तुलना 2019-20 से कर लेते। यह तो समझ में आता है। मतलब यह कि इन आंकड़ों में ही कुछ गड़बड़ी है, जिससे बहुआयामी गरीबी 12.5 करोड़ कम दिख रही है। फिर उन्होंने 24.82 करोड़ गरीब घटने की बात की। इसके लिए वे 2015-16 के आंकड़ों के अनुमान को पीछे ले गए और 2019-21 के आंकड़ों को एक वर्ष आगे ले गए। यह गड़बड़ इसलिए है कि अगर 2019-21 के आधार पर 12.5 करोड़ गरीब घटने के ही आंकड़े गलत हैं तो उसे प्रोजेक्ट करने के आंकड़े भी गलत ही रहेंगे। इसलिए मेरा मानना है कि सिर्फ चुनावी प्रचार के लिए जारी कर दिया गया है कि हमने इतने लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाल दिया है।
2019-20 और 2020-21 को एक साथ मिला देने की वजह क्या रही होगी?
यही तो मैंने सवाल उठाया है। यह तो कोई बात बनती नहीं है। 2019-20 में अर्थव्यवस्था के पैमाने जीडीपी वृद्धि दर, बेरोजगारी वगैरह सबसे निचले स्तर पर थे। फिर भी वह सामान्य वर्ष था इसलिए आप कहें कि बहुआयामी गरीबी कम हो गई है तो बात कुछ समझ में भी आ सकती है। लेकिन 2020-21 तो शिक्षा, स्वास्थ्य, आमदनी हर पैमाने पर भयावह था, तो बहुआयामी गरीबी के कम होने का दावा सही नहीं हो सकता है। इस मायने में देखें तो बहुआयामी गरीबी के पैमाने पर लोगों की हालत खराब ही हुई होगी, बेहतर नहीं।
अब कंजप्शन सर्वे के मुताबिक करीब 5 प्रतिशत गरीबी बच गई है। इसे कैसे देखते हैं?
पहली बात तो यह है कि अब के कंजप्शन सर्वे के मौजूदा आंकड़ों की तुलना 2012-13 के आंकड़ों से की जा रही है, लेकिन 2012-13 में कंज्यूजमर सर्वे होता था जिसे बदल कर अब कंजप्शन सर्वे कर दिया गया है। कंज्यूमर सर्वे में होता था कि आप किसी के पास जाते थे और पूछते थे कि आप क्या-क्या चीजें कितनी-कितनी खरीदते हैं। अब कंजप्शेन सर्वे में उपभोक्तापसे कोई 400 चीजें को तीन हिस्सों में बांटकर पूछा जाता है कि आप कितना उपभोग करते हैं। यानी पहले सर्वे करने वाले करीब 340-350 चीजों के बारे में पूछने एक बार जाते थे। अब तीन बार जाते हैं, इसलिए इसे कंजप्शन सर्वे कहा जाता है। जब सर्वे का तरीका और पैमाना ही बदल गया तो उनकी तुलना कैसे हो सकती है।
दूसरी बात यह है कि आज गरीबी की परिभाषा क्या है। यह परिभाषा तो बताई नहीं गई कि गरीबी किसको मानते हैं। गरीबी बदलती रहती है। इसको हम कहते हैं सोशल मिनिमम नेसेशरी कंजप्शन। यानी आज के समाज में जीवन जीने के लिए कितना न्यूनतम कंजप्शन जरूरी है। इसकी परिभाषा स्थान के हिसाब से भी बदलती रहती है। जैसे कि आप लद्दाख में देखें तो वहां जब तापमान शून्य से नीचे 30-40 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है तो आपके पास अच्छा घर, अच्छे कपड़े, अच्छा खाना, गरम रखने के लिए ऊर्जा (लकड़ी, बिजली वगैरह) नहीं होती, तो आप जाड़े में बच नहीं सकते। अगर यह सब आपके पास है तो आप मध्य वर्ग के परिवार हैं। इस तरह गरीबी की परिभाषा उत्तर भारत में अलग होगी, लद्दाख में अलग होगी और तमिलनाडु में अलग होगी। वहां आप एक वेष्टि पहनकर, केला खाकर, एक छप्पर के नीचे गुजर-बसर कर सकते हैं। इसी तरह अमेरिका में गरीबी अलग किस्म की है। वहां गरीब के पास फ्रिज होगा, कार भी होगी। यह जीवन-स्तर तो भारत में मध्य वर्ग का है।
गरीबी की परिभाषा देश-काल पर निर्भर करती है। इस मामले में आप यह नहीं कह सकते कि हमने गरीबी की एक परिभाषा निर्धारित कर दी है। आज के संदर्भ में हम किसे गरीबी रेखा को मानेंगे, उसे देखना होगा। पुरानी गरीबी की रेखा के हिसाब से हम नहीं चल सकते हैं। इसलिए जब तक आज की गरीबी की परिभाषा हम नहीं बताते, तो यह नहीं बता सकते कि कितने लोग गरीबी रेखा के ऊपर आ गए हैं।
अब कंजप्शन सर्वे आया है और जीडीपी का डेटा भी 7.4 प्रतिशत आया। जीडीपी तो 2012-13 की तुलना में बढ़ी है 70 प्रतिशत लेकिन कंजप्शन बढ़ा है 40 प्रतिशत (शहरी) और 35 प्रतिशत (ग्रामीण)। तो कंजप्शन आमदनी के मुकाबले कम बढ़ा है। ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा तभी होगा, जब ज्यादा कंज्यूम करने वाले गरीब तबके की आमदनी नहीं बढ़ रही है। उसमें गिरावट है। गरीब आदमी को अपनी सारी आमदनी खर्च करनी पड़ती है। इसके विपरीत अमीर अपनी आमदनी का एक छोटा अंश ही खपत करता है। मतलब यह हुआ कि आमदनी के मुकाबले खपत कम हो रही है तो हमारी राष्ट्रीय आय अमीरों के पाले में जा रही है, गरीबों के हक में नहीं जा रही है। लिहाजा, गैर-बराबरी बढ़ती जा रही है। गैर-बराबरी बढ़ने की वजह से यह बात समझ में नहीं आती कि उनका कंजप्शन बढ़ गया है, जैसा कि बताया जा रहा है।
तीसरी बात यह है कि जो आंकड़े कंजप्शन के आए हैं, वह रुपये में है। उसका पैमाना अभी यह नहीं बताया गया है कि किस चीज में कितनी खपत हुई। कपड़ा कितना खरीदा, भोजन कितना और क्या खरीदा वगैरह। सिर्फ यह बता दिया कि इतने रुपये का खरीदा। इससे यह पता नहीं चलता कि कितना खरीदा। हो सकता है कि दाम बढ़ गए हों। इसलिए वॉल्युम (मात्रा) टर्म में नहीं बताया गया है। अभी तो मनी टर्म में बताया गया है। यह देखना होगा कि मात्रा के लिहाज से गरीब आदमी ज्यादा खपत कर रहा है क्या। अगर यह सारा डेटा आएगा, तभी बताया जा सकेगा कि वास्तविक अर्थों में खपत कितनी बढ़ी है। वास्तविक अर्थों में खपत बढ़ने से ही हम कह सकते हैं कि गरीबी कम हुई है।
कहा जा रहा है कि तकरीबन 40 प्रतिशत खर्च खाने-पीने की वस्तुओं पर घट गया है। इसके मायने क्या हैं?
यह अनुपात की बात है। जैसा जो जितना अमीर होगा,उसका खाने-पीने पर खर्च आमदनी के अनुपात में घट जाएगा। लेकिन सवाल यह है कि आप कितना खा-पी रहे हैं? मतलब कि कितने किलो अनाज वगैरह की खपत कर रहे हैं, यह नहीं पता है। दरअसल हमारी आमदनी अमीरों की ओर झुक रही है तो अनुपात में खपत का डेटा आएगा ही इस तरह से। इसका मतलब यह नहीं है कि गरीब अब खाना-पीना ज्यादा कर रहा है और उस पर खर्च कम कर रहा है या बाकी चीजों पर ज्यादा खर्च कर रहा है। यह देखना होगा कि कंजप्शन का झुकाव किस तरफ है। ये सारी चीजें तभी साफ होंगी, जब वॉल्युम का डेटा आएगा।
एक चीज और है। सरकार कहती है कि हमने उन्हें मुफ्त में अनाज वगैरह मुहैया कराया जिससे उनके हालात अच्छे हो गए- जिन्हें सरकार लाभार्थी कहती है। तो उससे कितना कंजप्शन बढ़ा, उसके आंकड़े भी दिए गए हैं। उससे 1-2 प्रतिशत ही कंजप्शन बढ़ा है। इसका मतलब यह है कि सरकार जो कल्याणकारी उपायों से दे रही है, वह लोगों तक पहुंच नहीं रहा है या फिर दे नहीं रही है। तभी तो कंजप्शन पर 1 या 2 प्रतिशत का ही फर्क पड़ा। अब यह जो अनाज या रुपये-पैसे में दी जाती है, वह तो पहले भी दी जाती थी। 2012-13 में तो उसे टेस्ट किया नहीं गया, तो उसमें उसकी तुलना भी नहीं की जा सकती।
अभी आप वास्तविक अर्थों में गरीब कितना मानते हैं?
कहा यह जाता है कि व्यक्ति को ‘लिविंग वेज’ यानी जीने योग्य मेहनताना मिलना चाहिए, न कि ‘मिनिमम वेज’ यानी न्यूनतम वेतन या मेहनताना। हमारे संविधान में भी लिविंग वेज का वादा किया गया है। लिविंग वेज में खाना, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास की सहूलियतें शामिल होनी चाहिए। मिनिमम वेज में तो न्यूनतम स्तर की बात होती है। विश्व बैंक की जो गरीबी रेखा है, वह पहले 1.9 डॉलर प्रति व्यक्ति रोजाना थी, उसे पिछले साल बढ़ाकर 2.15 डॉलर किया गया। तो उस हिसाब से आज 82-83 रुपये प्रति डॉलर के हिसाब से वह पांच व्यक्ति के परिवार के लिए करीब 26,500 रुपये महीने बैठती है। अब इसमें कहा जाता है कि क्रय-शक्ति के अनुपात में इसे देखा जाना चाहिए। वह भी कर लें और उसे तीन से भाग दे दें तो करीब 9,500 रुपये बैठती है। यानी प्रति परिवार हर महीने न्यूनतम आमदनी 9,500 रुपये होनी चाहिए।
अब देखिए कि हमारा जो ई-श्रम पोर्टल है, उसमें करीब 30 करोड़ लोग पंजीकृत हैं। प्रधानमंत्री ने खुद ही इसका ऐलान किया है। इसमें अभी तो सरकार ने बताया नहीं, लेकिन जब 27 करोड़ का आंकड़ा था तब यह बताया गया था कि 94 प्रतिशत लोगों ने अपनी आमदनी हर महीने 10,000 रुपये से कम बताई थी। इसका मतलब है कि असंगठित क्षेत्र के 94 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के आसपास हैं। अभी तक हमारी गरीबी की रेखा वह होती थी कि अतिगरीब कौन है, जिसके पास खाने-पीने को भी पर्याप्त नहीं है। लेकिन हम अगर विश्व बैंक की गरीबी रेखा की परिभाषा लें तो आप पाएंगे कि असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर लोग अब भी गरीब हैं।
दिल्ली का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण भी बड़ा दिलचस्प था। वह महामारी के पहले 2018 में आया था। उसमें दिखाया गया कि दिल्ली के 90 प्रतिशत परिवार 25,000 रुपये प्रति महीने से कम खर्च करते हैं। 98 प्रतिशत परिवार 50,000 रुपये से कम खर्च करते हैं। अब दिल्ली की प्रति व्यक्ति आय देश की प्रति व्यक्ति आय से तीन गुनी ज्यादा है। अगर हम तीन से भाग कर दें तो पता चलेगा कि 90 प्रतिशत परिवार महीने में 8,500 रुपये से कम खर्च करते हैं और 98 प्रतिशत परिवार महीने में 16,500 रुपये से कम खर्च करते हैं। अब यह मान लीजिए कि 2018 के बाद महंगाई की वजह से यह थोड़ा बढ़ गया हो तो वही 10,000 रुपये और 20,000 रुपये का आंकड़ा आ जाएगा। दिल्ली के इस उपभोग सर्वेक्षण के हिसाब से देखें तो 90 प्रतिशत परिवार 10,000 रुपये से कम खर्च करने वाले हैं। यानी एक तरह से गरीब ही हैं।
इस हिसाब से गरीबों की संख्या कितनी बैठती है?
जैसा मैंने बताया कि ई-श्रम पोर्टल के 30 करोड़ पंजीकृत लोगों में 90 प्रतिशत और उनका परिवार गरीब ही होगा। इसका मतलब यह है कि देश में करीब 90 प्रतिशत लोग गरीब हैं। दिल्ली का सामाजिक-आर्थिक सर्वे ही बता रहा है कि 90 प्रतिशत लोग 10,000 रुपये से कम खर्च करते हैं। अतिगरीब, जिनके पास खाने-पीने के भी लाले हैं, वे हो सकता है कि 140 करोड़ की आबादी में 20-25 करोड़ ही हों लेकिन गरीब 90 प्रतिशत हैं। आज अगर 141-142 करोड़ आबादी है तो 90 प्रतिशत यानी करीब 126 करोड़ लोग गरीब हैं। अतिगरीब संभव है 25 करोड़ हों लेकिन उनसे कोई 5-10-20 रुपये ज्यादा कमाता हो तो अमीर नहीं हो गया।